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मुसलमानों पर भारी गुजरे आजादी के 70 साल

एस. वहीद१२ अगस्त २०१६

आजादी के 70 साल बाद मुसलमानों की हालत कैसी है? वे कितने बदले? और क्यों बदले? मुसलमानों के सामने सवाल बहुत हैं.

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Bangladesch Opferfest Eid al-Adha 2015 Dhaka
तस्वीर: picture alliance/epa/R. Gupta

भारत का हर चौथा भिखारी मुस्लिम है. यहां की आबादी में मुसलमान 14.23 फीसदी हैं जबकि भिखारियों की आबादी में उनकी हिस्सेदारी 24.9 प्रतिशत बनती है. वर्ष 2011 की जनगणना के आंकड़ों से यह बात निकल कर आई है. इससे पहले 30 नवम्बर 2006 को जस्टिस राजिन्दर सच्चर आयोग की 403 पेज की रिपोर्ट लोकसभा में रखी गई तो पता चला था कि भारत में मुसलमानों की हालत दलितों से भी बदतर हो चुकी है.

दूसरी तरफ विप्रो वाले अजीम प्रेमजी पिछले कुछ वर्षों में भारत के सबसे बड़े दानी के तौर पर उभरे हैं. उन्होंने हाल ही में 27,514 करोड़ रुपए दान किए हैं जो उस दानराशि का 80 फीसदी है, जो कुल 36 भारतीयों ने चालू वित्तीय वर्ष में दान स्वरूप दिए हैं. अजीम प्रेमजी की सालाना आमदनी 18.5 बिलियन डॉलर, शाहरुख खान की 600, आमिर की 180 और सलमान खान की 200 मिलियन डॉलर है, भारतीय जीडीपी में इन चारों की आमदनी का ही योगदान एक फीसदी से अधिक बनता है.

आम भारतीय मुसलमान प्रतिदिन औसतन सिर्फ 32.7 रुपये ही खर्च कर पाता है जबकि उसके सिख भाई की प्रतिदिन खर्च क्षमता 55.3 रुपये है और हिंदू भाई की 37.5 रुपये प्रतिदिन. आंकड़ों की इस बाजीगरी से भारतीय मुसलमानों का क्या असली चेहरा सामने आ पा रहा है. कोई भी मुसलमान इससे शायद ही इत्तेफाक करे. आतंकवाद का एक हिडेन टैग उस पर चस्पां किया जा चुका है. मुसलमान आज की तारीख में शायद सबसे ज्यादा मानसिक यंत्रणा सहने वाला जीव बन चुका है.

हर तरफ उसे शक की निगाह से देखा जा रहा है और उसकी बात सुनने वाला कोई नहीं है. उसके दोस्त उससे भले ही हमदर्दी रखें, उसे उसके हाल पर छोड़ कर चलते बनते हैं. लेकिन फिर भी उसे चिंता जरा कम ही है, क्योंकि उसका अल्लाह पर भरोसा कुछ ज्यादा ही है. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अध्यक्ष मौलाना राबे हसनी नदवी ने एक बार डीडब्ल्यू से कहा था कि "मुस्लिम समाज दरअसल मजहबी समाज है. वह चाहे किसी भी फिरके या मसलक से जुड़ा हो, जुड़ा जरूर है."

लगता है मौलाना नदवी की इस बात को सारे सियासी दल अच्छी तरह से समझ चुके हैं कि मुसलमान दुनिया के मुकाबले अपने दीन से ज्यादा कंट्रोल होता है. शायद यही वजह है कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को पेश कर यूपीए की अपनी सरकार को ही कठघरे में खड़ा कर देने का साहस दिखाने वाली सोनिया गांधी ने भी सच्चर कमेटी की सिफारिशों को लागू करने का जोखिम नहीं उठाया. समाजसेवी तारिक सिद्दिकी के मुताबिक भारत का मुसलमान दुनिया की सबसे बड़ी सेल्फ इम्प्लायड कौम है, आम मुसलमान सरकारी सहायता या स्कीमों पर कम ही ध्यान देता है. उनमें सरकारी मदद लेने का रुझान अभी तक आकार ही नहीं ले पाया है. हालांकि मदरसों को मिलने वाली सरकारी ग्रांट उनकी बात को गलत साबित करती है. यूपी में ही 7500 मदरसे सरकारी ग्रांट पर चल रहे हैं और 5000 से अधिक सरकारी इमदाद पाने की लाइन में हैं. नरेंद्र मोदी सरकार ने चालू वित्त वर्ष में अल्पसंख्यकों के लिए 3,827 करोड़ के बजट की व्यवस्था की है जबकि यूपी ने अपने यहां करीब पौने दो करोड़ की मुस्लिम आबादी के लिए 2,900 करोड़ रुपए का बजट रखा है. इसका आधे से अधिक मदरसों पर ही खर्च हो रहा है.

लेकिन आम मुसलमान इससे बेखबर अपनी दुनिया में बजाहिर मगन दिखता है. भगवा आतंकवाद पर बात करने को अब कोई मुसलमान तैयार नहीं होता. आतंकवाद के इल्जाम में मुस्लिम नौजवानों की गिरफ्तारी के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ने और ऐसे दर्जनों नौजवानों की अदालत के जरिए बाइज्जत रिहाई कराने पर जमीयत-ए-उलेमाए हिंद के अध्यक्ष मौलना अरशद मदनी की तारीफ की जा रही है. सीरिया, अफगानिस्तान, अरब, पाकिस्तान और फिलस्तीन की खबरों में उसकी दिलचस्पी अभी भी उतनी ही है जितनी तब थी जब इमरान खान और जावेद मियांदाद के छक्कों पर ताली बजाने के इल्जाम कुछ मुसलमानों पर लगते थे और दंगा भी हो जाया करता था.

इराक पर जब अमेरिका ने हमला किया था तो दिल्ली की जामा मस्जिद पर इकट्ठा हजारों मुसलमानों ने जबरदस्त जुलूस निकाल दिया था. लेकिन सीरिया और अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमलों के समय वही मुसलमान खामोश रहा, तब्दीली तो आई है. दिल्ली यूनिवर्सिटी की डॉ. नजमा रहमानी इसका श्रेय इंटरनेट और मोबाइल क्रांति को देती हैं. कहती हैं कि तब मक्का और मदीना की भी लाइव क्लिपिंग्स लोगों को कहां मयस्सर थीं. बार बार उसे देश के लिए अपनी वफादारी साबित करने पर अब पहले जैसा इरिटेशन नहीं होता.

आजादी के सत्तर साल, भारतीय मुसलमान पर भारी गुजरे हैं, सिर्फ यही सही नहीं है. अब वह पीढ़ी गुजर चुकी जिसने विभाजन भुगता था और घर के बाहर रोज अपमान का घूंट पीकर जीना पड़ा था. पैट्रो डालर के दिन भी गुजर चुके हैं. नई पीढ़ी ने बाबरी मस्जिद विध्वंस से ज्यादा मुंबई ब्लास्ट और 2002 के गुजरात नरसंहार की फुटेज देखी है. उसने 'परजानिया', 'काई पो छे' जैसी फिल्में देख रखी हैं तो दूसरी तरफ 'न्यूयार्क', 'आमिर और 'शाहिद' जैसी फिल्में उसके दिमाग से उतर नहीं पा रही हैं. उसके रोल मॉडल भी बदले हैं, सानिया मिर्जा पर फतवा आता है तो मौलवी को बुरा भला कहने से भी किसी को गुरेज नहीं. पैसा कमाने की हवस उसकी भी बढ़ी है और इस धुन में जायज, नाजायज या हराम और हलाल पर भी गौर कम ही हो रहा है.

लेकिन नरेंद्र मोदी की अगुआई पर अभी भी भरोसा नहीं हो पाया है. गुजरात के उग्र दलित आंदोलन के बावजूद मुसलमानों ने गाय के नाम पर अपने ऊपर हो रहे जुल्मों सितम के खिलाफ आवाज बुलंद नहीं की. नवाब मीर जाफर अब्दुल्ला के मुताबिक ठीक ही है यह रवैया कि इलेक्शन में हिसाब चुकता कर लिया जाए. लेकिन सियासी तौर पर यह संवेदनशून्यता क्या ठीक है, उर्दू लेखक फजलुर्रहमान कहते हैं वक्त का तकाजा तो यही है.

ब्लॉगः एस. वहीद