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मीट खाना या ना खाना केवल आपका निजी मामला नहीं है

११ नवम्बर २०२०

मीट खाने को लेकर इतना विवाद क्यों? और कैसे यह एक इंसान की व्यक्तिगत पसंद-नापसंद का निजी मामला नहीं रह गया है. डीडब्ल्यू ने एक जर्मन समाजशास्त्री याना रुकेर्ट-जॉन से मांसाहार और समाज के खास संबंधों को बातचीत की.

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जर्मनी में ज्यादातर लोगों के लिए रोजमर्रा के खानपान का अहम हिस्सा है मीट.तस्वीर: picture-alliance

याना रुकेर्ट-जॉन एक जानी मानी जर्मन समाजशास्त्री हैं जो फिलहाल फुल्दा की यूनिवर्सिटी ऑफ एप्लाइड साइंसेज में पढ़ाती हैं. भोजन के समाजशास्त्र की खास विशेषज्ञ के रूप में वह लंबे समय से इस पर नजर बनाए हुए हैं कि हम इंसानों का अपने खानपान से कैसा संबंध है और इसका समाज पर कैसा असर होता है.

डीडब्ल्यू: कम मीट खाने की कई अच्छी वजहें हैं, जैसे कि यह पर्यावरण के लिए अच्छा होगा. लेकिन हमारे समाज में इसे लागू करवाना इतना कठिन क्यों है?

रुकेर्ट-जॉन: ऐसा इसलिए है क्योंकि मीट खाना हमेशा से प्रतिष्ठा से जुड़ा रहा है. ऐतिहासिक तौर पर इसे बल, शक्ति और पौरुष से जोड़ कर देखा जाता रहा है. भोजन के तौर पर यह काफी मूल्यवान रहा है. हमारे आहार में आज भी इसकी मुख्य भूमिका बनी हुई है. पूरी प्लेट एक तरह से मीट के इर्दगिर्द ही सजाई जाती है.

इस तरह मीट हमारे सांस्कृतिक इतिहास में रचा बसा है. एक वक्त था, जब केवल रविवार को ही मीट खाने को मिलता था. आजकल यह हर वक्त मिल सकता है और वो भी ज्यादा मात्रा के साथ बेहद सस्ते दामों में. कई लोगों के लिए, कई पीढ़ियों और आयु वर्ग के लोगों के लिए मीट खाना बड़ा जरूरी है. अगर आप बार्बेक्यू के चलन को देखें तो आपको ये भी दिखेगा कि कैसे आग पर मीट पकाने की पूरी इमेज पौरुष से जुड़ा मामला भी है.

Soziologin Jana Rückert-John
जर्मन समाजशास्त्री याना रुकेर्ट-जॉन का मानना है कि एक उचित पोषण नीति की मदद से ही मीट का विवाद निपट सकता है. तस्वीर: Hochschule Fulda

यह पौरुष से जुड़ा क्यों माना जाता है?

पाषाण काल से ही एक सिद्धांत रहा है कि जानवरों को मार कर खाने से उसकी शक्ति आदमी में आ जाती है. पुरातात्विक काल की कई खोजों से पता चलता है कि कैसे शिकार करना मुख्य रूप से पुरुषों का काम हुआ करता था. आज भी उसी सोच की थोड़ी बहुत झलक आजकल के मीट के विज्ञापनों में भी दिख जाती है. बच्चों में यह उतना नहीं दिखता लेकिन जैसे जैसे लड़के किशोरावस्था के पास पहुंचते हैं, वे भी मीट खाने को अपने पौरुष से जोड़ने लगते हैं. वहीं लड़कियों में भी यही आहार उनके स्त्रीत्व को उभारने वाला होता है.

मीट को लेकर क्या लैंगिक आधार पर कोई और अंतर हैं?

महिलाएं अकसर वाइट मीट ज्यादा खाती हैं क्योंकि मुर्गी का मीट रेड मीट से ज्यादा सेहतमंद समझा जाता है. जबकि पुरुषों को रेड मीट ज्यादा पसंद होता है. होता यह है कि महिलाएं अपने शरीर और अपनी सेहत से पुरुषों की तुलना में अकसर अलग तरीके से पेश आती हैं. महिलाएं डॉक्टर के पास भी ज्यादा जाती हैं.

क्या यही वजह है कि शाकाहारियों में ज्यादातर महिलाएं हैं?

वीगन और वेजिटेरियन लोगों में करीब 80 फीसदी महिलाएं ही हैं, जो कि एक बहुत बड़ा हिस्सा हुआ. आंकड़े दिखाते हैं कि उनमें से भी ज्यादातर महिलाएं युवा और खूब पढ़ी लिखी हैं. बाकी हिस्सा पुरुषों का है. लोग किन किन कारणों से वेजिटेरियन जीवनशैली अपनाते हैं, ये देखना भी बहुत दिलचस्प होता है. महिलाओं के लिए नैतिक कारणों के साथ साथ सेहत और पर्यावरण के पहलू बहुत ज्यादा मायने रखते हैं. वहीं पुरुषों में, ज्यादातर के लिए इसकी वजह उनकी सेहत से अधिक शारीरिक तंदरुस्ती होती है.

कई पुरुष तो ना केवल शाकाहार को नापसंद करते हैं बल्कि इसकी आलोचना भी करते हैं. कुछ मीट खाने वाले पुरुष तो "वेजी डे" के नाम से ही खीज जाते हैं. क्या इसकी कोई भावनात्मक वजह भी है?

पोषण का मामला अब भी हमारे पूर्णत: निजी रह गए इलाके में आता है जिसमें दखल देने का किसी को कोई हक नहीं. इसकी परिणति दिखती है, मीट के मामले में, जो कि संपन्नता का भी एक संकेतक माना जाता है. मुझे यह अच्छा लग रहा है कि आजकल इसे लेकर इतनी चीख पुकार मच रही है जिसमें मीट खाने वालों को अपनी स्थिति स्पष्ट करनी पड़ रही है. मीट की खपत अब एक निजी मामला नहीं रह गया है क्योंकि उससे संसाधनों के इस्तेमाल और पर्यावरण पर असर का पहलू जुड़ गया है.

जर्मन सुपरमार्केट में तो मीट बहुत सस्ते दामों में मिलता है. क्या इस पर टैक्स बढ़ाकर और महंगा कर देना चाहिए या यह गरीबों के लिए ठीक नहीं होगा?

यह एक बहुत मुश्किल बहस है. समाजशस्त्र के नजरिए से देखा जाए तो ऐसे कदमों से सामाजिक असमानता आती है. आज एक औसत जर्मन परिवार खानपान पर अपनी कुल आय का करीब 13 फीसदी  खर्च करता है, वहीं युद्ध के बाद 1950 के दशक में यह हिस्सा 44 फीसदी के आसपास था. तो वैसे भी भोजन पर खर्च काफी कम हो चुका है. इसकी कमी के साथ ही भोजन की कद्र करने वाली सोच भी घटी है. 2009 में जब आर्थिक मंदी का दौर था तब जर्मन घरों से पूछा गया कि वे अपना खर्च कितना घटा सकते हैं तो ज्यादातर के लिए वह हिस्सा था भोजन. मेरा मानना है कि हमें खाने का मान और बढ़ाने की ओर बढ़ना चाहिए, भले ही उसका मतलब इस पर खर्च को बढ़ाना हो.

तो यह सब कुछ हम खरीदारों पर आकर रुकता है?

बहुत लंबे समय तक, पोषण विशेषज्ञों ने सारी जिम्मेदारी उपभोक्ताओं पर ही छोड़ी हुई है. मुझे यह कहना गड़बड़ लगता है कि "एक व्यक्ति और उपभोक्ता के तौर पर केवल आप ही जिम्मेदार हैं क्योंकि शॉपिंग की थैली तो आपके ही पास है. और जैसी आपकी मांगें हैं वैसी ही आपूर्ति हो रही है." यह तर्क काफी नहीं है क्योंकि हर ग्राहक पर लगातार बहुत सारे उत्पादों की बमबारी सी होती रहती है. और हर हाल में आप उसी ग्राहक से उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि वह अडिग रहेगा और कहेगा कि "नहीं, मैं वह नहीं खरीदूंगा क्योंकि वह पर्यावरण के लिए बुरा है."

इसका जिम्मा केवल एक इंसान पर छोड़ना काफी नहीं होगा कि केवल वही अपना व्यवहार बदले. मेरे हिसाब से यह कहीं ज्यादा अहम है कि समाजशास्त्र के दृष्टिकोण से सभी संरचनाओं को देखा जाए. हर व्यक्ति की अपनी जिम्मेदारी तो रहेगी ही और जहां तक संभव हो उसे एक जिम्मेदार उपभोक्ता भी बनना ही चाहिए, लेकिन हमें एक उचित पोषण नीति की जरूरत है जो अच्छे प्रोडक्ट को बढ़ावा दे जिससे हम सही चीजों का चुनाव करें. रोजमर्रा के जीवन में अगर ऐसा करना आसान के बजाय और कठिन बनाया जा रहा है तो जरूर कुछ ना कुछ गड़बड़ है.

डीडब्ल्यू के पॉडकास्ट 'ऑन द ग्रीन फेंस' के लिए यह इंटरव्यू नील किंग और गेब्रिएल बोरूद ने किया है. 

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