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नहीं रहीं 'हजार चौरासी की मां' की रचयिता

प्रभाकर२८ जुलाई २०१६

'हजार चौरासी की मां' जैसी कालजयी कृति की रचयिता और सामाजिक कार्यकर्ता महाश्वेता देवी का 90 वर्ष की आयु में कोलकाता में निधन हो गया. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपने शोक संदेश में कहा कि बंगाल ने अपनी मां को खो दिया.

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Indien Literaturfestival 2013 Jaipur Autorin Mahashweta Devi
तस्वीर: Jasvinder Sehgal

करीब दो महीने से कोलकाता के बेल व्यू क्लीनिक में प्रसिद्ध कवियित्री और सामाजिक कार्यकर्ता महाश्वेता देवी का इलाज चल रहा था. साहित्य अकादमी, ज्ञानपीठ, पद्म विभूषण और मैग्सेसे समेत कई पुरस्कारों से सम्मानित महाश्वेता देवी के निधन पर शोक जताते हुए पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा है कि बंगाल ने अपनी मां को खो दिया.

बेल व्यू के डाक्टरों ने बताया कि महाश्वेता देवी को बड़ी उम्र में होने वाली बीमारियों की वजह से क्लीनिक में दाखिल किया गया था. खून में संक्रमण होने और किडनी फेल होने की वजह से उनकी हालत बिगड़ गई थी.

महाश्वेता देवी को ममता बनर्जी का करीबी माना जाता है. हालांकि कुछ मुद्दों पर इन दोनों के बीच मतभेद भी उभरते रहे हैं. सिंगुर और नंदीग्राम में जमीन अधिग्रहण के खिलाफ आंदोलन के दौरान जिन बुद्धिजीवियों ने खुल कर ममता का समर्थन किया था उनमें महाश्वेता देवी का नाम सबसे ऊपर था.

उनकी प्रमुख कृतियों में 'हजार चौरासी की मां' के अलावा 'ब्रेस्ट स्टोरीज' और 'तीन कौड़ीर साध' शामिल हैं. उनकी कई पुस्तकों पर फिल्में भी बन चुकी हैं. महाश्वेता देवी का जन्म वर्ष 1926 में ढाका (अब बांग्लादेश की राजधानी) में हुआ था. लेखन उनको विरासत में मिला था. मां धारित्रि देवी और पिता मनीष घटक दोनों लेखक थे. देश के विभाजन के बाद वे भारत आ गईं. यहां उन्होंने विश्वभारती विश्वविद्यालय से बीए (आनर्स) की डिग्री हासिल की और कलकत्ता विश्वविद्यालय से एमए किया.

जाने-माने बांग्ला फिल्म निदेशक ऋत्तिक घटक महाश्वेता के भाई थे. महाश्वेता देवी का विवाह जाने-माने बांग्ला अभिनेता बिजन भट्टाचार्य से हुआ था. वर्ष 1948 में उनके बेटे नवारुण का जन्म हुआ. वे भी आगे चल कर लेखक बने. कुछ साल पहले उनके निधन के बाद से महाश्वेता देवी काफी दुखी थीं.

महाश्वेता की पहली पुस्तक 'झांसी की रानी' वर्ष 1956 में छपी थी. वर्ष 1964 में वह कलकत्ता के बिजयगढ़ कालेज में प्रोफेसर बनीं. अध्यापन के अलावा उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में भी हाथ आजमाया. वर्ष 1984 में रिटायर होने के बाद वे साहित्य में ही रम गईं.

एक सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर उन्होंने अपना जीवन आदिवासियों के विकास के प्रति समर्पित कर दिया था. शबर जनजाति के हित में किए गए कार्यों की वजह से ही उनको शबरों की मां कहा जाता था. वह विभिन्न आदिवासी संगठनों से जुड़ी थीं. इसके अलावा वे 'बार्तिके' नामक एक आदिवासी पत्रिका का संपादन भी करती थीं.

वर्ष 1979 में उनको साहित्य अकादमी अवार्ड मिला था. उसके बाद वर्ष 1986 में पद्मश्री मिला और 1997 में ज्ञानपीठ. उन्होंने सौ से भी ज्यादा उपन्यास लिखे. उनकी लघु कहानियों के 20 संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. एक लेखक के तौर पर देश-विदेश में उनकी अलग पहचान थी. महाश्वेता देवी साहित्य में अपनी कामयाबी का श्रेय हमेशा आम लोगों को देती रहीं. उनका कहना था कि आम लोगों से ही उनको अपनी कहानियां लिखने की प्रेरणा मिलती है.