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समाज

बुजुर्ग बाप के सामने बेटे की हत्या की गुत्थी

सांड्रा पेटर्समन
२० अप्रैल २०१८

तीन साल से अजय रॉय अपने बेटे की हत्या से जुड़े सवालों के जवाब तलाश रहे हैं. उनके बेटे और जाने-माने ब्लॉगर अभिजीत राय की ढाका में 2015 में इस्लामी कट्टरपंथियों ने गला रेत कर हत्या कर दी थी. अब तक मुकदमा लटका हुआ है.

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Bangladesch Gedenken an Blogger Avijit Roy
तस्वीर: picture-alliance/dpa/A. Abdullah

अजय रॉय को सांस लेने में तकलीफ होती है. उनकी तबियत ठीक नहीं रहती है जिसके कारण वे कमोबेश अपनी चार दीवारी में ही सिमटे रहते हैं. लेकिन उनकी आवाज में गुस्सा है और अपने बेटे को खोने का गम भी. डॉयचे वेले के साथ एक लंबी मुलाकात में उन्होंने कहा, "मैं बहुत गुस्सा हूं और व्यथित हूं, लेकिन मैं एक धीरज वाला व्यक्ति हूं, जो अपने दुख को गरिमा के साथ संभाल सकता है." कुछ देर बाद उन्होंने कहा, "कभी कभी अपने आंसुओं को रोकना मुश्किल हो जाता है. आखिरकार मैं भी एक पिता हूं. और जब मैं अपने बेटे की तस्वीरें देखता हूं, तो हमेशा अपने आप से पूछता हूं: क्यों अभिजीत, तुम क्यों वापस आए?"

सिमटता दायरा

अजय रॉय भौतिकी के एक जाने-माने रिटायर्ड प्रोफेसर हैं, जिन्हें अपने काम के लिए बहुत सारे सम्मान मिले. उनका संबंध स्वतंत्रता सेनानियों की पीढ़ी से रहा है. 1971 में अन्य बुद्धिजीवियों की तरह उन्होंने भी बांग्लादेश की आजादी के लिए हथियार उठाए थे.

उस वक्त पाकिस्तान का विभाजन हुआ और भारत की मदद से बांग्लादेश एक अलग देश बना. तभी से धर्मनिरपेक्ष और कट्टरपंथी ताकतों के बीच बांग्लादेश में सत्ता का संघर्ष चलता रहा है. अजय रॉय एक ऐसे धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के समर्थक हैं जिनमें धर्म एक निजी मामला हो. अपने अकादमिक करियर में उन्होंने हमेशा मानवीय मूल्यों वाली शिक्षा का समर्थन किया, जो विज्ञान की मदद से अहम सवालों के जवाब तलाशने में मदद करे. प्रोफेसर रॉय कहते हैं, "वैज्ञानिक के तौर पर जो भी मैंने हासिल किया, मुझे उस पर गर्व है. लेकिन अब हालात बदल गए हैं. बांग्लादेश में नागरिक स्वतंत्रता सिमट रही है और उदारवादी सोच के लिए जो जगह है उसे दबाया जा रहा है."

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उनके बेटे अभिजीत ने भी विज्ञान में ही करियर बनाने का फैसला किया था. उन्होंने ढाका में इंजीनियरिंग पढ़ी. फिर सिंगापुर से अपनी डॉक्टरेट की और 2007 में अमेरिका में जाकर बस गए. वहां उन्होंने खुद को सॉफ्टवेयर डेवेलपर के तौर पर स्थापित किया. साथ ही उन्होंने "मुक्तो मोना" (मुक्त मन) नाम से एक नास्तिक ब्लॉग लिखना भी शुरू किया. अपने पिता अजय रॉय की तरह, अभिजीत भी मानवतावादी और मुक्त विचारों वाले इंसान थे. लेकिन अपने पिता के विपरीत, अभिजीत इंटरनेट युग वाली पीढ़ी का हिस्सा थे. उन्होंने सोशल मीडिया का बेहतर तरीके से इस्तेमाल कर आतंकवाद के साए वाले इस दौर में इस्लाम की भूमिका पर बहस छेड़ी. अभिजीत ने कई किताबें भी लिखीं जिनमें "द वायरस ऑफ फेथ" भी शामिल है.

हत्या की अनसुलझी गुत्थी

अभिजीत फरवरी 2015 में अमेरिका से ढाका पुस्तक मेले में हिस्सा लेने पहुंचे. उनके पिता ने कहा था कि मत आओ. उस वक्त तक बांग्लादेश में कई धार्मिक आलोचकों, ब्लॉगरों और अन्य धार्मिक समुदायों से संबंध रखने वाले लोगों की हत्याएं की जा चुकी थीं. वह याद करते हैं कि अभिजीत ने उनसे पूछा था, "कट्टरपंथी भला मुझे क्यों मारेंगे, डैड, मैं तो बस एक ब्लॉगर हूं." इसके बाद एक लंबी खामोशी माहौल को अपने आगोश में ले लेती हैं. फिर, प्रोफेसर रॉय कहते हैं, "कितनी मासूम थी उसकी सोच और उसने इसकी कीमत चुकाई."

Bangladesch Extremismus
तस्वीर: picture-alliance/AP Images/R. Dhar

चश्मदीदों के मुताबिक, जब कट्टरपंथियों ने धारदार हथियार से अभिजीत की हत्या की तो पुलिस पास ही थी. लेकिन आज तक इस मामले में किसी को दोषी करार नहीं दिया गया है. 2013 से 2016 के बीच बांग्लादेश में कम से कम 10 ब्लॉगरों की हत्या की गई और सभी के मामलों में कमोबेश यही हालात हैं. बांग्लादेश में विदेशी नागरिकों और गैर मुस्लिम लोगों पर भी हमले हुए हैं. क्या ऐसे मामलों की छानबीन में सरकार की कोई दिलचस्पी नहीं है? प्रोफेसर रॉय कहते हैं, "मैं इस सवाल का सीधे तौर पर जवाब नहीं दे सकता. जिन लोगों पर इस काम की जिम्मेदारी है, वे या तो सक्षम नहीं हैं या फिर फिट नहीं हैं. या फिर वे ऐसा करना नहीं चाहते. और भला मैं क्या कह सकता हूं?"

बावजूद इसके, प्रोफेसर रॉ़य नहीं सोचते कि उनका देश धर्म आधारित सत्ता की तरफ जा रहा है. वह कहते हैं, "हत्याएं धार्मिक कट्टरपंथियों का काम हैं. लेकिन ये बहुत छोटे समूह हैं. बहुसंख्यक लोग एक धर्मनिरपेक्ष और सहिष्णु देश चाहते हैं." वह सरकार से यह याद रखने का आग्रह करते हैं कि "हमारा संविधान एक धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी राष्ट्र सुनिश्चित करता है." यह कहने के बाद वह अभिजीत की एक फोटो अलबम को पलटने लगते हैं. अजय रॉय बताते हैं कि अभिजीत और उनके छोटे भाई बचपन से ही खूब किताबें पढ़ते थे और आलोचनात्मक सवाल पूछते थे. वह कहते हैं, "बांग्लादेश में राजनीतिक कुप्रबंधन हैं. हम मारे गए ब्लॉगरों को न्याय नहीं दे पाए. यह सिलसिला जारी है, बांग्लादेश एक एक दिन अराजक देश बन जाएगा. "

संतुलन की कमी

हुसैन तौफीक इमाम प्रोफेसर अजय रॉय से सिर्फ चार साल छोटे हैं. उनका संबंध भी स्वतंत्रता सेनानियों की पीढ़ी से रहा है. लेकिन 79 साल के इमाम राजनीति में चले गए. अब वह प्रधानमंत्री शेख हसीना के राजनीतिक सलाहकार हैं और ब्लॉगरों की हत्या के मामलों में किसी तरह की ढिलाई के आरोपों को खारिज करते हैं. उनका कहना है कि सभी मामलों में जांच चल रही है और ज्यादातर ब्लॉगरों की हत्या के मामलों को जल्द सुलझा लिया जाएगा. वह कहते हैं, "आप जल्द ही अदालत के फैसले के बारे में सुनेंगे." लेकिन अभिजीत की हत्या के मामले में तो अभी तक चार्जशीट भी दाखिल नहीं हुई है.

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हाल के सालों में बांग्लादेश में कई ब्लॉगरों की हत्या हुई हैतस्वीर: Getty Images/AFP

इमाम जोर देकर कहते हैं कि उनकी सरकार उग्रपंथ और हिंसक कट्टरपंथियों को कतई बर्दाश्त नहीं करेगी. बांग्लादेश के अन्य मंत्रियों की तरह, वह ब्लॉगरों की हत्या के लिए एक हद तक खुद उन्हें ही जिम्मेदार बताने से नहीं चूकते हैं. वह कहते हैं, "बांग्लादेश एक मुस्लिम बहुल देश है. और कुछ लोग बहुत ज्यादा धार्मिक हैं. इसीलिए जब आप कुरान को तोड़ मरोड़ कर पेश करते हैं और पैगंबर के जीवन पर टिप्पणी करते हैं, तो कुछ लोग नाराज हो जाते हैं. वे अपना संतुलन खो देते हैं. इसीलिए खुद ब्लॉगरों ने भी अपने लिए मुश्किलें पैदा की हैं."

इमाम की राय में, अभिव्यक्ति की आजादी का यह मतलब नहीं है कि आपको लोगों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने की खुली छूट मिल गई है. साथ ही वह बांग्लादेश के धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर भी जोर देते हैं जिसे बचाए जाने की जरूरत है. वह कहते हैं, "धर्मनिरपेक्षता के दुश्मन ब्लॉगर भी हैं और उनकी हत्या करने वाले भी. दोनों चरमपंथी हैं. हमें इन चरमपंथियों को मुख्यधारा में लाना होगा. यही राजनीति का मुख्य काम है."

दूसरी तरफ ढाका के बीचोंबीच स्थित लाल बाग मस्जिद के मदरसे की छत पर मुफ्ती फैजुल्लाह उदारवादी ब्लॉगरों और इस्लाम के बारे में आलोचनात्मक लेख लिखने वालों की हत्या में अपनी किसी भूमिका से इनकार करते हैं. वह कहते हैं कि "सच्चे इस्लामी राज्य में" ऐसी हत्याएं नहीं होगी. वह इसे एक साजिश बताते हैं जिसका मकसद "इस्लाम को नुकसान पहुंचाना है". फैजुल्लाह बांग्लादेश के प्रभावशाली कट्टरपंथियों में से एक हैं और अकसर सुर्खियों में रहना पसंद करते हैं.

Bangladesch - die Stunde der Islamisten
मुफ्ती फैजुल्लाह बांग्लादेश के जाने माने कट्टरपंथियों में से एक हैंतस्वीर: DW/H. C. Ostermann

वह कहते हैं, "मुसलमानों के लिए अल्लाह और पाक पैगंबर सबसे अहम हैं. अगर आप उन्हें बुरा भला कहेंगे तो इसे हम अपने ऊपर हमला महसूस करते हैं." फैजुल्लाह तोड़फोड़ की कार्रवाई का समर्थन करने से इनकार करते हैं. लेकिन अगले ही सांस वह कहते हैं, "हम चाहते हैं कि सरकार इस्लाम के दुश्मनों के खिलाफ कार्रवाई करे." वह नास्तिक लोगों को मौत की सजा तक दिए जाने की पैरवी करते हैं.

2014 में मुफ्ती फैजुल्लाह ने सार्वजनिक तौर पर उस मंत्री को फांसी देने की मांग की थी जिसने हज यात्रा की आलोचना की. कट्टरपंथियों के बड़े विरोध प्रदर्शनों के बाद प्रधानमंत्री शेख हसीना को मंत्री लतीफ सिद्दीकी को बर्खास्त करना पड़ा. तो क्या बांग्लादेश की सरकार कट्टरपंथियों की मांगों के सामने इसलिए झुक रही है ताकि वे ग्लोबल जिहादी नेटवर्क का हिस्सा ना बन जाए? इसके अलावा देश में जल्द ही संसदीय चुनाव भी होने वाले हैं. सत्ताधारी पार्टी को सरकार में बने रहने के लिए कट्टरपंथियों के समर्थन की जरूरत है. रुढ़िवादी बांग्लादेश में कोई भी सार्वजनिक तौर पर नास्तिक लोगों का समर्थन करने की हिम्मत नहीं करता.

आग से खेलना

सारा हुसैन बांग्लादेश के नामी वकीलों में से एक हैं और वह देश के मौजूदा हालात को लेकर चिंतित हैं. उनके पिता उस आयोग के अध्यक्ष थे जिसने 1971 की लड़ाई के बाद देश का धर्मनिरपेक्ष संविधान तैयार किया था. वह कहती हैं, "आज हम देश में न सिर्फ असहिष्णुता को बर्दाश्त करने की इच्छा देख रहे हैं, बल्कि उसे अपनाया भी जा रहा है."

Bangladesch - die Stunde der Islamisten
सारा हुसैन बांग्लादेश के मौजूदा हालात से मायूस हैंतस्वीर: DW/H. C. Ostermann

वह कहती हैं कि देश की राजनीति का अब धर्मनिरपेक्षता में कोई विश्वास नहीं बचा है, जबकि यह संविधान की प्रस्तावना का एक स्तंभ है. वह कहती हैं, "अब इस विचार में हमारा भरोसा नहीं रहा कि हर किसी को जीवन और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है, भले ही वह किसी भी धर्म से हो."

दुनिया के अन्य देशों की तरह, बांग्लादेश की राजधानी ढाका ने भी कई बड़े आतंकवादी हमले झेले हैं. जुलाई 2016 में राजनयिक एरिया में हुए हमले में 20 लोग मारे गए जिनमें कई विदेशी भी थे. सारा हुसैन कहती हैं कि कई छोटी छोटी बातों पर दुनिया का ध्यान नहीं जाता है, लेकिन उनके जरिए कट्टरपंथी लगातार मजबूत हो रहे हैं. वह पिछले साल सुप्रीम कोर्ट के सामने से न्याय की देवी की मूर्ति को हटाने की मिसाल देती हैं. मुफ्ती फैजुल्लाह जैसे लोगों ने इसे अपनी "संस्कृति पर हमला" और "मूर्ति पूजा" का नाम दिया. मानवाधिकार कार्यकर्ता सारा हुसैन कहती है कि बांग्लादेश में तेजी से हो रहा बदलाव आपको दिखेगा नहीं, लेकिन इससे आपकी जिंदगी बदल रही हैं और आपके रहन सहन का दायरा सिमट रहा है. वह इसे आग से खेलना बताती हैं.