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चले गए बिंदु से ब्रह्मांड रचने वाले रजा

शिवप्रसाद जोशी२५ जुलाई २०१६

आधुनिक भारतीय चित्रकला के शीर्ष स्तंभों में से एक और जानेमाने पेंटर सैयद हैदर रजा का 94 साल की उम्र में दिल्ली में निधन हो गया.

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Indien Syed Haider Raza in Neu Delhi
2014 में दिल्ली में रजातस्वीर: Kuldeep Kumar

रजा आधुनिक भारतीय कला त्रयी के अनिवार्य बिंदु थे. उस त्रयी के अन्य दो बिंदुओं में मकबूल फिदा हुसेन और फ्रांसिस न्यूटन सूजा को रखा जाता है. अपनी कला में रजा बिंदु के ही रचनाकार थे. जैसे वो अपनी एक जगह हमेशा के लिए भरी हुई छोड़ गए हों. उनकी जगह कोई और नहीं ले सकता.

जीवन के करीब साठ दशक फ्रांस की राजधानी पेरिस में बिताने वाले रजा का भारतीय मिट्टी से मोह इतना गहरा था कि वो 90 पार की उम्र के बाद देश लौटे. दिल्ली को अपना ठिकाना बनाया. और मृत्यु तक वहीं रहे लेकिन अपनी आखिरी इच्छा बताना नहीं भूले कि दफनाना वहीं जहां उनके पिता दफनाए गए थे- मध्यप्रदेश के बाबरिया गांव में, जहां उनका जन्म हुआ था. नर्मदा नदी उनके बचपन की नदी थी. और उनके रचनाकर्म में उस नदी के प्रवाह का बड़ा अहम रोल था. ये भी एक संयोग है कि कमोबेश पूरी उम्र बाहर रहने वाले रजा आखिरी समय में अपनी मिट्टी के पास थे वहीं पूरी उम्र अपनी मिट्टी में रचबसकर पेटिंग करने वाले मकबूल फिदा हुसेन को उम्र के आखिरी पड़ाव में देश छोड़ना पड़ा और वो अंत तक अपनी मिट्टी के लिए कलपते रहे.

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पद्मविभूषण से नवाजे गए, रजा ने अपनी कला में बिंदु के रूप में एक दार्शनिक आख्यान की रचना की. ये एक शून्य भी था और एक बीज भी. समस्त संरचनाओं का एक विलोप भी वहां होता था और वहीं से सरंचनाए जन्म भी लेती थीं. वह शून्य भी था और अपनी शून्यता के भीतर उसमें ब्रह्मांड की विराटता का बीज भी छिपा था. रजा के बनाए बिंदु में हम रंगों की अद्भुत छटा देखते थे. अमूर्तन का जो संसार- बिंदुओं और उसके इर्दगिर्द त्रिकोणों, चौकोरों, आयातों और विकर्णों से वो सजाते थे उसकी कुछ ट्रेनिंग उन्हें यूरोप के महान कलाकारों को देखकर भी मिली थी. सिजाने, गॉगिन, पॉल क्ली के अलावा अमूर्तन के मास्टर के रूप में विख्यात जर्मन कलाकार कांडिस्की से भी रजा की कला प्रेरित और प्रभावित थी. लेकिन अस्सी का दशक आते आते रजा ने अपने लिए नई प्रेरणाएं विकसित कीं. वो भारत दौरे पर आए. देश भर में घूमे. लोकबिंबों का अध्ययन किया और फिर हुआ कला में शून्य का आविष्कार. रजा ने अपने ज्यामितीय अमूर्तन में एक विशिष्ट आंतरिकता उकेर दी. उनमें रंगों की छटाएं थीं और भारतीय दर्शन के कुछ सूत्र रेखाओं और बिंदुओं में निहित कर दिए गए थे. उनकी कुछ पेंटिग्स प्रकृति और पुरुष के तादात्म्य की अनोखी कृतियां हैं.

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रजा ही थे जिन्होंने देश के आजाद होते साथ ही 1947 में प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप की स्थापना की थी. उनके साथ सह संस्थापकों में सूजा, हुसेन, केएच आरा और सदानंद बाकरे जैसे उस्ताद कलाकार शामिल थे. ये आधुनिक भारतीय कला के नींव के पत्थर थे. इन्हीं लोगों ने भारतीय कला के आख्यानात्मक और आकृतिमूलक चित्र शैलियों की जगह एक विशुद्ध भारतीय जनमानस केंद्रित लोक-अमूर्तन का संसार रचा था.

1950 में रजा का पेरिस जाना हुआ. वहां एक हलचल भरी सांस्कृतिक बौद्धिक और कला बिरादरी से वो रूबरू हुए. वहीं उनकी मुलाकात साथी कलाकार जनी मोजिला से हुई जो उनकी पहले प्रेयसी और फिर पत्नी हुईं. रजा ने यूरोप के दिग्गजों का अमूर्तन अपनी भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में ढाला, रंगों की विविधता वाला एक अलग और असाधारण ज्यामितीय अमूर्तन उनकी पहचान बन गया. जल्द ही रजा की कृतियां महंगे दामों में बिकने लगीं और वो देखते ही देखते कलाकारों की उस अंतरराष्ट्रीय जमात में शामिल हो गए जिनके काम की अलग से बोलियां लगाई जाती हैं. रजा देश विदेश की कला दीर्घाओं में उच्चतम स्तर के कलाकार के तौर पर स्थापित हुए. फ्रांस का सबसे आला नागरिक सम्मान भी रजा को मिला है.

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लेकिन अपने जीवन में रजा एक साधारण मनुष्य थे. वो एक साधारण जीवन के पक्ष में थे और सादे ढंग से रहते थे. उनकी सादगी और मनुष्यता की एक मिसाल उनके नाम पर बना रजा फाउंडेशन है जिसके जरिए जरूरतमंद और बीमार रचनाकर्मियों से लेकर प्रतिभासंपन्न और वरिष्ठ रचनाकर्मियों को सम्मानित किया जाता है. और इसका फलक बहुत बड़ा है. कला साहित्य संगीत और संस्कृति के हल्कों तक फैला हुआ.

रजा दरअसल उस भारतीय अध्यात्म और दर्शन के सच्चे जानकार और उसे उद्घाटित करने वाले पेंटर थे जिसके नाम पर इन दिनों हम कैसा भीषण, अश्लील और हिंसक शोरशराबा और धक्कामुक्की देख रहे हैं. सैयद हैदर रजा के बनाए शून्य से मानो ये विध्वंसकारी समय अंजान बना हुआ है.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी