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35 दिन तक न्यायिक सुधार की जगेगी अलख

१ फ़रवरी २०१६

भारत में तमाम सामाजिक और राजनीतिक चेतना के लिए आंदोलनों और यात्राओं का चलन स्वतंत्रता आंदोलन से ही प्रचलित है. मगर पहली बार न्यायिक सुधार के लिए देशव्यापी यात्रा का आयोजन किया गया है.

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Oberstes Gericht Delhi Indien
तस्वीर: picture-alliance/dpa

इस अखिल भारतीय यात्रा का मकसद अंग्रेजों के बनाए कानूनों से हो रहे नुकसान और इनसे मुक्ति दिलाने के लिए देश की अधिसंख्य अनभिज्ञ जनता को जगाना और कानूनी प्रक्रिया को आसान बनाने के लिए सरकार पर दबबाव डालना है. साल 2012 में जल जंगल और जमीन के मसले पर आदिवासियों की ग्वालियर से दिल्ली तक पदयात्रा और फिर यमुना को साफ करने के लिए मथुरा से दिल्ली तक की पैदल यात्रा की यादें जेहन में ताजा हैं. भारत में कुदरत के अकूत खजाने के असमान और अनियंत्रित दोहन के खिलाफ सरकार की बंद आंखों को खोलने और सोई जनता जगाने में इन यात्राओं ने गहरा असर छोडा था.

इसी का नतीजा था कि पूर्ववर्ती संप्रग सरकार की चूलें हिला देने वाले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल को आंदोलन और राजनीति के फलक पर नई मंजिल तक पहुंचा दिया. वहीं नदियों के लगातार खतरे में पड़ते वजूद को इतना बडा सियासी मुद्दा बना दिया कि मोदी सरकार को भी सत्तासीन होने के बाद नदियों को साफ करने के लिए अलग मंत्रालय बनाना पड़ा. यह बात दीगर है कि ये कवायदें भी अपने अतीत को दोहराते हुए नक्कारखाने में तूती साबित हो रही है.

जो भी हो, आंदोलनों की उर्वर जमीन से उपजी आस ने देश में एक बार फिर आने वाले समय में न्यायिक सुधार के लिए एक व्यापक जनआंदोलन की भूमिका तैयार कर दी है. अब तक न्यायिक सुधार के लिए सरकार और सामाजिक सरोकारों से जुड़ा चिंतनशील तबका ही सक्रिय रहता था. लेकिन पहली बार भारत में इस विषय पर राष्ट्रव्यापी सामाजिक आंदोलन की फसल बोने की पहल हुई है. अब तक जनसामान्य का न्यायिक सुधार से सीधा कोई वास्ता नहीं था. लेकिन अब आने वाले 35 दिनों तक देश के हर जिले में न्यायिक सुधार की जरुरत पर जन-जन को जागरुक किया जाएगा. यह सिलसिला गांधी जी की पुण्यतिथि 30 जनवरी को दिल्ली स्थित उनकी समाधि राजघाट से शुरु हो गया.

सामाजिक संगठन फोरम फॉर फास्ट जस्टिस की ओर से शुरु की गई यह कवायद कितनी रंग लाएगी यह तो भविष्य ही बताएगा. लेकिन इसके स्वरुप और दायरे पर तात्कालिक विमर्श समीचीन होगा. मुंबई स्थित इस संस्था के प्रमुख भगवानजी रैयानजी और कर्नाटक हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस जीसी भारुका ने राजघाट से इस यात्रा को 22 राज्यों के 170 जिलों से गुजर कर न्यायिक सुधार की मशाल रोशन करने के लिए रवाना किया. आगामी 4 मार्च को फिर से दिल्ली के जंतर मंतर पर आने वाली इस यात्रा का मकसद फरियादों को अदालत से जल्द न्याय दिलाने और मुकदमों के लंबित होने की लाइलाज होती बीमारी से निजात दिलाना है.

जस्टिस भारुका से लेकर कानून और समाज की सामान्य जानकारी रखने वाले प्रत्येक सामान्य प्रज्ञावान नागरिक का यह मत है कि मौजूदा कानून अपने मकसद को हासिल कर पाने में नाकाम साबित हो रहे हैं. इसका मूल कारण जो कानून देश की जनता पर बीते सात दशकों से लागू है उनकी उपज के मूल में भारतीय जनमानस नहीं था. यह एक भुलावा है जिसे हर कोई दबी जुबान से मानता है कि इन भारतीयों ने अंग्रेजों के बनाए उन कानूनों को आजादी मिलने के बाद आपाधापी में अपना लिया था जिन्हें भारतीयों को अनंत काल तक गुलाम बनाए रखने के लिए अंग्रेजों ने बनाया था. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू कानून व्यवस्था के कारगर परिणाम नहीं मिल पाने के पीछे इसे अहम वजह मानते हुए कहते हैं कि भारतीय जनता 70 साल में भी इन कानूनों को अपना नहीं सकी है.

जटिल कानूनी व्यवस्था सिर्फ सभ्रांत तबकों को लाभ पहुंचाने में कामयाब रही है. जबकि अधिसंख्य गरीब, अशिक्षित और पिछड़ी जनता आज भी न्याय की आस में दर दर की ठोकरें खाने को अभिशप्त है. इसका सबसे मौजूं उदाहरण वाहन दुर्घटना के मामले हैं. जिनमें पीडि़त पक्षकारों को जानमाल की कीमत चुका कर मुआवजे के लिए पीढि़यों तक मुकदमा लड़ना पड़ता है और नतीजा सिफर रहता है. जबकि हादसे को अंजाम देने वाले वाहन मालिक पीड़ित पक्षकार की मौत के बावजूद घटनास्थल से ही जमानत पा जाते हैं. इसकी वजह कानून में आज भी अंग्रेजों के हितकारी प्रावधान शामिल होना है.

ये और अन्य तमाम मामलों के निपटारे की प्रक्रिया बेहद जटिल होने के कारण न्यायिक प्रक्रिया न सिर्फ लेटलतीफी की शिकार है बल्कि इंसाफ के दरवाजे को गरीब और मजलूमों के लिए दौर की कौड़ी बना देती है. यही प्रक्रियागत खामी शीर्ष से लेकर निचली अदालतों तक में सैकड़ों करोड़ मुकदमों के लंबित होने का कारण बन गई है. रैयान जी के मुताबिक अब तक लोग इस बीमारी से सीधे तौर पर प्रभावित तो हैं लेकिन इसके इलाज की प्रक्रिया में उनका प्रत्यक्ष जुड़ाव नहीं होने के कारण न्यायिक सुधार की मांग सिरे नहीं चढ़ पा रही है. इस कमी को दूर करने के लिए ही इस यात्रा का आयोजन किया गया है.

अपने तरह की यह पहली यात्रा न्यायिक सुधार की मंजिल सबित होगी या महज एक पड़ाव बन कर रह जाएगी, यह तो समय के गर्भ में छुपा है. मगर इतना तो तय है कि जनसामान्य को उनके न्यायिक अधिकारों से अवगत कराने के लिए हर दरवाजे पर दस्तक देने की यह शुरुआत देर सबेर बेहतर भविष्य की इबारत लिखने वाली साबित जरुर होगी.

ब्लॉग: निर्मल यादव