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जमीन के अधिकार नहीं बढ़ेंगे तो लड़ाई की जमीन बढ़ेगी

विवेक कुमार
७ अक्टूबर २०१६

भारत ने जंगल में रहने वालों को जंगल पर हक देने का कानून तो पास कर दिया है लेकिन उसे लागू करने की प्रक्रिया इतनी धीमी है कि विकास की वे योजनाएं लगभग थमी पड़ी हैं जो इस कानून के भरोसे थीं.

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Indien Hitzewelle Dürre
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/M. Swarup

जमीन के अधिकारों के लिए लड़ने वाले कार्यकर्ता 2006 के वन अधिकार कानून के पास होने पर उत्साहित थे लेकिन अब उनका उत्साह चिंता में बदल रहा है. इस कानून के तहत जंगल पर जंगलवासियों का हक स्वीकार किया गया था और आदिवासियों को अधिकार दिया गया था.

राइट्स एंड रिसॉर्सेज इनिशिएटिव नामक संस्था का अध्ययन बताता है कि कानून के तहत कम से कम 15 करोड़ लोगों को देश की कम से कम 4 करोड़ हेक्टेयर वन भूमि पर अधिकार मिलना है. लेकिन आरआरआई के मुताबिक बीते एक दशक में सिर्फ 1.2 फीसदी क्षेत्र को ही दर्ज किया जा सका है. आरआरआई के कार्यकारी निदेशक अरविंद खरे बताते हैं, "राजनीतिक वर्ग में यह भ्रम है कि अगर आप अधिकार देते हैं तो यह विकास के विरुद्ध होगा." खरे बताते हैं कि इस कानून को विकास विरोधी माना जा रहा है. वह कहते हैं, "राज्यों के बीच इन्फ्रास्ट्रक्चर और खनन में निवेश को लेकर तगड़ी प्रतिस्पर्धा है. ऐसे में इस कानून को निवेश में बाधा के तौर पर लिया जाता है."

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जंगल में रहने वालों की समस्या यह है कि वे पीढ़ियों से उस जमीन पर रहते आ रहे हैं लेकिन उनके पास किसी तरह का दस्तावेज नहीं है. सिर्फ 5 फीसदी आदिवासियों के पास उस जमीन के कागज हैं जिस पर वे रह रहे हैं. वन अधिकार कानून ऐसे आदिवासियों को जंगल की जमीन और उसके संसाधनों पर हक दे सकता है. इस कानून से वन प्रशासन का तरीका भी बदल सकता है और ग्रामीण जिंदगियों में भी क्रांतिकारी परिवर्तन हो सकते हैं. आरआरआई का कहना है कि ऐसा हो पाए तो यह भारत का सबसे बड़ा भूमि सुधार बन सकता है.

लेकिन बहुत कम राज्यों ने इस कानून को पूरी तरह लागू करने की कोशिश की है. आदिवासी मामलों के मंत्रालय के मुताबिक जमीन पर अधिकार के आधे से ज्यादा दावे खारिज किए जा चुके हैं. बीते साल में 29 राज्यों में से 11 ने तो एक भी व्यक्ति को जमीन का अधिकार नहीं दिया है.

इस कानून के तहत पंचायतों को अपने जंगल की जमीन पर विकास परियोजनाओं को पास करने का अधिकार भी मिलता है. लेकिन खरे इस बात को लेकर भी चिंतित हैं. वह कहते हैं, "लोगों में कानून के बारे में जागरूकता बहुत कम है. ज्यादातर दावे तो बहुत छोटी छोटी बातों को आधार बनाकर खारिज कर दिए जाते हैं."

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इसका नतीजा एक बड़ी लड़ाई के रूप में सामने आ सकता है. खरे बताते हैं कि वन्य जमीन पर अधिकारों का यह मसला सुलझाए बिना उद्योगों को जमीन देने का दांव उलटा पड़ सकता है. भारत में हाल के बरसों में जमीन को लेकर विवाद बढ़ा है. उद्योगों और विकास परियोजनाओं के लिए जमीन चाहिए. लेकिन जब जमीन ली जाती है तो उस पर रहने वाले लोग तीखा विरोध करते हैं. यूं भी वन देश के सबसे पिछड़े इलाकों में ही हैं. और यही इलाके हिंसा से भी ग्रस्त हैं. पिछले हफ्ते झारखंड में ऐसे ही एक जमीन अधिग्रहण विरोधी आंदोलन में शामिल लोगों पर पुलिस ने गोली चलाई. इस गोलीबारी में चार लोगों की जान गई.

खरे कहते हैं कि सरकारें इस बात को नजरअंदाज कर रही हैं कि स्थानीय लोग वनों का इस्तेमाल करेंगे तो इससे खाद्य सुरक्षा बढ़ेगी. वनों की जमीन पर अधिकार आदिवासी इलाकों के विकास में अहम भूमिका निभा सकता है. ओडिशा, महाराष्ट्र, गुजरात और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में यह बात दिख भी रही है, जहां करीब 50 लाख हेक्टेयर जमीन लोगों को दी गई है. लेकिन जब तक यह काम पूरा नहीं हो जाता, विवाद और विरोध जारी रहेगा.

वीके/एके (रॉयटर्स)