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बिहार: आखिर वोट डालने घरों से क्यों नहीं निकले वोटर

मनीष कुमार
२३ अप्रैल २०२४

लोकतंत्र का महापर्व कहे जाने वाले आम चुनाव के प्रथम चरण में मतदाताओं में ज्यादा उत्साह नहीं दिखा. जहां एक ओर त्रिपुरा में सबसे ज्यादा मतदाताओं ने अपने वोट डाले, वहीं बिहार में सबसे कम वोटर पोलिंग बूथ तक पहुंचे.

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बिहार में कहीं लू तो कहीं उदासीनता के कारण मतदाता अपना वोट डालने नहीं पहुंचे
बिहार में कहीं लू तो कहीं उदासीनता के कारण मतदाता अपना वोट डालने नहीं पहुंचे तस्वीर: Manish Kumar

बिहार में 19 अप्रैल को लोकसभा चुनाव के प्रथम चरण में गया, औरंगाबाद, नवादा और जमुई में वोट डाले गए. आयोग द्वारा दी गई अद्यतन जानकारी के अनुसार, तमाम प्रयास के बावजूद राज्य में औसतन 50 प्रतिशत से कम 49.2 फीसदी मतदान हुआ. 2019 के आम चुनाव में यही मतदान प्रतिशत 53.47 था. पिछली बार भी राज्य की नवादा सीट पर सबसे कम 49.73 प्रतिशत मतदान हुआ था और इस बार भी नवादा सीट पर ही सबसे कम 41.5 प्रतिशत वोटिंग हुई. वोटिंग के इस ट्रेंड से निर्वाचन आयोग के साथ-साथ राजनीतिक पार्टियां परेशान हैं. सभी दलों में खलबली मची है. आयोग ने तो कम वोटिंग के कारणों की समीक्षा करने की बात कही है.

वैसे तो आम चुनाव में यदि मतदान प्रतिशत अधिक होता है तो इसे सत्ता के विरुद्ध माना जाता है और यदि कम वोटिंग होती है तो समझा जाता है कि चुनाव को लेकर मतदाताओं में खासा उत्साह नहीं है. ऐसे इसे लेकर कोई फार्मूला तय नहीं है, इससे हार या जीत का आकलन नहीं किया जा सकता. लेकिन, इतना तो साफ है कि राजनीतिक पार्टियां बेचैन हैं और अपने हिसाब से नफा-नुकसान का आकलन कर रही हैं. लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के मुखिया चिराग पासवान का मानना है कि कम वोटिंग इसलिए हुई है कि एनडीए के समक्ष कोई चुनौती नहीं है और एनडीए सभी जगह अच्छा करने जा रही है.

पहले चरण के चुनाव में 19 अप्रैल को पड़े बिहार की कई सीटों के लिए वोट
पहले चरण के चुनाव में 19 अप्रैल को पड़े बिहार की कई सीटों के लिए वोटतस्वीर: Manish Kumar

हालांकि, कम वोटिंग के लिए मौसम भी एक वजह मानी जा रही है. बीते 19 को राज्य में तीखी धूप थी. कहीं-कहीं लू चल रही थी. उस दिन औरंगाबाद का तापमान 41.3, गया का 42.1, नवादा का 42.0 एवं जमुई का 41.8 डिग्री सेल्सियस था. इस गर्मी में ग्रामीण इलाकों के मतदाता तो थोड़े उत्साह में दिखे, किंतु शहरी क्षेत्रों के वोटर उदासीन बने रहे. अर्थशास्त्री अमित बख्शी रोजगार के लिए पलायन को भी कम वोटिंग की एक वजह मानते हैं, भले ही वह मौसमी ही क्यों न हो. वे कहते हैं, "आम तौर पर ग्रामीण इलाकों में यह ट्रेंड है कि परिवार के सभी लोग एक साथ मतदान के लिए जाते हैं. ऐसे में यदि परिवार का मुखिया मौजूद नहीं होता है तो घर के अन्य सदस्य निकलना नहीं चाहते. शायद, सामाजिक समीकरण की वजह से भी वे निकलने से परहेज करते हों."

चाह अच्छे प्रत्याशियों की

राजनीतिक तथा सामाजिक विश्लेषक व चिंतक वोट देने के लिए लोगों के घरों से नहीं निकलने को खतरनाक संकेत मानते हैं. उनका कहना है कि यह स्थिति तब आती है जब वोटरों में नकारात्मकता का भाव और निराशा होती है. इसकी वजह सरकार के कामकाज, व्यवस्था, उम्मीदवारों के चयन, विकल्प का नहीं होना या फिर सिद्धांतविहीन होती जा रही राजनीति हो सकती है.

राजनीतिक विश्लेषक एनके चौधरी इसकी बड़ी वजह सिद्धांतविहीन राजनीति को मानते हैं. वे कहते हैं, "इस कारण लोगों में पहले की तरह उत्साह नहीं रहा और प्रत्याशियों के प्रति भी उनकी खास दिलचस्पी नहीं होती. काफी समय से एक ही सरकार या फिर विकल्प उपलब्ध नहीं होने से भी मतदाता निराश होते हैं." राज्य के मुख्य निर्वाचन अधिकारी कार्यालय द्वारा 40 लोकसभा क्षेत्रों में 60 हजार वोटरों के बीच कराए गए एक बेसलाइन सर्वेक्षण में यह बात सामने आई थी कि पार्टियां अच्छे उम्मीदवारों का चयन करेंगी, तभी वोट प्रतिशत बढ़ सकेगा. 42.2 प्रतिशत लोगों की यही राय थी.

उम्मीदवार थोपना पसंद नहीं

पहले अधिकतर राजनीतिक पार्टियां कैडर आधारित हुआ करती थीं. नेता दलों से जुड़कर लोगों की सेवा किया करते थे. उनके सामाजिक जीवन को देखकर ही उन्हें टिकट मिलता था. किंतु, अब परिस्थिति इसके उलट हो गई है. पत्रकार शिवानी कहती हैं, "किसी सीटिंग उम्मीदवार को अपनी पार्टी से टिकट नहीं मिला तो वह येन-केन-प्रकारेण दूसरे बड़े दल से अपनी सेटिंग कर सफल हो जाता है. यह बात दीगर है कि खराब परफॉर्मेंस के कारण उनकी पार्टी ने उन्हें टिकट नहीं दिया हो. तब मतदाता यह सोचने लगता है कि स्थिति तो बदलने वाली नहीं. इससे भी वोटरों का उत्साह घटता है."

पार्टियों पर टिकट बेचने तक के आरोप भी लगते रहे हैं. सामाजिक चिंतक एवं एएन सिन्हा सामाजिक अध्ययन संस्थान के पूर्व निदेशक डीएम दिवाकर गिरते वोट प्रतिशत को लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत मानते हैं. वे कहते हैं, "पहले प्रत्याशियों के काम और संबंधों को देख लोग मतदान करना अपनी जिम्मेदारी समझते थे. लेकिन अब ऐसे उम्मीदवार कम हैं." बाहर से आकर चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों पर वे कहते हैं कि "क्षेत्र की जनता से तो उनसे जुड़ाव होता नहीं है. इससे लोगों की प्रतिबद्धता प्रभावित होती है, निराशा का भाव भी घर कर जाता है. राजनीतिक दलों को जनता से जुड़ा उम्मीदवार देना चाहिए."

सामूहिक प्रयास की जरूरत

वोटरों की उदासीनता को परख चुनाव आयोग के साथ-साथ राजनीतिक दल भी तेजी से सक्रिय हुए हैं. पार्टियों का यह भी मानना है कि मतदाता पर्ची के वितरण में भी लापरवाही बरती गई है, इसलिए बूथ स्तर तक के कार्यकर्ताओं को संपर्क साधने के साथ ही लोगों को जागरूक किया जा रहा है. 26 अप्रैल को होने वाले दूसरे चरण के लिए पार्टियां जिला निर्वाचन अधिकारी से बूथ पर गर्मी से बचाव की व्यवस्था करने का अनुरोध कर रही हैं.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी अपनी सभाओं में लोगों से घर जाकर आसपास के लोगों को प्रणाम कहने तथा वोटिंग के लिए प्रेरित करने का आग्रह कर रहे. बीजेपी ने कार्यकर्ताओं को जनसंपर्क करने तथा आरजेडी ने वोटिंग से पहले लोगों के लिए मतदान पर्ची का इंतजाम करने को कहा है. कांग्रेस व अन्य दल भी अपने नेताओं को वोटिंग के लिए लोगों को जागरूक करने की कोशिश करने को कह रहे हैं.

ऐसा नहीं है कि इस संदर्भ में निर्वाचन आयोग पहले से सतर्क नहीं रहा. टीआइपी (टारगेट इंप्लीमेंटेशन प्लान), एसवीईईपी (सिस्टमेटिक वोटर्स एजुकेशन एंड इलेक्टोरल पार्टिसिपेशन प्रोग्राम) और इलेक्शन एंबेसडर बनाई गई जानी-मानी हस्तियों द्वारा मतदाताओं से बूथ तक आकर वोटिंग की अपील की गई, भले ही अपेक्षित परिणाम न मिल सका हो. एक वरीय अधिकारी के अनुसार इस मुद्दे पर काफी विमर्श किया गया है और अन्य चरणों के लिए नई योजनाएं सामने आएंगी. हालांकि, इन सभी प्रयासों के साथ-साथ वोटर ही नहीं, आमजन को भी यह अहसास दिलाना होगा कि उनके एक-एक वोट का असर होता है, इसलिए उन्हें चेतने की जरूरत है. राजनीतिक दलों को भी अपनी विश्वसनीयता बढ़ानी होगी, प्रत्याशियों के चयन की प्रक्रिया में भी लोगों की सहभागिता सुनिश्चित करनी होगी.