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खबरों को खा गया बाजार

२० जून २०१६

भारतीय मीडिया बाजार के प्रभाव में अपने पत्रकारीय दायित्यों से लगातार मुंह मोड़ता जा रहा है. हाल के दौर में जिस तरह से भारत में मीडिया स्वामित्व का संकेंद्रण बढ़ा है, उसने एक जीवन्त लोक विमर्श के लिए खतरा पैदा किया है.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa/I. Langsdon

ये बात किसी से छिपी नहीं है कि लोकतंत्र में मीडिया, जनमत बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और जनमत में यह ताकत होती है कि वो किसी भी सरकार को बनाने या गिराने की कूवत रखता है. और अगर जनमत को बाज़ार के हितों के मुताबिक ढालना शुरू कर दिया जाए तो लोकतंत्र को विरूपित होने से कोई नहीं बचा सकता.

हाल के दौर में जिस तरह से भारत में मीडिया स्वामित्व का संकेंद्रण बढ़ा है, उसने एक जीवन्त लोक विमर्श (पब्लिक स्फीयर) के लिए खतरा पैदा किया है. लोगों का विवेक बाजार के अनुरूप ढलना शुरू हुआ है. कुछ ही मीडिया संस्थानों के प्रभावशाली होने की वजह से मीडिया में विचारों की बहुलता संकट में है और लोगों तक सही सूचना पहुंचाने के पत्रकारीय उसूलों की अनदेखी बढ़ती जा रही है.

ये बात सही है कि नव उदारवादी अर्थव्यवस्था अपनाने के बाद भारत में मीडिया का अभूतपूर्व विस्तार हुआ है. दुनिया के किसी भी दूसरे देश में आज भारत जैसा फलता-फूलता मीडिया नहीं है. पहली नजर में भारतीय मीडिया का यह विस्तार विचारों की बहुलता के पक्ष में जाता हुआ लगता है. लेकिन सही तस्वीर इसके बिल्कुल उलट है.

रजिस्ट्रार ऑफ न्यूजपेपर्स फॉर इंडिया (आरएनआइ) के 31 मार्च 2015 तक के आंकड़ों के मुताबिक़ भारत में कुल 1,05,443 समाचार पत्र और आवधिक पत्रिकाएं प्रकाशित होती हैं, जिसमें से 14,984 समाचार पत्र और 90,459 पीरियॉडिकल्स हैं. सूचना और प्रसारण मंत्रालय के आंकड़ों के हिसाब से जुलाई 2015 तक कुल 832 टेलीविजन चैनलों को भारत में अपलिंकिंग और डाउनलिंकिंग का लाइसेंस मिल चुका है. जिसमें से करीब आधे समाचार चैनल हैं.

रेडियो समाचारों में हालांकि अभी आकाशवाणी का एकाधिकार बना हुआ है लेकिन निजी एफएम रेडियो का लगातार विस्तार हो रहा है और सरकार निजी रेडियो को समाचार प्रसारण के क्षेत्र में अनुमति देने पर विचार कर रही है.

इंटरनेट के विस्तार से आने वाले दिनों में मीडिया कंवर्जेंस होना तय है. जिससे धीरे-धीरे प्रिंट, रेडियो और टेलीविजन जैसे माध्यमों को लोग एक ही प्लेटफॉर्म यानी इंटरनेट पर देख, सुन या पढ़ पाएंगे. एक जुलाई 2016 तक भारत में इंटरनेट उपभोक्ताओं की कुल संख्या 462,124, 989 पहुंच चुकी है. ये संख्या भारत की कुल जनसंख्या का 34.8 फीसदी है. पूरे विश्व में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या 3.4 अरब है. इस लिहाज से भारत में पूरी दुनिया के कुल 13.5 फीसदी इंटरनेट उपभोक्ता हैं.

मीडिया विस्तार के चकाचौंध कर देने वाले उपरोक्त आंकड़ों से ये भ्रम पैदा हो सकता है कि देश में पत्रकारिता का भविष्य उज्जवल है, विचारों की विविधता बची रहेगी. कोई एक मीडिया संस्थान गलत खबर भी देगा तो दूसरा सही खबर लोगों तक पहुंचा ही देगा. लेकिन अफसोस की बात ये है कि ये स्थिति विचारों की बहुलता और लोगों के सही सूचना पाने के अधिकार की गारंटी नहीं करती. इसकी वजह ये है कि भारतीय मीडिया पर कुछ गिने-चुने मीडिया घरानों या कॉरपोरेट्स का एकाधिकार बढ़ता जा रहा है. प्रिंट, रेडियो, टेलीविजन और इंटरनेट के एक बड़े हिस्से को कुछ गिनी-चुनी बड़ी कंपनियां ही नियंत्रित कर रही हैं.

मीडिया संकेंद्रण की इस स्थिति की तरफ सबसे पहले ध्यान अमेरिकन मीडिया विशेषज्ञ बैन बैग्डिकियान ने ध्यान खींचा था. उन्होंने अमेरिकी मीडिया का अध्ययन कर 1983 में मीडिया मोनोपॉली नाम की किताब प्रकाशित की थी. तब अमेरिकन मीडिया को पचास के आसपास कंपनियां नियंत्रित कर रही थीं. लेकिन धीरे-धीरे बड़ी कंपनियों ने छोटी कंपनियों को बाजार में टिकने नहीं दिया और आज अमेरिकन मीडिया के नब्बे फीसदी हिस्से को सिर्फ चार बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां नियंत्रित करती हैं. इनमें कॉमकॉस्ट कॉर्पोरेशन, द वॉल्ट डिजनी कंपनी, ट्वेंटी सेंचूरी फॉक्स और टाइम वॉर्नर जैसी कंपनियां शामिल हैं.

वैग्डिकियान गिनी-चुनी मीडिया कंपनियों के मीडिया नियंत्रण को मीडिया ओलिगोपॉली कहते हैं जबकि जब सिर्फ दो कंपनियां मीडिया के बड़े हिस्से को नियंत्रित करने लगें तो इस स्थिति को वे डुओपॉली और सिर्फ एक कंपनी जब ज्यादातर मीडिया को नियंत्रित करने लगे तो इसे मीडिया एकाधिकार (मोनोपॉली) कहते हैं. वे सचेत करते हैं प्रतिस्पर्धा की वकालत करने वाली बाजार अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे बाजार से छोटी कंपनियों को बाहर कर देती है या उनका अधिग्रहण कर लेती हैं और धीरे-धीरे सबसे ताकतवर कंपनी ही बाजार को नियंत्रित करने लगती है.

इस लिहाज से देखें तो भारतीय मीडिया बाजार भी एकाधिकार की दिशा में बढ़ रहा है. कुछ ही मीडिया कंपनियों के ज्यादातर मीडिया को नियंत्रित करने पर वे कंपनियां विचारों की विविधता के लिए खतरा बन जाती हैं और जो भी वे बताती हैं वही जनता तक पहुंचता है. जनता के लिए जरूरी सूचनाएं कंपनी के मुनाफ़े और सुविधा के अनुसार रोक दी जाती हैं. स्वच्छ और तार्किक बहस को गायब कर बाजार समर्थक तर्कों को पैदा किया जाता है.

आज टीवी 18 समूह, स्टार समूह, टाइम्स समूह, जी समूह और जागरण समूह जैसी विशालकाय कंपनियां लगातार भारतीय मीडिया के बड़े हिस्से पर कब्जा करती जा हैं. इनकी उपस्थिति प्रिंट, रेडियो, टीवी और इंटरनेट जैसे माध्यमों में भी बढ़ रही है. छोटी कंपनियां या तो इनके सामने टिक नहीं पा रही हैं या फिर ये उन कंपनियों का अधिग्रहण कर रही हैं. रिलायंस समूह की तरफ से किया गया सीएनबीसी और ईनाडू का अधिग्रण इसकी एक बानगी भर है. यह इस बात की तरफ भी इशारा करती हैं कि किस तरह बड़े कॉरपोरेट मीडिया पर कब्जा कर जनमत को अपनी दिशा में मोड़ने की कोशिश कर सकते हैं. जागरण समूह की तरफ़ से प्रकाशित दैनिक जागरण दुनिया का सबसे ज्यादा प्रसारण वाला अखबार है तो टाइम्स समूह का टाइम्स ऑफ़ इंडिया दुनिया का सबसे ज्यादा संख्या में प्रसारित अंग्रेजी दैनिक है. इन दोनों ही अखबारों के देश के अलग-अलग हिस्सों से कई संस्करण निकलते हैं. यानी जनता के ज्यादातर हिस्से तक बड़ी कंपनियों का ही मीडिया पहुंच पाता है. साल 2009 में टेलीकॉम रेग्यूलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया (ट्राइ) ने भारत में बढ़ रहे मीडिया संकेंद्रण और एकाधिकार की प्रवृत्तियों पर सरकार को सचेत किया था और विचारों की बहुलता और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए मीडिया के नियमन की वकालत की थी लेकिन अब तक इस पर कोई ठोस कानून नहीं बनाया जा सका है.

कई बार लोकतंत्र के पहरुए के तौर पर समाचार मीडिया का महिमामंडन किया जाता है. इसे वॉच डॉग और लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ भी कहा जाता है. लेकिन हकीकत इससे बिल्कुल अलग है. भारत सरकार अपने दस्तावेजों में इसे मीडिया उद्योग कहती है. बाजार के दबाव में लोकतंत्र के तथाकथित चौथे स्तंभ का उद्योग बन जाना पत्रकारिता के मूल्यों के अवमूल्यन की कहानी खुद ही कह देता है.

मीडिया नियमन की जब भी बात उठती है तो मीडिया के स्वामित्व के नियमन की जानबूझ कर अनदेखी की जाती है. और बड़ी चालाकी से सिर्फ उसकी विषयवस्तु के बारे में ही बात की जाती है. इस बात की तरफ ध्यान देना जरूरी है कि मीडिया का मालिकाना या मैनेजमेंट ही उसकी विषयवस्तु तय करने में सबसे बड़ी भूमिका निभाता है. मसलन जब कोयला घोटाला सामने आया तो कई मीडिया कंपनियों के नाम उस घोटाले में शामिल थे ऐसे में हम उस मीडिया हाउस में काम करने वाले पत्रकार से किस तरह पत्रकारिता के मूल्यों की रक्षा करने की अपेक्षा रख सकते हैं?

बाजार के दबाव में सरकारों ने सारे कायदे-कानूनों को ही ढीला नहीं किया है बल्कि उसने श्रम कानूनों की भी अनदेखी की है. जिस वजह से आज पत्रकार नाम के प्राणी की मीडिया संस्थान में कोई निर्णायक भूमिका नहीं है. नौकरी की असुरक्षा उसे पत्रकारीय मूल्यों के पक्ष में खड़ा होने में सबसे बड़ी बाधा है. परिणाम स्वरूप अब ब्रैंड मैनेजर मीडिया की विषयवस्तु तय करने लगे हैं और पत्रकार चूं तक नहीं बोल पाते हैं. पत्रकारों को कोई असरदार संगठन न होने की वजह से उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज बन कर रह जाती हैं. अब जो बचे-खुचे जो पत्रकार संगठन हैं भी तो मैनेजमेंट ने उन्हें खरीद लिया है.

भारतीय मीडिया आज बाजार के दबाव में हर वो हरकत कर रहा है जो पत्रकारिता के मूल्यों को ध्वस्त करता है. मालिकाने के अलावा विज्ञापनों का दबाव भी मीडिया की विषयवस्तु को तय कर रहा है. टाइम्स ऑफ़ इंडिया की मीडिया नेट और प्राइवेट ट्रीटी जैसी पहलकदमियों की इस सिलसिले में काफी आलोचना हो चुकी है. मीडिया नेट के तहत अखबार ने डेल्ही टाइम्स नाम से पेड सप्लिमेंट छापना शुरू किया लेकिन कहीं भी ये नहीं बताया कि उसमें आने वाले समाचार पेड हैं. हैरानी की बात ये है कि इस सप्लीमेंट को मुख्य अखबार का ही हिस्सा बनाकर बेचा जाता था जबकि डेल्ही टाइम्स एक स्वतंत्र अखबार के तौर पर रजिस्टर्ड है. काफी आलोचनाओं के बाद अब उस पर एडवर्टोरियल लिखा जाने लगा है. प्राइवेट ट्रीटी के तहत कई कंपनियों से टाइम्स समूह ने समझौता किया और पैसे के बदले उनका प्रचार करने का जिम्मा उठाया. जिस दौर में टाइम्स समूह अपने मुनाफ़े में अपार बढ़ोतरी कर रहा था तभी टाइम्स समूह के मालिक समीर जैन ने खुलेआम घोषणा की कि हम समाचार पत्र उद्योग में नहीं बल्कि विज्ञापन उद्योग में हैं. इस टिप्पणी से भारतीय मीडिया की हकीकत को समझा जा सकता है.

समाचार मीडिया में मालिकों और मैनेजमेंट के हावी होने की वजह से अब संपादक की भूमिका मैनेजर की हो गई है. वो मैनेजमेंट का भोंपू बनकर रह गया है. उसको मिलने वाली सुविधाएं और भारी-भरकम तनख्वाह उसे रीढ़ विहीन बना देती है. वह पत्रकार कम और मैनेजमेंट के एजेंट की तरह ज्यादा काम करने लगता है. समाचार चयन और उनके प्रस्तुतीकरण में निचली पायदान के पत्रकारों की भूमिका लगातार कम होती जाती है. समाचार कक्षों में वैचारिक बहस का माहौल शून्य होता जाता है और उन्हें बाजार निर्धारित सूचनाओं को प्रसारित करने के लिए मजबूर होना पड़ता है.

उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि बाजार का दबाव सही सूचनाओं को जनता तक पहुंचाने में सबसे ज्यादा बाधक है. बाजार हमेशा अपनी सुविधा के हिसाब से खबरों को गढ़ता और बनाता है. एजेंडा सेट करता है, यानी पहले लोगों को सोचने के लिए मुद्दे देता है और फिर उन्हें बताता है कि कैसे सोचना है. मीडिया में बढ़ रही बाजार समर्थक और सनसनीखेज खबरों के चलन को इसी संदर्भ में देखा जा सकता है. ये खबरें जनता की लोकतांत्रिक चेतना को कुंद करने का काम करती हैं. इस तरह जनता तक वही मुद्दे पहुंचते हैं जो बाजार के नेतृत्व में निकलने वाला मीडिया उन्हें बताता है. इन स्थितियों में तार्किक और लोकतांत्रिक विमर्श संभव नहीं है. लोक विमर्श प्रदूषित होने से जनमत बाजार की ताकतों के अनुरूप होने लगता है. इस स्थिति में पब्लिक सर्विस मीडिया की अवधारणा एक विकल्प है लेकिन भारत में अब तक इस दिशा मे कोई सार्थक कोशिश नहीं हुई है. प्रसार भारती जैसी कोशिश लोकतंत्र में कॉरपोरेट के बढ़ते प्रभाव और लकीर की फकीर नौकरशाही के चंगुल में फंस चुकी है.

भूपेन सिंह, मीडिया आलोचक