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12 महीनों में 1.09 करोड़ नौकरियां खत्म

महेश झा
८ जनवरी २०१९

सरकारें आंकड़े जुटाती हैं ताकि लोगों के लिए बेहतर सुविधाएं मुहैया करा सकें. लेकिन भारत सरकार आंकड़े नहीं जुटाती ताकि उस पर कुछ न करने का आरोप न लग सके. भारत सरकार के पास न तो रोजगार के आंकड़े हैं और न ही बेरोजगारी के.

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तस्वीर: Getty Images/AFP/M. Kiran

यह काम निजी संस्थानों का है. मसलन सेंटर फॉर मोनिटरिंग इंडियन इकॉनोमी प्राइवेट लिमिटेड का. उसका कहना है कि भारत में बेरोजगारी दर पिछले 27 महीनों के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई है. अब वह 7.38 प्रतिशत है. 130 करोड़ की आबादी वाले देश में यह संख्या बहुत ज्यादा नहीं लगती, यदि यह आंकड़ा सामने न आए कि पिछले 12 महीनों में 1.09 करोड़ नौकरियां खत्म हो गई हैं.

रोजगार के अवसर पैदा करने में सरकारों की बड़ी भूमिका होती है. विकास कार्यों पर खर्च कर ऐसे रोजगार बनाए जा सकते हैं जो सरकारी खजाने में करों के रूप में नई आमदनी लाएं और बाजार में खर्च कर नए रोजगार पैदा कर सकें. खासकर विकासशील देशों में यदि अर्थव्यवस्था पर ज्यादा नियंत्रण न हो तो ऐसा संभव है लेकिन आम तौर पर सरकारें सख्त नियंत्रण को ही अपना काम और मकसद समझती हैं.

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पश्चिमी देश उदार अर्थव्यवस्था का अच्छा उदाहरण हैं जहां नौकरियां सिर्फ सरकारी दफ्तरों में नहीं बल्कि नागरिक सुविधाओं में मिलती हैं, अब वो चाहे स्पोर्ट के सेंटर हों, थियेटर और कंसर्ट हॉल हों या रेस्तरां हों या फिर पर्यटन से जुड़े कारोबार हों. लोग खर्च करेंगे तो नौकरियां भी बनेंगी. जो समाज अपने सस्ते कामगारों पर गर्व करेगा, वह नई नौकरियां पैदा कर पाएगा, इसमें संदेह ही है.

करीब 8.1 करोड़ की आबादी वाले जर्मनी में 2017 में 4.4 करोड़ लोग रोजगार में थे. इनमें से 1.8 करोड़ महिलाएं थीं, हालांकि ज्यादातर महिलाएं पार्ट टाइम नौकरी करती हैं. जर्मनी के सरकारी दफ्तरों में करीब 47 लाख लोग काम करते हैं. इनमें केंद्र और राज्य सरकारों के अलावा नगरपालिकाओं के कर्मचारी भी शामिल हैं. जर्मनी उन्नत औद्योगिक देश है लेकिन मैन्युफैक्चरिंग में सिर्फ 24 प्रतिशत लोग काम करते हैं. देश की कामकाजी आबादी का तीन चौथाई हिस्सा सर्विस सेक्टर में नौकरी करता है. सेवा क्षेत्र में कुशल कामगार अहम भूमिका निभाते हैं. करीब 55 लाख लोग 10 लाख छोटे उद्यमों में काम करते हैं. कृषि में सिर्फ 1 प्रतिशत लोग काम करते हैं.

चाहे धनी देश हों या गरीब, सबसे बड़ी समस्या है अच्छे वेतन वाले रोजगारों का निर्माण ताकि लोग उससे अपने परिवारों का खर्च चला सकें. हालांकि सर्विस सेक्टर में बड़े पैमाने पर रोजगार बने हैं लेकिन वे निम्नस्तरीय और कम आमदनी वाली नौकरियां हैं.

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रोजगार विशेषज्ञों का मानना है कि कर्मचारियों के उचित प्रशिक्षण और उनकी प्रतिभाओं के इस्तेमाल से इनका स्तर भी वैसे ही बढ़ाया जा सकता है जैसे कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद मैन्युफैक्चरिंग की नौकरियों के साथ हुआ है. आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल से उत्पादकता बढ़ाकर उद्यमों का मुनाफा और कर्मचारियों की तनख्वाहें बढ़ाई जा सकती हैं.

आधुनिक कामगार भी अब पहले जैसे नहीं रहे. अब वे सिर्फ अफसरी आदेश पर काम नहीं करना चाहते, वे जिम्मेदारी लेना चाहते हैं, अपने हिसाब से काम करना चाहते हैं. काम की जगह संतुष्टि बहुत बड़ा कारक बन गया है. दफ्तरों में साफ सुथरा और हरा भरा माहौल, जरूरत पड़ने पर एकाग्रता के लिए शांति वाली जगह पर जाने की संभावना, स्वच्छ हवा और सहयोगियों के साथ बात करने की संभावना लोगों के लिए महत्वपूर्ण हो गया है. इसलिए बहुत सी कंपनियां लीडरशिप और सहकारी काम के नए तरीकों का परीक्षण कर रहे हैं.

अपनी मर्जी की नौकरी

पश्चिमी देशों में काम को आकर्षक बनाने के अलावा अन्य सामाजिक विकल्पों पर भी बहस चल रही है. इसमें से एक तो बिना काम के मासिक भत्ता देने की परियोजना है. इस समय कई देशों में अनुभव जुटाने के लिए मॉडल परियोजनाएं चल रही हैं. मकसद ये है कि जिनके पास काम नहीं होगा वे बिना किसी चिंता के कोई और हुनर सीख पाएंगे या कौशल अर्जित कर सकेंगे.

एक और मॉडल डच इतिहासकार रुटगर ब्रेगमन का है. उनका कहना है कि हफ्ते में सिर्फ 15 घंटे काम कर अच्छी जिंदगी बिताई जा सकती है. अगर ऐसा संभव हो सके तो इस समय काम करने वाले हर व्यक्ति पर दो और लोगों को काम मिल सकेगा. बेरोजगारी खत्म हो जाएगी और सभी आराम की जिंदगी जी सकेंगे.

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