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कहां जाएं कि नजर ही न आएं

८ अप्रैल २०१३

भारत में विकास की परिभाषा गांवों को उजाड़ कर पूरी होती है. विस्थापन के बाद कई बार खेत का मालिक अपनी ही जमीन पर बने फैक्ट्री में मजदूरी करने को बेबस है. क्या देश का सकल घरेलू उत्पाद ऐसे बढ़ेगा. शिवप्रसाद जोशी का ब्लॉग.

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तस्वीर: dapd

पूर्वोत्तर राज्यों में जातीय दंगों और सरकारी उदासीनता ने अल्पसंख्यकों को निरंतर भटकाव में डाल दिया है तो इधर मुख्यधारा कहे जाने वाले देश में गांव के गांव खाली हो रहे हैं और विशेष औद्योगिक क्षेत्र तेजी से खेती की जमीनों को लीलता जा रहा है. निवेश की आंधियां चल रही हैं. सकल घरेलू उत्पाद में खेती किसानी की भूमिका नगण्य होती जा रही है और पूरा जोर निर्माण और सर्विस सेक्टर पर है.

दस साल होने को आ रहे, एशिया के सबसे बड़े टिहरी बांध से 125 गांव और लाखों की आबादी विस्थापित हुई है और पुनर्वास को लेकर असंतोष और आंदोलन बना हुआ है. भारत में नंदीग्राम, कलिंग नगर, कुडनकुलम, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, जम्मू कश्मीर देश का कोई हिस्सा शायद ही होगा जहां स्थानीय लोग विस्थापन का दंश न झेल रहे होंगे.

पूरे देश में खेतिहर लोग जमीनों को छोड़ कर दूसरे प्रदेशों में नौकरी पानी की खोज में भटक रहे हैं. किसान खेतों को छोड़ कर शहरों में मजदूरी कर रहे हैं. असंगठित मजदूर वर्ग विकराल विकल्पहीनता से जूझ रहा है. जीवित बचे रहने की लड़ाई जारी है. स्वास्थ्य, शिक्षा और पोषण जैसी बुनियादी जरूरतें तो छोड़ ही दीजिए. गांवों का देश कहते थे. अब क्या कहें. गांवों को हमने क्या से क्या बना दिया है.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

विकास का ऐसा मॉडल बना दिया गया है कि जो जितना ऊपर उठता जाता है उतना ही वंचितों को और भूमिहीनों को और गरीबों को दबाता जाता है. ये पूंजी निवेश का, कॉरपोरेट होड़ का और मुनाफे के वर्चस्व का मॉडल है. इस मॉडल की सबसे पहली मांग यही है कि खेती हटाओ बाजार बनाओ. कृषि अनुपयोगी है, जमीनें अनुपयोगी हैं और इस बेकारी को उद्योग ही दूर करेंगे. कल कारखाने खुलेंगे तो देश चमकेगा.

लेकिन ये अखिल भारतीय चमक आखिर किस कीमत पर चाहते हैं. क्या खाद्यान्न नहीं चाहिए, क्या हमें अनाज गेहूं चावल दाल नहीं चाहिए. क्या खाद्य सुरक्षा नहीं चाहिए. आखिर इस मॉडल में तरक्की की परिभाषा क्या रखी गई है. और अगर ये परिभाषा देश को विकसित देशों की पांत में जा पहुंचाने के लिए काम आती है तो इस "विकसित" की अवधारणा में गांव देहात और शहरों के गरीब कहां हैं. क्या उनका कायापलट हो जाने वाला है, रूपांतरण और वर्गांतरण हो जाने वाला है. इस देश के 80 फीसदी लोग क्या वैसे ही अमीर, खुशहाल और संपन्न और स्वस्थ हो जाएंगे जैसे कि 20 फीसदी लोग हैं.

समावेशी विकास का नारा किताबों और पर्चों और सेमिनारों और सरकारी चिंताओं तक ही क्यों सिकुड़ा है. वो हकीकत में नजर क्यों नहीं आता. क्यों टिहरी के लोगों को एक बांध की खातिर घर गांव खेत खलिहान डुबो कर निकल जाना पड़ता है, क्यों नर्मदा नदी के मौलिक संरक्षक सिरों पर पोटलियां उठाएं शहरों में दर दर भटक रहे हैं, क्यों ऐसा हो रहा है कि खेत के मालिक को ही रातों रात उसी खेत में बनने वाली फैक्ट्री में मजदूर बना दिया जाता है. ये खुशहाली का उद्योगीकरण है या विस्थापन का.

उद्योग फले फूलें कौन नहीं चाहेगा, कल कारखाने खुलें, औद्योगिक विकास हो, महंगाई दर कम हो, निवेश आए, खुशहाली लाए, कौन नहीं चाहता. लेकिन इसके लिए ये क्यों कहा जाता है कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना तो पड़ेगा. पलट कर ये सवाल तो हमारे कर्णधारों की फाइलों और योजनाओं से टकराता ही है कि कुछ खोने का गणित हर बार दबे कुचलों और अपने संसाधनों की हिफाजत कर रहे लोगों के विरोध में ही क्यों जाता है.

Indien - Proteste gegen den Onkareshwar Damm
तस्वीर: picture-alliance/dpa

एक बार फिर हम टिहरी की मिसाल लेते हैं. बांध बनने से बिजली मिलेगी, पानी मिलेगा, खेती होगी रोजगार होगा लेकिन स्थानीय लोगों को तो ये सब कुछ मिला नहीं. वे तो अपनी मिट्टी से ही उखड़ गए. क्या ऐसा हो सकता था कि बांध बनता तो सही लेकिन इतने बड़े पैमाने पर विस्थापन न करता. लोगों को उखड़ना न पड़ता.

और वे हमारे समय की दूसरी भयावह वीरानी वाली जगहें, वे बिलबिलाती कौमें. क्या हमें मध्य प्रदेश का हरसूद याद है. क्या हमें नंदीग्राम और सिंगूर की आग और यातना और मौतें याद हैं. उड़ीसा की नियमागिरी पहाड़ी, कलिंग नगर, सुंदरगढ़, राजस्थान के बायतु, जान्दूओ की ढाणी और लीलासर कोलू के बिल्कुल अभी के संघर्ष याद हैं. झारखंड के हजारीबाग और जमशेदपुर जिलों के गांव याद हैं. छत्तीसगढ़ के गांव और वो पूरा का पूरा लाल कॉरीडोर याद है, जहां आदिवासी हमारे समकालीन राजनैतिक इतिहास के सबसे बड़े असमंजस में घिरे हैं.

और आगे चलते हैं (या पीछे लौट जाएं) महाराष्ट्र के घरबार और जिंदगियां छोड़ते किसान, अपनी चमक का डंका पीटते गुजरात में दर्द और अंधेरों से लिपटे वे शरणार्थी शिविर, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाड का वो कुडनकुलम जहां एटमी संयंत्र के खिलाफ संघर्ष जारी है. आंदोलनकारियों पर संदेह और कार्रवाई कि वे देश विरोधी होंगे और विदेशी एजेंसियां पीछे होंगी. मानो रिटेल में विदेशी पूंजी निवेश बिना उन एजेंसियों के आ रहा होगा, मानो पास्को विदेशी न होता होगा, मानो अस्पताल से लेकर हॉस्पिटेलिटी तक के कारोबार में एक भी विदेशी कंपनी का दखल न होगा. मानो मीडिया में भी उनकी हिस्सेदारी न रहती होगी.

अपने ही लोगों के प्रति ये संशय क्या एक दुर्भावना है. लोगों को क्यों लगता है कि अब ये बड़ी भूमंडलीय खुराफात है. अपने ही देश में यहां से वहां कितनी दूर तक और कब तक लोग भटकते रहेंगे. वे अस्थायी शिविरों और अजीबोगरीब हालात में हैं. धरती के संसाधनों पर मूल स्वामित्व ही उन गरीबों का अभिशाप बन गया है.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी

संपादनः अनवर जे अशरफ

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