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भूख हड़ताल क्यों खत्म कर रही हैं इरोम शर्मिला?

प्रभाकर२७ जुलाई २०१६

दुनिया की सबसे लंबी भूख हड़ताल खत्म करने का फैसला लेते वक्त इरोम ने अपने सहयोगियो और परिजनों से बात तक नहीं की. आखिर ऐसा क्या हुआ कि इरोम ने 16 साल लंबी हड़ताल खत्म करने का फैसला किया.

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Irom Sharmila NESO Indien
तस्वीर: picture-alliance/dpa

किसी मांग में देश ही नहीं बल्कि दुनिया में सबसे लंबे अरसे तक भूख हड़ताल करने वाला कोई व्यक्ति अगर अचानक अपना आंदोलन खत्म करने का फैसला करता है तो यह उनकी हताशा का प्रतीक तो है ही, लोकतांत्रिक आंदोलनों से उठते भरोसे का भी सबूत है. मणिपुर में लागू आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट (एएफएसपीए) यानी सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम हटाने की मांग में बीते 16 साल से भूख हड़ताल पर बैठी लौह महिला इरोम शर्मिला के फैसले को इसी तरह परिभाषित किया जा सकता है.

इरोम के फैसले से जहां उनके घरवाले, मित्र और शुभचिंतक हैरत में हैं वहीं सरकार व सुरक्षा एजंसियों ने राहत की सांस ली है. इरोम में पहले किसी से इस फैसले के बारे में सलाह-मशविरा नहीं किया था. माना जा रहा है कि उनकी भूख हड़ताल तुड़वाने में उनके प्रेमी और भारतीय मूल के ब्रिटिश नागरिक की अहम भूमिका रही है.

शुरुआत

मणिपुर में इस कानून के खिलाफ इरोम ने वर्ष 2000 में अपनी भूख हड़ताल शुरू की थी. इस कानून के तहत सुरक्षा बलों को संदेह के आधार पर किसी को भी गिरफ्तार करने और उसे गोली मारने जैसे असीमित अधिकार हासिल हैं. लेकिन अक्सर इसके दुरुपयोग के मामले ही सुर्खियां बटोरते रहे हैं. नवबंर 2000 में इसी कानून की आड़ में असम राइफल्स के जवानों ने उग्रवादियों से कथित मुठभेड़ के दौरान 10 बेकसूर लोगों को मौत के घाट उतार दिया था. उस घटना के विरोध में ही इरोम ने अनशन शुरू किया था. 16 साल लंबी उनकी भूख हड़ताल दुनिया में शायद अपने किस्म की सबसे लंबी हड़ताल है. लेकिन यह आंदोलन एक छोटी-सी मांग भी पूरी नहीं कर सका है. शर्मिला कहती रही हैं, ‘मुझे अपने जीवन से बेहद प्यार है. मैं अपना लक्ष्य हासिल करने के भूख हड़ताल को एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर रही हूं, जो कोई गुनाह नहीं है.' इस लंबी हड़ताल के दौरान उनको दर्जनों बार गिरफ्तार व रिहा किया गया. लेकिन वह अपनी मांग से पीछे हटने को तैयार नहीं हुईं.

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हताशा

इस लंबे अरसे के दौरान तमाम परिचितों, नजदीकी मित्रों, रिश्तेदारों और शुभचिंतकों के बार-बार समझाने के बावजूद इरोम कभी अपना आंदोलन खत्म करने की हामी नहीं भरी थी. तो फिर आखिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि उन्होंने इसे खत्म करने का फैसला कर लिया? जानकारों का कहना है कि इरोम अब धीरे-धीरे हताश हो चुकी थीं. उनको समझ में आ गया था कि भूख हड़ताल से भले उनकी जान चली जाए, राज्य या केंद्र सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंगने वाली है. वह यह भी समझ गई थीं कि दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में लोकतांत्रिक आंदोलनों की कीमत दो कौड़ी की है और यहां राजनीति ही सबसे बड़ा हथियार है. इसलिए उन्होंने अब अपनी मांग पूरी करने के लिए राजनीति को हथियार बनाने का फैसला किया है. इरोम को भरोसा हो गया था कि उनके आंदोलन से लक्ष्य हासिल कर पाना असंभव है.

वह कहती हैं, ‘इतने लंबे अरसे तक सरकार की ओर से कोई सकारात्मक पहल नहीं हुई है. इसलिए अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए मैं राजनीति का रास्ता चुन रही हूं.' इरोम अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में हिस्सा लेंगी. उन्होंने माना कि उनके आंदोलन को आम लोगों की ओर से मिलने वाला समर्थन घटता जा रहा है. वह कहती हैं, ‘मैं अपने संघर्ष में अकेली पड़ गई थी.' इस कथन से उनकी हताशा का सबूत मिलता है.

इरोम मालोम विधानसभा सीट से निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर मैदान में उतरेंगी. उनका कहना है कि चुनावी प्रक्रिया ही बदलाव का एकमात्र तरीका है. इसलिए उन्होंने राजनीति में उतरने का फैसला किया. वैसे, इससे पहले भी कई अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों ने उनको चुनाव लड़ने का प्रस्ताव दिया था. लेकिन उन्होंने हर बार उसे ठुकरा दिया.

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हैरत में परिजन

इरोम के आंदोलन के दौरान उनका हर कदम पर साथ देने वाले बड़े भाई सिंघजीत कहते हैं, ‘मुझे हैरत है. इरोम ने पहले से कुछ नहीं बताया.' एमनेस्टी इंटरनेशल इंडिया के प्रोजेक्ट मैनेजर अरिजीत सेन कहते हैं, ‘अब विशेषाधिकार अधिनियम के खिलाफ ईरोम की लड़ाई का नया स्वरूप लेना तय है.' सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही मणिपुर में हुई 1528 हत्याओं की जांच के आदेश दे दिए हैं. उम्मीद है, अब सरकार भी इस अधिनियम को खत्म करने की दिशा में ठोस पहल करेगी. संगठन ने मणिपुर सरकार से इरोम को तत्काल बिना शर्त रिहा करने की मांग की है.

लंबे अरसे से इरोम के सहयोगी और अलर्ट मणिपुर नामक मानवाधिकार संगठन के निदेशक बाबलू लोईतोंगबाम कहते हैं, ‘मैं इस फैसले से हैरान हूं. लेकिन इसकी वजह समझ सकता हूं.' उन्होंने माना कि इरोम ने पहले से उनको इस बारे में नहीं बताया था. बाबलू कहते हैं, ‘अगर ईरोम के 15 बरस से ज्यादा लंबी भूख हड़ताल के बावजूद सरकार ने उक्त अधिनियम को खत्म नहीं किया है तो अगले 30 बरसों में ऐसा नहीं होगा.'

इरोम ने भूख हड़ताल शुरू करते समय कसम खाई थी कि विशेषाधिकार अधिनियम खत्म नहीं होने तक न तो वह घर लौटेंगी और न ही अपना आंदोलन खत्म करेंगी. लेकिन आखिर उन्होंने अचानक यह फैसला क्यों किया? उनके सहयोगियों का कहना है कि आम लोगों की मांग पर सरकार के कोई ध्यान नहीं देने की वजह से लगातार बढ़ती हताशा के चलते ही शायद इरोम ने यह फैसला किया. अब वह आंदोलन की बजाय राजनीति की राह जरूर चुन रही हैं लेकिन उनका मकसद वही है, सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम को खत्म करना.

अब नई राह पर चल कर इरोम को अपने मकसद में कितनी कामयाबी मिलेगी, यह तो वक्त ही बताएगा. लेकिन अपने फैसले से उन्होंने पूर्वोत्तर की राजनीति में एक हलचल तो पैदा कर ही दी है.