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सेंसर बोर्ड को डिब्बे में डाल देने का वक्त आ गया है

मारिया जॉन सांचेज
२६ अप्रैल २०१७

सेंसर बोर्ड जिस तरह के फैसले कर रहा है, उन्हें देखते हुए अब यह सवाल पूछा जा रहा है क्या वाकई उसकी जरूरत बची भी है या नहीं?

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Indien Zensur-Büro-Vorsitzender Pahlaj Nihalani
तस्वीर: Getty Images/AFP/STR

केवल भारत में ही यह संभव है कि जिस फिल्म को मुंबई फिल्म महोत्सव में लिंग समानता के लिए 'ऑक्सफैम पुरस्कार' और टोक्यो अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में 'स्पिरिट ऑफ एशिया' पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका हो, उसे फिल्म सेंसर बोर्ड प्रदर्शन के लिए प्रमाणपत्र देने से ही इनकार कर दे, और कारण यह बताए कि फिल्म ‘महिला-केन्द्रित' है. हालांकि अब इस संबंध में अपील सुनने वाले ट्राईब्यूनल ने सेंसर बोर्ड को निर्देश दिया है कि वह फिल्म को ‘ए' यानी वयस्क फिल्म का प्रमाणपत्र दे और निर्देशक प्रकाश झा उसमें एकाध जगह पर हल्की-फुल्की काट-छांट करें.

लेकिन इससे सेंसर की समस्या का स्थायी हल नहीं निकलता. सेंसर बोर्ड यूं तो हमेशा ही विवादों के केंद्र में रहा है, लेकिन जब से पहलाज निहलाणी इसके अध्यक्ष बने हैं, तब से समस्या और अधिक गंभीर हो गई है क्योंकि उनका रवैया मनमानीभरा और तानाशाही है. इसका एक कारण यह भी है कि उनकी फिल्म जगत में एक निर्देशक के तौर पर वह हैसियत नहीं रही, जो सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष की होनी चाहिए ताकि उसके फैसलों को लोग गंभीरता से लें और सम्मान दें.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के प्रति अतिशय भक्ति दिखाने के उनके उत्साह ने भी उनके सम्मान में कमी की है. भला ऐसे सेंसर बोर्ड अध्यक्ष को कोई क्या सम्मान करेगा जो किसी फिल्म के संवाद से ‘मन की बात' इसलिए निकालने को कहे क्योंकि यह मोदी के रेडियो पर दिये जाने वाले नियमित भाषण के कार्यक्रम का शीर्षक है? इसी तरह उन्होंने यह बयान देकर सनसनी मचा दी थी कि भारत सरकार को पाकिस्तानी कलाकारों को यहां आने की अनुमति नहीं देनी चाहिए.

आज के समय में जब इंटरनेट के कारण देशों की सीमाओं के बीच सूचनाओं, विचारों और हर प्रकार की कला का निर्बाध संचार हो रहा है, यूं भी सेंसर बोर्ड का होना ही आश्चर्यजनक लगता है. किसी भी निर्देशक से दृश्यों, संवादों और गीतों की पंक्तियों में कतर-ब्योंत करने के लिए कहना न सिर्फ उसकी कलात्मक अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाना है, बल्कि अपमानजनक भी है. सेंसर बोर्ड का काम केवल फिल्म के दर्शक वर्ग के आयु-समूह को निर्धारित करना है यानी यह तय करना कि फलां फिल्म कितने वर्ष से कितने वर्ष की आयु के बीच के दर्शकों को दिखायी जा सकती है. अधिकांश देशों में अब यही प्रणाली लागू है और किसी फिल्म पर प्रतिबंध लगाने की कल्पना भी नहीं की जाती क्योंकि फिल्म बनाना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है.

भारत में सेंसर बोर्ड पर बहुत समय से भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं और समय-समय पर इस सिलसिले में गिरफ्तारियां भी हुई हैं. जहां भी कोई प्रणाली पारदर्शी नहीं होती, वहां भ्रष्टाचार पनपने की पूरी संभावना होती है. यदि पिछले पांच-छह दशकों के इतिहास पर नजर डालें तो पाएंगे कि अनेक ऐसी फिल्में जिनमें द्वियार्थक संवाद और गाने थे, अश्लील और भोंडे दृश्य एवं नृत्य थे, उन्हें सेंसर बोर्ड की ओर से कोई परेशानी नहीं हुई और आराम से ‘यू' प्रमाणपत्र मिल गया जिसका अर्थ होता है कि उसे बूढ़ा हो या बच्चा, किसी भी आयु का व्यक्ति देख सकता है. इसके विपरीत अनेक ऐसी फिल्मों को घोर कठिनाई का सामना करना पड़ा जिनमें किसी प्रकार का राजनीतिक संदेश था या धार्मिक और सामाजिक कुरीतियों की आलोचना थी.

सेंसर बोर्ड के सदस्य ही नहीं, उसके अध्यक्ष भी मनमाने ढंग से चुने जाते रहे हैं. इसलिए समय-समय पर बोर्ड के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लगते रहे हैं और पूछा जाता रहा है कि क्या उसके होने का कोई वास्तविक औचित्य भी है? जिस तरह से प्रकाश झा की फिल्म को मनमाने ढंग से प्रमाणपत्र देने से माना किया गया, यानी एक तरह से उस पर अनौपचारिक प्रतिबंध ही लगा दिया गया, वह अपने आप में सेंसर बोर्ड की स्थिति को हास्यास्पद और संदिग्ध बनाने के लिए काफी है.