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जलवायु परिवर्तन के खिलाफ मेघालय के खासी समुदाय के खास तरीके

प्रभाकर मणि तिवारी
२८ जनवरी २०२२

पूर्वोत्तर राज्य मेघालय में खासी समुदाय की पारंपरिक भोजन प्रणाली जलवायु परिवर्तन के प्रति लचीलेपन का पाठ सिखा रही है. यह समुदाय खेतों में कोई भी केमिकल या खाद नहीं डालता.

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Filmstill der Dokumentation "Im Reich der Frauen"
तस्वीर: Arte France

चेरापूंजी के पास एक खासी गांव नोंगट्रॉ कई मामलों में खास है. संयुक्त राष्ट्र के फूड एंड एग्रीकल्चरल ऑर्गेनाइजेशन ने अपनी रिपोर्ट में दुनिया भर में स्वदेशी लोगों की भोजन प्रणाली के जिन आठ उदाहरणों का जिक्र किया है उनमें मेघालय का यह गांव और यहां रहने वाले लोग भी शामिल हैं. दुनिया में सबसे ज्यादा बारिश वाले मेघालय चेरापूंजी इलाके में बसे गांव नोंग्ट्रॉ में रहने वाले खासी समुदाय के लोगों में शहद की भारी मांग है. वे अक्सर इसे एकत्र करने जंगल में जाते हैं. लेकिन उनका यह तरीका बेहद अनूठा और दिलचस्प है. दरअसल, समुदाय के लोग जंगल में मधुमक्खियों के छत्ते के पास जाकर पहले अपना परिचय देते हैं और फिर उनसे वादा करते हैं कि वे अपनी जरूरत भर का ही शहद लेंगे.

जलवायु परिवर्तन में होने वाले बदलावों को आम लोगों के खानपान और उसके तरीकों पर जो प्रतिकूल असर पड़ा है उससे निपटने में खासी समुदाय के इन तौर-तरीकों ने एक नई मिसाल पेश की है. पारिस्थितिक संतुलन में कोई बाधा पहुंचाए बिना स्थानीय कृषि जैव विविधता के सम्मान की इस विरासत ने समुदाय को एक विशिष्ट पहचान दी है.

संयुक्त राष्ट्र के फूड एंड एग्रीकल्चरल ऑर्गेनाइजेशन (एफएओ) ने अपनी रिपोर्ट में दुनिया भर में स्वदेशी लोगों की जिन आठ भोजन प्रणाली की प्रोफाइल तैयार की है उसमें मेघालय का खासी समुदाय भी शामिल है. इस समुदाय के लोग अपना भोजन जुटाने के लिए झूम खेती, किचन गार्डन और वाटर शेड में खेती जैसे विभिन्न पारंपरिक तरीकों का इस्तेमाल करते हैं. खास बात यह है कि इन फसलों में किसी रासायनिक खाद का बिल्कुल इस्तेमाल नहीं किया जाता.

विशेषज्ञों का कहना है कि यह खेती की यह स्वदेशी खाद्य प्रणाली जलवायु परिवर्तन के लिहाज से काफी बेहतर है. दरअसल, पूरे साल होने वाली बारिश की वजह से पहले इलाके में गिनी-चुनी फसलों की खेती ही संभव थी. लेकिन अब अनूठे तरीकों की ईजाद कर लोग पूरे साल खाने लायक फसलें उगा रहे हैं. इन तरीकों में खेती को घने जंगल के भीतर या पानी से बचने के लिए बनाए गए शेड के नीचे स्थानांतरित करना शामिल है.

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में कहा गया है कि अपनी भौगोलिक परिस्थिति और बारहों महीने नम जलवायु की वजह से नोंग्ट्रॉ गांव में स्थानीय पौधों का वर्चस्व जारी है. गांव वालों ने अलग-अलग तरीकों से खेती कर यह बात साबित कर दी है कि पहले जंगली कहे जाने वाले फल और खाद्यान्न भी अब खाने लायक हैं, इलाके में बाजरा, मक्का, शकरकंद और आलू की खेती सदियों से होती रही है. लेकिन अब खासी समुदाय ने खेती के नए तरीकों से जंगली पौधों और फलों को भी अपनी खाद्य सामग्री में शामिल कर लिया है.

फिलहाल झूम खेतों या घर से सटे बागानों (किचन गार्डन) में 63 किस्म की फसलें और फल उगाए जाते हैं. इनमें अनाज, फलियां, जड़ें, कंद, सब्जियां, फल और बीज का अलावा अन्य खाद्य प्रजातियां शामिल हैं. मिसाल के तौर पर झूम प्रणाली से आलू की 12 और शकरकंद की सात किस्में पैदा होती हैं.

मेघालय स्थित नार्थ ईस्ट स्लो फूड एंड एग्रो-बायोडायवर्सिटी सोसायटी के सीनियर एसोसिएट और खासी समुदाय के सदस्य बी. मावरो बताते हैं, "गांव के लोग अपनी दवाएं खेतों में उपजने वाली वस्तुओं से ही हासिल करते हैं. कोरोना की वजह से हुए लॉकडाउन के दौरान बाजार बंद होने के बावजूद हमें बेहतर खाद्यान्नों की कोई कमी नहीं हुई. इसकी वजह यह है कि खासी लोग अपने भोजन के लिए स्थानीय कृषि जैव-विविधता पर भरोसा करते हैं.”

वह बताते हैं कि खासी समुदाय खाद्य उत्पादन के लिए किसी बाहरी खाद और खासकर सिंथेटिक रसायनों का इस्तेमाल नहीं करता है, झूम प्रणाली में सिर्फ गोबर के उपले जला कर मिलने वाली राख का इस्तेमाल किया जाता है. खेती से पहले जमीन को साफ करते समय ही राख को मिला दिया जाता है.

इलाके की ग्राम परिषद जंगल और अन्य प्राकृतिक क्षेत्रों की रक्षा और संरक्षण के लिए नियम और कानून बनाती है. ग्राम परिषद के काम में सहायता के लिए ग्राम विकास समिति (वीडीसी) की स्थापना की गई है. मावरो संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट का जिक्र करते हुए बताते हैं कि वर्ष 2016 में झूम प्रणाली पर कई तरह की पाबंदियां लगने और जमीन के हस्तांतरण के लिए कागजी कार्रवाई अनिवार्य होने के बाद इस समुदाय के लोगों ने पारंपरिक प्रणाली के तहत जंगलों और जल निकायों जैसे प्राकृतिक खाद्य स्रोतों तक पहुंच बढ़ाई है.

वह कहते हैं, "अपने पूर्वजों से मिली सीख ने समुदाय के लोगों को मंदारिन ऑरेंज जैसी कई जंगली वस्तुओं को भी खाने लायक बना लिया और उसके बाद खासी संस्कृति में इनके इस्तेमाल को बढ़ावा दिया गया. इस समुदाय के लोग बखूबी जानते हैं कि स्थानीय जलवायु के हिसाब से उनको कहां और किस चीज की खेती करनी है. इससे साफ है कि जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने के लिए इस समुदाय ने एक नई राह तलाश ली है.”