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चिंता का सबब बनी बाघों की बढ़ती मौत

प्रभाकर मणि तिवारी
३१ दिसम्बर २०२१

सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद भारत में बाघों की मौत के मामले लगातार बढ़ रहे हैं. वर्ष 2021 के दौरान देश में 126 बाघों की मौत हुई है. यह आंकड़ा बीते एक दशक में सबसे ज्यादा है.

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तस्वीर: Martin Meissner/AP Photo/picture alliance

2021 में 126 बाघों की मौत हो गई.  इनमें से 60 की मौत अवैध शिकार, सड़क हादसों और इंसानों के साथ संघर्ष की वजह से हुई है. राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) ने 29 दिसंबर तक के आंकड़ों के हवाले इसकी जानकारी दी है. बाघों की सुरक्षा के लिए कई उपाय किए जा रहे हैं जिनमें गश्त करना और अवैध शिकार के लिए लोगों को गिरफ्तार करना शामिल है. बावजूद इसके इतनी बड़ी तादाद में बाघों की मौत हुई है.

इस मामले में मध्यप्रदेश पहले नंबर पर है. पश्चिम बंगाल के सुंदरबन इलाके में भी इंसानों और बाघों के बीच संघर्ष लगातार तेज हो रहा है. पर्यावरणविदों और वन्यजीव प्रेमियों ने इस पर चिंता जताते हुए हालात में सुधार के लिए ठोस कदम उठाने की मांग की है. हर साल 29 जुलाई को 'अंतर्राष्ट्रीय बाघ दिवस' मनाया जाता है.

सरकारी आंकड़ों पर सवाल

राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) ने कहा है कि वर्ष 2021 में भारत में 126 बाघों की मौत हो गई. एनटीसीए के मुताबिक, इस साल मध्य प्रदेश में सबसे ज्यादा 44 बाघों की मौत हुई. उसके बाद 26 मौतों के साथ महाराष्ट्र दूसरे और 14 मौतों के साथ कर्नाटक तीसरे नंबर पर रहा. 

भारत की बाघ विधवाएं

प्राधिकरण के एक अधिकारी बताते हैं कि वर्ष 2021 में बाघों की मौत की तादाद बढ़ी है. इसकी वजहों की जांच की जा रही है. उनका कहना है कि बाघों की सुरक्षा के लिए कई उपाय किए जा रहे हैं. इनमें गश्त तेज करना और अवैध शिकार में शामिल लोगों की धर-पकड़ शामिल है.

उस अधिकारी ने बताया कि बाघों की मौत के कई कारण हो सकते हैं. बाघों की आबादी बहुत ज्यादा है. उनकी मौत की वजहों का पता लगाने के लिए एक मानक संचालन प्रक्रिया का पालन किया जाता है. इसके साथ ही यह बात ध्यान में रखनी होगी कि करीब 30 फीसदी बाघ अभयारण्य इलाके के बाहर रहते हैं.

इस बीच, पर्यावरण मंत्रालय ने कहा है कि वर्ष 2012 से 2021 के दौरान देश में हर साल औसतन 98 बाघों की मौत होती रही है. लेकिन यह तादाद बाघों की आबादी में औसतन सालाना वृद्धि के अनुपात के लिहाज से संतुलित है. मंत्रालय के मुताबिक, एनटीसीए ने अवैध शिकार को नियंत्रित करने के लिए बाघ परियोजना के तहत कई कदम उठाए हैं.

दूसरी ओर, गैर-सरकारी संगठनों का दावा है कि बाघों की मौत के आंकड़े हकीकत में कहीं ज्यादा हैं. कई मामलों में बाघों की मौत के आंकड़े दर्ज नहीं हो पाते. ऐसे ही एक संगठन ‘सेव द टाइगर' के एक प्रवक्ता कहते हैं, "बाघ तभी जंगल से बाहर निकलते हैं जब वे बूढ़े हो जाते हैं और जंगल में आसानी से कोई शिकार नहीं मिलता."

सुंदरबन में भी संघर्ष बढ़ा

रॉयल बंगाल टाइगर का सबसे बड़ा घर कहे जाने वाले पश्चिम बंगाल के सुंदरबन इलाके में भी इंसानों और बाघों के बीच संघर्ष लगातार तेज हो रहा है. आबादी के बढ़ते दबाव और पर्यावरण असंतुलन की वजह से सुंदरबन लगातार सिकुड़ रहा है. 

इसके चलते आसपास रहने वाले लोग बाघ की चपेट में आ रहे हैं. तेजी से कटते जंगल की वजह से बाघों का यह घर यानी जंगल लगातार सिकुड़ रहा है. एक हालिया अध्ययन में इलाके के मैंग्रोव जंगलों के तेजी से घटने पर चिंता जताते हुए कहा गया था कि हालात पर अंकुश नहीं लगाया गया तो वर्ष 2070 तक सुंदरबन में बाघों के रहने लायक जंगल नहीं बचेगा.

इलाके में भोजन की तलाश में बाघ अक्सर जंगल से बाहर निकल कर नजदीक की बस्तियों में पहुंचते रहते हैं. इस दौरान अपनी जान बचाने के लिए लोग कई बार इन जानवरों को मार देते हैं. अभी इसी सप्ताह एक बाघ तीन दिनों तक गांवों में घूमता रहा. वन विभाग और फायर ब्रिगेड की भारी मशक्कत के बाद उसे पकड़ा जा सका.

सुंदरबन में प्रोजेक्ट टाइगर के पूर्व फील्ड डायरेक्टर प्रणवेश सान्याल इसके लिए वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी को भी जिम्मेदार ठहराते हैं. वह कहते हैं, "सुंदरबन के जिस इलाके में बाघ रहते हैं वहां पानी का खारापन बीते एक दशक में 15 फीसदी बढ़ गया है. इसलिए बाघ इंसानी बस्तियों में पहुंचने लगे हैं."

पश्चिम बंगाल के वन विभाग की ओर से गठित एक विशेषज्ञ समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि सुंदरबन से सटी बंगाल की खाड़ी का जलस्तर और पानी में खारापन बढ़ने, बाघों के शिकार की जगह लगातार घटने और पसंदीदा भोजन नहीं मिलने की वजह से बाघ भोजन की तलाश में इंसानी बस्तियों में आने लगे हैं.

बाघों के हमले चिंताजनक

बाघ और इंसानों के बीच लगातार तेज हो रही जंग का नतीजा दक्षिण 24-परगना जिले के आरामपुर गांव में देखा जा सकता है. इस गांव में हर साल इतने लोग बाघ के शिकार हो जाते हैं कि गांव का नाम ही विधवापल्ली यानी विधवाओं का गांव हो गया है.

बाघों के संरक्षण के लिए लम्बे समय से काम कर रहे एक गैर-सरकारी संगठन के सुदीप्तो हाजरा के मुताबिक जंगल में तेंदू पत्ता तोड़ने, मछली पकड़ने, मधु एकत्र करने या फिर लकड़ियों के लिए लोगों के जाने पर ही बाघ हमला करता है.

सरकारी आंकड़े बताते हैं कि सुंदरबन में हर साल 40 से 45 लोग बाघों के शिकार हो रहे हैं. लेकिन स्थानीय लोगों के अनुसार यह संख्या सौ से भी ज्यादा है. वन विभाग हर साल करीब 50 लोगों को ही सुंदरबन में शहद इकट्ठा करने और मछलियां आदि पकड़ने की अनुमति देता है, लेकिन अवैध रूप से सैकड़ों लोग इन जंगलों में चले जाते हैं. अधिकारियों के मुताबिक बाघों के हमले की अधिकांश मामलों में रिपोर्ट ही नहीं दर्ज कराई जाती. इसलिए हमले का सही आंकड़ा बताना मुश्किल है.

बकरी के दूध पर पला बाघ का बच्चा

सुंदरबन इलाके पर लंबे अरसे से शोध करने वाले कोलकाता के जादवपुर विश्वविद्यालय के समुद्र विज्ञान अध्ययन संस्थान के निदेशक डॉ. सुगत हाजरा कहते हैं, "इलाके में इंसानों और बाघों के बीच संघर्ष अब चिंताजनक स्तर तक पहुंच गया है. इस पर अंकुश लगाने के लिए शीघ्र ठोस कदम उठाना जरूरी है."

विशेषज्ञों का कहना है कि बाघों की आबादी भले बढ़ रही हो, उनकी मौतों के मामले भी उसी अनुपात में बढ़ रहे हैं. इस पर अंकुश लगाने के लिए सरकार को गैर-सरकारी संगठनों को साथ लेकर शीघ्र ठोस पहल करनी होगी. ऐसा नहीं होने की स्थिति में उनकी आबादी और मौतों का संतुलन गड़बड़ाने में ज्यादा देरी नहीं लगेगी.