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कश्मीर: जटिल पहेली की परतें

रोहित जोशी१८ जुलाई २०१६

हिजबुल के कमांडर बुरहान वानी की मौत के बाद से कश्मीर में फिर उबाल है. डीडब्ल्यू अड्डा में इस बार उलझी हुई पहेली बन गए कश्मीर को तफसील से समझने की कोशिश.

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Infografik umstrittene Gebiete in der Krisenregion Kaschmir Englisch

कश्मीर फिर बहस के केन्द्र में आ गया है. अबकी बार वजह बनी अलगाववादी आतंकी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर और पोस्टर बॉय बुरहान वानी की सुरक्षाबलों के साथ मुठभेड़ में हुई मौत. उसके बाद घाटी में शुरू हुए प्रदर्शन, सुरक्षाबलों की सख्त कार्रवाई में कई कश्मीरियों की मौत और कइयों का घायल होना.

कश्मीर फिर उसी बहस में है जिसमें वो लगातार बना हुआ है. घाटी की बहुतायत आबादी भारत से आजाद होना चाहती है. उसकी कई आवाजें हैं. कुछ बिल्कुल अलग आजाद कश्मीर चाहती हैं. कुछ पाकिस्तान से सौहार्द रखती हैं और कुछ खुद को दुनिया भर में इस्लामी ​खिलाफत की स्थापना की बड़ी लड़ाई का ही एक अंग मानती हैं. इधर लाखों की तादात में सेना तैनात कर और उसे 'आफ्सपा' जैसे कानून थमा भारत का भी कश्मीर पर अपना दावा है और पाकिस्तान भी दोनों मुल्कों के बटवारे के समय से ही कश्मीर की ​मुस्लिम बहुलता का हवाला देकर उस पर अपना हक जताता रहा है.

​डीडब्ल्यू अड्डा में हम इन्हीं सब सवालों में उलझे कश्मीर को समझने की कोशिश कर रहे हैं. इसके लिए विषय से जुड़े अलग अलग पहलुओं पर बात करते विशेषज्ञों के आलेख शामिल किए गए हैं.

कश्मीर पर एक किताब के लिख रहे लेखक और कवि अशोक कुमार पाण्डेय ने यहां अपने आलेख 'कश्मीर: इतिहास की कैद में भविष्य' में कश्मीर के एक लंबे ​इतिहास पर निगाह डाली है.

कश्मीर पर दशकों से गहरी नजर रखे वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र तिवारी ने अपने आलेख 'कश्मीर: खौलते पानी का बंद भगौना' में समझाया है कि 1947 के बाद कश्मीर कैसे एक ​बेहद जटिल पहेली में तब्दील होता गया.

कश्मीर पर भारतीय आम जन मानस का अपना मजबूत दावा है. वह कश्मीर के अलगाववादी आंदोलन को एक भटकाव मानता है और उसकी सीधी समझ है कि 'आतंक से समझौता नहीं करेगा भारत'. वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष भटनागर अपने आलेख में यही समझाते हैं.

घाटी में बेहद बिगड़ गए माहौल और कश्मीरी आवाम के सामने खड़ी हुई चुनौतियों पर श्रीनगर में मौजूद पत्रकार बेनिश अली बट ने कुछ अहम सवाल उठाए हैं जिनका वे बतौर 'एक कश्मीरी लड़की कुछ जवाब चाहती हैं'.

लेखक पत्रकार राहुल पंडिता कश्मीरी पंडितों के उस अल्पसंख्यक समुदाय से आते हैं जिसे 1990 में घाटी में उभरे इस्लामी चरमपंथी अलगाववाद का शिकार हो कश्मीर छोड़ना पड़ा. कश्मीर पर चौतरफा दावों के बीच राहुल बताते हैं कि 'एक कश्मीर कश्मीरी पंडितों का भी' है.

कश्मीर के उस हिस्से के बगैर भी कश्मीर पूरा नहीं होता जहां पाकिस्तान का प्रशासन है. वहीं से ताल्लुक रखने वाले पत्रकार शमशीर हैदर ने भी 'जंग-ए-आजादी से जिहाद तक' आजाद कश्मीर के आंदोलन को बदलते देखा है.

वरिष्ठ पत्रकार सत्येंद्र रंजन ने कश्मीर की इस बहस में अतीत और वर्तमान के अनुभवों से भविष्य की आशंकाओं और समाधानों की ओर झांकने की कोशिश की है. लेकिन उनका निष्कर्ष 'कश्मीरः समाधान की धूमिल संभावनाएं' है.

लेखक डॉ. मोहन आर्या ने कुछ ऐतिहासिक अनुभवों के आधार पर इस बात की पड़ताल करने की ​कोशिश की है कि मांगी जा रही 'आजादी' से क्या 'आजाद' हो जाएगा कश्मीर?

शुरुआत से ही बेहद संभावनाओं के बावजूद कश्मीर को भारतीय गणराज्य में आत्मसात ना कर पाने की कूटनीतिक असफलता का विश्लेषण करते हुए रोहित जोशी की राय है कि 'भारत की हार बनता जा रहा है कश्मीर!'

कश्मीर को तफसील से समझने की इस कोशिश में आपका स्वागत है. आप अपनी प्रतिक्रियाएं जरूर दें.