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बहदाली का शिकार है स्वास्थ्य व्यवस्था

प्रभाकर१२ अगस्त २०१६

तेजी से बढ़ती आबादी और विभिन्न मोर्चों पर विकास के तमाम दावों के बावजूद भारत में स्वास्थ्य व्यवस्था बेहद लचर हाल में है. अब सरकार ने लोकसभा में स्वीकार किया है कि देश में हर 893 मरीजों पर महज एक डॉक्टर है.

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Indien Srinagar Zusammenstöße mit der Polizei Kashmir verletzer Mann
तस्वीर: Reuters/D.Ismail

आजादी के बाद के आंकड़ों के साथ तुलना करें तो भारत में स्वास्थ्य सेवा की तस्वीर बेहतर नजर आती है. लेकिन आबादी तेजी से बढ़ने की वजह से खासकर ग्रामीण इलाकों में तो अब भी डॉक्टरों और अस्पतालों की भारी कमी है. भारत में स्वास्थ्य उद्योग के वर्ष 2020 तक बढ़ कर 280 अरब अमेरिकी डालर तक पहुंचने का अनुमान है. यह आंकड़े वर्ष 2005 के मुकाबले दस गुना ज्यादा है. बावजूद इसके इस क्षेत्र की तस्वीर अच्छी नहीं है.

आजादी के बाद हालत

वर्ष 1947 में अंग्रेजों के देश छोड़ने के समय हालात काफी खराब थे. तब निम्न-आय वर्ग के लोगों की औसत उम्र महज 27 साल थी जो अब बढ़ कर 70 तक पहुंच गई है. वर्ष 1951 में आम भारतीय की औसत आयु 33 साल थी. वर्ष 1950-51 में देश में प्रति 100,000 की आबादी पर महज 17 डॉक्टर थे. इसी तरह इतनी आबादी के लिए अस्पतालों में सिर्फ 32 बिस्तर थे. तब देश भर में डॉक्टरों की तादाद लगभग 62 हजार थी और महज 28 मेडिकल कालेज.

उसके बाद देश ने इस क्षेत्र में लंबी दूरी तय की है. आजादी के बाद के लगभग सात दशकों में देश में डॉक्टरों और अस्पतालों की तादाद बढ़ी है. निजी व सरकारी मिला कर देश में लगभग 412 मेडिकल कालेज हैं. उस दौर में जानलेवा समझी जाने वाली मलेरिया, हैजा, टीबी, कुष्ठ और हाथीपांव जैसी बीमारियों पर अंकुश लगाने में भी कामयाबी मिली है.

बढ़ती खाई

आजादी के बाद के दशकों में देश ने विभिन्न क्षेत्रों में भले प्रगति की हो, इस दौरान अमीरों व गरीबों के बीच की खाई बढ़ी है. इसका असर स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी देखने को मिल रहा है. अब भी ग्रामीण इलाकों में 70 फीसदी बच्चे हीमोग्लोबिन की कमी के शिकार हैं. गांवों में पीने के साफ पानी की सप्लाई नहीं होने की वजह से उन इलाकों में कुपोषण और डायरिया जैसी बीमारियां आम हैं.

ग्रामीण इलाकों में अब भी न तो पर्याप्त स्वास्थ्य केंद्र हैं और न ही डॉक्टर और प्रशिक्षित नर्सें. सरकार ने सब तक स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाने के लिए नेशनल रुरल हेल्थ मिशन और नेशनल अर्बन हेल्थ मिशन नामक दो योजनाएं जरूर शुरू की हैं, लेकिन अब तक आम लोगों तक इसका लाभ नहीं पहुंचा है. तमाम कानून बनने के बावजूद मेडिकल की डिग्री हासिल करने वाले बहुत से डॉक्टर देश में काम करने के बदले विदेशों का रुख कर लेते हैं.

प्रतिभा का पलायन

राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि सर्जरी, स्त्री रोग और शिशु रोग जैसे चिकित्सा के बुनियादी क्षेत्रों में 50 फीसदी डॉक्टरों की कमी है. ग्रामीण इलाकों में तो यह आंकड़ा 82 फीसदी तक है. हाल के वर्षों में विदेश जाकर पढऩे वाले भारतीयों की तादाद भी बढ़ी है. चीन के बाद भारत से ही सबसे ज्यादा लोग पढ़ने के लिए विदेश जाते हैं. व्यापार संगठन एसोचैम के मुताबिक, हर साल लगभग चार लाख से ज्यादा भारतीय विदेशों में पढ़ाई के लिए जा रहे हैं. उनका मकसद केवल विदेशों से डिग्री लेना ही नहीं बल्कि डिग्री मिलने के बाद विदेशों में ही बसना होता है.

भारत दुनिया के प्रमुख देशों को सबसे ज्यादा डॉक्टरों की आपूर्ति करता है. इंटरनेशनल माइग्रेशन आउटलुक के आंकड़ों के मुताबिक, विदेशों में काम करने वाले भारतीय डॉक्टरों की तादाद वर्ष 2000 में 56 हजार थी जो 2010 में 55 फीसदी बढक़र 86,680 हो गई. मोटे अनुमान के मुताबिक अब यह आंकड़ा एक लाख से ज्यादा हो गया है. इनमें से 60 फीसदी अकेले अमेरिका में ही हैं.

सरकारी आंकड़ा

देश में प्रति 893 व्यक्तियों पर महज एक डॉक्टर है. इनमें एलोपैथिक के अलावा आयुर्वेद, यूनानी और हौम्योपैथ के डॉक्टर भी शामिल हैं. स्वास्थ्य राज्य मंत्री फग्गन सिंह कुलास्ते का कहना है कि फिलहाल देश में 9.59 लाख पंजीकृत एलौपैथिक डॉक्टर हैं. बाकी तीन विधाओं को मिला कर 6.77 लाख और डॉक्टर हैं. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने राज्यसभा में बताया था कि देश भर में चौदह लाख डॉक्टरों की कमी है और प्रतिवर्ष लगभग 5500 डॉक्टर ही तैयार हो पाते हैं.

सुधार के उपाय

स्वास्थ्य क्षेत्र की हालत सुधारने के बारे में विशेषज्ञों का कहना है कि इसके लिए एक ठोस योजना के तहत आगे बढ़ना जरूरी है. देश में खास कर निजी क्षेत्र में स्वास्थ्य सुविधाएं तो बढ़ी हैं. लेकिन महंगा होने की वजह से वह आम लोगों की पहुंच से दूर है. स्वास्थ्य बीमा भी शहरी क्षेत्रों तक ही सीमित है. स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के उपाय सुझाने के लिए गठित रेड्डी समिति ने अपनी रिपोर्ट में कई अहम सुझाव दिए थे.

उनमें स्वास्थ्य के क्षेत्र में होने वाले खर्च को बढ़ा कर सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का 2.5 फीसदी करने, एक अखिल भारतीय सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा विकसित करने, प्राथमिक देखभाल पर खर्च बढ़ाने और दवाएं थोक में खरीदने जैसे सुझाव शामिल हैं. लेकिन इस रिपोर्ट पर भी अमल नहीं हो सका है. सरकार के ढीले-ढाले रवैए, डॉक्टरों के ग्रामीण इलाकों में काम करने का इच्छुक नहीं होने, पीने के साफ पानी की कमी और निजी अस्पतालों की बढ़ती लूट की वजह से फिलहाल तो स्वास्थ्य के क्षेत्र में तस्वीर बदलने की उम्मीद कम ही है.

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