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इनकी जिंदगी में जहर घोल रही हैं मिठाई की दुकानें

१७ मार्च २०१७

विजय कुमार के कूल्हे पर रिसता हुआ घाव उन्हें कभी नहीं भूलने देता कि भारत में गरीबों की जिंदगी कितनी मुश्किल है. चार साल पहले यह निशान दिया था, उस मिठाई की दुकान के मालिक ने जहां विजय काम करते थे.

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तस्वीर: DW/Prabhakar Mani

विजय का कसूर बस इतना था कि जो समोसे वह बना रहे थे, उनमें खाने का रंग ज्यादा गिर गया था. इसके लिए दुकान के मालिक ने विजय को रॉड से पीटा और उनकी टांग पर गर्म तेल डाल दिया. उस वक्त विजय की उम्र 15 साल थी.

वह बताते हैं, "चार साल में मैंने इस घाव पर सब कुछ लगा कर देख लिया." अब कुछ ही हफ्तों में उनकी सर्जरी होने वाली है. विजय की टांग को कटने से बचाने का बस यही तरीका बचा है. विजय तमिलनाडु के डिंडीगुल जिले के रहने वाले हैं. उनकी मां को 15 हजार रुपए देकर कोई उन्हें महाराष्ट्र ले गया था. तमिलनाडु में लड़कों को इस तरह तस्करी के जरिए देश के पश्चिमी या उत्तरी इलाकों में ले जाया जाता है. वहां उनसे खूब काम कराया जाता है और पर्याप्त मेहनताना भी नहीं दिया जाता.

विजय बताते हैं, "मैं ना तो अपनी दोनों बहनों की शादी पर घर जा सका और न ही अपनी दादी के मरने पर. मैंने रोज होने वाली गाली गलौज को अनदेखा किया. अपने ऊपर अकसर गर्म तेल डाले जाने की भी मैंने परवाह नहीं की. लेकिन उस दिन बात बर्दाश्त से बाहर हो गई थी."

सितंबर 2016 में विजय उस दुकान से सबेरे सबेरे भाग निकलने में कामयाब रहे. उन्होंने बिना टिकट यात्रा की और तीन दिन में डिंडीगुल जिले में अपने गांव पहुंच गए. सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि सस्ते श्रम की तलाश में एजेंट गरीब, अनपढ़ और दलित परिवारों को हर साल कोई एकमुश्त राशि का वादा कर उनके बच्चों को काम करने के लिए ले जाते हैं.

एक गैर सरकारी संगठन चाइल्ड वॉइस चलाने वाले एस अन्नादुरई कहते हैं, "डिंडीगुल के 30 गांवों में हमारे एक रैंडम सर्वे में पता चला कि 122 बच्चों को बाहर ले जाया गया है. 20 प्रतिशत मामलों में माता-पिता को पता ही नहीं होता कि उनके बच्चे को कहां ले जाया गया. वे बस गुम हो गए हैं"

2011 में पश्चिमी और उत्तर भारत के विभिन्न हिस्सों से तमिलनाडु के 40 लड़कों को बचाया गया. विजय के साथ सूर्य प्रकाश भी काम करते थे. उन दोनों को एक एजेंट महाराष्ट्र ले गया था जबकि कुछ लड़कों को गुजरात और उत्तर प्रदेश ले जाया गया था. इनमें से कुछ की उम्र तो मुश्किल से 10 साल थी. इन बच्चों को सवेरे पांच बजे जगा दिया जाता है और देर रात तक वे काम करते हैं. ये समोसे-कचौड़ी तलने, मिठाई बनाने और फिर उन्हें पैक करने का काम करते हैं.

विजय बताते हैं, "एक दिन में हम 75 किलो बालूशाही और गुलाब जामुन और चिप्स बनाते थे." डिंडिगुल जिले में अपने गांव सौंदर्यापुरम में घर के बाहर बैठे विजय कहते हैं, "हमें घर की बहुत याद आती थी. घर जाना चाहते थे लेकिन वे आने नहीं देते थे."

चार साल तक इन लड़कों से काम कराया गया. उन्हें कोई पैसा नहीं दिया गया. बाहर भी वे अकेले नहीं जा सकते थे. परिवार से बातचीत सिर्फ दुकान मालिक के फोन से ही संभव थी. मालिक का एक रिश्तेदार लड़कों के परिवारों को समय समय पर थोड़ी बहुत रकम देता था.

उन्हें राशन के गोदाम में ही सोना पड़ता था. उनका पूरा दिन कढ़ाई के सामने या फिर मिठाई की ट्रे के ऊपर झुके हुए बीतता था. उन्हें मिठाइयां काट कर उन्हें पैक करना होता था. प्रकाश का अब कोई अता पता नहीं है. विजय की शिकायत पर दुकान के मालिक को गिरफ्तार कर लिया गया है. पुलिस का कहना है कि मामले के दो संदिग्ध अब भी फरार हैं.

अमुधा पालानिसामी ने 2014 में अपने 15 साल के बेटे को काम करने के लिए भेजा था. तब से उन्होंने अपने बेटे को न तो देखा है और न ही यह जानती हैं कि वह कहां है. वह बताती हैं कि उन्हें 10 हजार रुपए एडवांस दिए गए थे और इन तीन सालों में उनके पास 70 हजार रुपए भेजे गए हैं. वह बताती हैं, "मुझसे कहा गया कि मैं या तो उससे मिल सकती हूं या फिर पैसे ले सकती हूं."

चाइल्ड वॉइस के अन्नादुरई कहते हैं कि इन लड़कों का एक महीने का वेतन आम तौर पर दो हजार रुपए होता है. उनके मुताबिक, "इतने कम पैसे के लिए, उनकी तस्करी होती है और सालों तक उनसे बंधुआ मजदूर की तरह काम लिया जाता है."

एके/एमजे (थॉमसन रॉ़यटर्स फाउंडेशन)