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"कोई चाहता ही नहीं कि मैला ढोआई बंद हो"

मुरलीकृष्णन२ अगस्त २०१६

भारत सरकार ने हाथ से मैला साफ करने की प्रथा पर 1993 में रोक लगा दी थी. लेकिन यह प्रथा आज भी जारी है. इस साल रमोन मैग्सेसे पुरस्कार जीतने वाले वेजवाड़ा विल्सन का कहना है कि इसे खत्म करने के लिए पर्याप्त दबाव नहीं है.

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Bildergalerie Sommer in Kalkutta
तस्वीर: AFP/Getty Images/D. Sarkar

हाथ से मैले की सफाई और सिर पर मैले की ढोआई दुनिया के सबसे खराब कामों में शामिल है. दो दशक पहले प्रतिबंध लगाए जाने के बावजूद यह आज भी जारी है और निचली जाति के हजारों लोग भारत में इस काम में लगे हैं. सफाई कर्मचारी यूनियन के प्रमुख वेजवाड़ा विल्सन को इस साल का प्रतिष्ठित रमोन मैग्सेसे पुरस्कार दिए जाने के बाद यह समस्या एक बार फिर बहस के केंद्र में है. विल्सन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से इस काम में लगे लोगों को इस काम से बाहर निकालने और उनके पुनर्वास के लिए समय सीमा तय करने की मांग की है. वेजवाड़ा विल्सन ने 1995 में सफाई कर्मचारी यूनियन की स्थापना की थी और पिछले 20 सालों में यह राष्ट्रव्यापी आंदोलन बन गया है. डॉयचे वेले के साथ एक इंटरव्यू में विल्सन ने बताया कि यह प्रथा दक्षिण एशियाई देश में अभी भी क्यों जारी है और इसे खत्म करने के लिए क्या करने की जरूरत है.

Indien Bezwada Wilson
तस्वीर: Safai Karmachari Andolan/Murali Krishnan

डीडब्ल्यू: रमोन मैग्सेसे पुरस्कार का आपके लिए क्या अर्थ है? यह आपके लिए व्यक्तिगत मान्यता है या आपके अभियान की प्रभावशीलता की?

वेजवाड़ा विल्सन: यह पुरस्कार असली हीरो के लिए है, उन महिलाओं और मौला ढोने वालों के लिए जो संगठित हुए हैं और इस अमानवीय प्रथा को चुनौती दी है. इन महिलाओं का सालों से शोषण हुआ है और उनके बच्चे भी इसी पेशे में आने को विवश हैं. भारत की गहरी जड़ों वाली जाति व्यवस्था के कारण उनमें जागरूकता फैलाने का काम आसान नहीं रहा है कि उन्हें यह काम करने की जरूरत नहीं है.

आपको क्या लगता है कि इस पुरस्कार से आपके आंदोलन को बढ़ावा मिलेगा?

मुझे ऐसा लगता है. लेकिन यह सामूहिक प्रयास होना चाहिए. एक अकेला आंदोलन इस प्रथा को खत्म नहीं कर सकता. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वच्छ भारत अभियान ने मैला ढोने वालों की स्थिति बदलने में कोई भूमिका नहीं निभाई है. उसका मकसद सिर्फ देश में ज्यादा टॉयलेट बनाना है. अंत में सरकार नए टॉयलेटों की सफाई के लिए और ज्यादा दलितों को इस काम में लगाएगी. प्रांतीय सरकारें हाथ से मैला साफ करने की प्रथा को खत्म कर मशीन और आधुनिक तकनीक लाने की दिशा में कोई कदम नहीं उठा रही हैं.

भारत में हाथ से मैले की सफाई का कितना चलन है?

भारत में अभी भी दो लाख सफाई कर्मी हैं. हमारे अभियान ने तीन लाख लोगों को दूसरे पेशों में जाने में मदद दी है. लेकिन यह अभी भी देश में हर जगह करीब करीब हर प्रांत में अस्तित्व में है. यदि आप समस्या को स्वीकार नहीं करते हैं तो उसका समाधान भी नहीं कर सकते. हमारी मांग है कि सरकार सूखे टॉयलेट को खत्म करे और सफाईकर्मियों को फौरन दूसरे पेशों में लगाए.

आपको क्या लगता है कि भारतीय समाज में दलितों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को देखते हुए वे अपना पेशा बदल पाएंगे?

ये बात सिर्फ दलितों की नहीं है. भारत के ज्यादातर लोग सोचते हैं कि मैला ढोना स्वीकार्य है क्योंकि निचली जाति के लोग ये काम करते हैं. सफाईकर्मियों ने भी सालों के दमन के बाद इस हकीकत को मान लिया है. लेकिन अब वे इस प्रथा को चुनौती दे रहे हैं और अपना हक मांग रहे हैं. भारत को इस मामले को सुलझाने के लिए राजनीतिक इच्छा की जरूरत है. दुर्भाग्य से इस समय इसका अभाव है.

वेजवाड़ा विल्सन सफाई कर्मचारी आंदोलन के राष्ट्रीय संयोजक हैं. यह मानवाधिकार संस्था हाथ से मैला साफ करने और ढोने की प्रथा की समाप्ति का आंदोलन चला रही है.

इंटरव्यूः मुरलीकृष्णन