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बहुत सारी उम्मीदों के दो साल

महेश झा२५ मई २०१६

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार बने दो साल हो रहे हैं. बहुत सारी उम्मीदों के साथ बनी इस सरकार ने कुछ आशाओं को बनाए रखा है तो कुछ अरमान नौकरशाही की बलि चढ़ गए हैं.

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Indien Feier 2 Jahre Regierung Mohdi
तस्वीर: DW/A. Anil Chatterjee

2014 के संसदीय चुनावों में जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी की जीत हुई और दो दशक बाद पार्टी अपने बहुमत से सरकार बनाने में सफल हुई तो माहौल 1977 जैसा था, जब केंद्र में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी थी. बीजेपी के समर्थक तो खुश थे ही, मनमोहन सिंह की सरकार की अकर्मण्यता से तंग आ चुके बहुत से लोगों के लिए भी नई सरकार तिनके के सहारे की तरह थी. और तीसरा तबका था बीजेपी के विरोधियों का जो दुःखी थे कि वे बीजेपी को रोक पाने में विफल रहे हैं.

अब राष्ट्रीय राजनीति में अनुभवहीनता के साथ शुरू हुई प्रधानमंत्री की केंद्रीय पारी के दो साल बीत चुके हैं, तीनों ही वर्ग की अलग अलग प्रतिक्रिया है. बीजेपी के कुछ समर्थक बदलाव की गति से निराश हैं लेकिन उम्मीद बनी हुई है. नई सरकार से बेहतर फैसलों की बहुत सारी उम्मीदें लगाए लोग संतुष्ट नहीं हैं. और विरोधियों की हताशा दूर हो रही है, उन्हें विरोध करने के नए मौके मिल रहे हैं. मोदी ने यदि किसी को सचमुच परेशान किया है तो वह अकेली कांग्रेस पार्टी है, जिसे समझ में नहीं आ रहा कि दस साल के शासन के बाद विरोध की राजनीति कैसे की जाती है.

निराश होने वाला एक और तबका विदेशी निवेशकों का भी है. कांग्रेस शासन के समय भ्रष्टाचार, अनिश्चय और अनिर्णय के शिकार रहे विदेशी निवेशकों ने प्रधानमंत्री मोदी में एक कुशल प्रशासक देखा था जो तेज फैसले करने में माहिर था. उन्होंने भारत को ब्रैंड बनाने के प्रयासों और मेक इन इंडिया को प्रचारित करने में अद्भुत प्रतिभा दिखाई है, लेकिन निवेश को संभव बनाने के लिए जिन परिवर्तनों की अपेक्षा विदेशी निवेशकों ने की थी वे उस हद तक पूरी नहीं हुई हैं. गंभीर फैसले भी हुए हैं, विभिन्न स्तरों पर अथक प्रयास भी हुए हैं, नतीजे भी दिख रहे, लेकिन उत्साह और हंगामा नहीं दिख रहा है.

कम से कम विदेश में रहते हुए वजह एक ही दिखती है. अलग अलग मामलों ने यह अहसास कराया है कि भारत सुरक्षित नहीं है. कभी बलात्कार के मामले रहे हैं तो कभी बीफ बैन को लेकर बहस और लोगों की उग्रता. खासकर भीड़तंत्र का नियंत्रण कर पाने में पुलिस की नाकामी ने सुरक्षित निवेश की भारत की छवि में बट्टा लगाया है. प्रधानमंत्री से अपेक्षा रही है कि वे इन मामलों पर सख्त रवैया अपनाएं और अपनी नाराजगी जाहिर करेंगे. लेकिन उन्होंने इनका निबटारा पुलिस और अदालत पर छोड़ दिया. ऐसे में लोगों को लगा है कि सरकार गंभीर नहीं है.

इटली के दो नौसैनिकों पर मुकदमे ने यूरोपीय संघ के साथ संबंधों को बंधक बना लिया है. संयोग से इटली का प्रतिनिधि इस समय यूरोपीय संघ का विदेशनैतिक प्रतिनिधि भी है. इस मामले में सरकार का रवैया समस्या को फटाफट निबटाकर संबंधों को आगे बढ़ाने के बदले इंतजार का रहा है. जो लोग भारत से पहले से परिचित थे उन्हें तो पता ही था लेकिन इस घटना ने यूरोप के आम लोगों के सामने भी भारतीय न्यायप्रणाली की कमजोरियों को उजागर किया है. इस क्षति से निबटने में भारत को सालों लगेंगे.

प्रधानमंत्री मोदी के पास अब तीन साल का समय है जिसमें वे अपने वादे पूरा कर सकते हैं, लोगों का भरोसा फिर से जीत सकते हैं और 2014 के उत्साह को पुनर्जीवित कर सकते हैं. जिस तरह से उन्होंने भारत की समस्याओं को आवाज दी है, उन्हें उठाया है, लोगों से उनके बारे में चर्चा की है वह भारत के प्रशासनिक इतिहास में अनोखा है. अब उन्हें इस समस्याओं का समाधान करने वाला ढांचा बनाना होगा. स्वच्छ भारत का नारा तो अच्छा है, लेकिन देश को साफ सुथरा करने के लिए लोगों को लगना होगा. प्रधानमंत्री ने असम के मुख्यमंत्री सोनोवाल की इस बात के लिए तारीफ की कि चुनाव प्रचार के दौरान भी वे केंद्रीय मंत्री की जिम्मेदारी उठाते रहे. उन्हें हर मंत्री से यही अपेक्षा करनी चाहिए, क्योंकि उन्हें उस पद पर नियुक्त किया गया है और इसके लिए उन्हें तनख्वाह भी मिलती है. मंत्री अनुशासित होंगे तो अधिकारियों में भी अनुशासन आएगा.

भारत उस मोड़ पर पहुंच गया है जहां विकास की ललक हर इंसान को परेशान कर रही है. विकास की गति एक दूसरे के खिलाफ न चली जाए इसके लिए राष्ट्रीय संवाद की जरूरत है. बीजेपी और प्रधानमंत्री इस संवाद में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. अगर वे ऐसा कर पाते हैं तो न सिर्फ विकास टिकाऊ होगा, भारत की प्रगति में यह अमूल्य योगदान होगा.

ब्लॉगः महेश झा