1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

सरकार बाध्य है? विवश है? या अभिशप्त है?

शिवप्रसाद जोशी२ सितम्बर २०१६

पर्यावरण को बचाने और दोषियों को दंडित करने के लिए सरकार और उसकी नीतियां और कानून शिथिल क्यों हैं और क्यों सारा दारोमदार एनजीटी जैसी संस्थाओं पर आ गया है?

https://p.dw.com/p/1JuhI
Bildergalerie Weltkatastrophen 2013 Indien Überschwemmungen
तस्वीर: AFP/Getty Images

भारत में पर्यावरण की हिफाजत को लेकर नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल, एनजीटी यानी राष्ट्रीय हरित पंचाट की बढ़ती भूमिका ने आम लोगों को राहत दी है तो कुछ बुनियादी सवाल भी पैदा किए हैं. पर्यावरण को बचाने और दोषियों को दंडित करने के लिए सरकार और उसकी नीतियां और कानून शिथिल क्यों हैं और क्यों सारा दारोमदार एनजीटी जैसी संस्थाओं पर आ गया है?

सबसे ताज़ा मामला उत्तराखंड में जून 2013 में आई विनाशकारी अतिवृष्टि और बाढ़ से जुड़ा है. उस दौरान गढ़वाल क्षेत्र के श्रीनगर में भी अलकनंदा नदी में आई भीषण बाढ़ से जानमाल का भारी नुकसान हुआ था. श्रीनगर में ही अलकनंदा जलविद्युत परियोजना के नाम से जीवीके नाम की एक निजी कंपनी बांध बना रही है. एनजीटी के पास ये मामला गया था कि इस निर्माणाधीन बांध की वजह से नुकसान का आंकड़ा और दायरा बढ़ा था. कंपनी ये मानने के लिए तैयार नहीं थी. सरकार की ही तरह उसने भी प्राकृतिक आपदा को दैवी आपदा कहकर पल्ला झाड़ लिया. लेकिन एनजीटी ने पिछले सप्ताह इस बारे में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा कि आपदा दैवी नहीं हो सकती. इस आपदा के पीछे निर्माण की खामियां भी अवश्य थीं और कंपनी को पीड़ितों को नौ करोड़ 26 लाख रुपए का मुआवज़ा 30 दिन के भीतर देना होगा. इस मामले में पीड़ित स्थानीय ग्रामीण थे, बाढ़ में जिनके घर परिजन खेत खलिहान और पशु बह गए थे.

देखिए, जब उत्तराखंड में बरपा कुदरत का कहर

इसी दौरान एनजीटी के पास 2010 का भी एक मामला पेंडिंग था जिसमें डेल्टा मरीन शिपिंग कंपनी का एक तेल जहाज़ मुंबई के समंदर में डूब गया था जिससे पानी में बड़े पैमाने पर तेल रिसाव होने से पारिस्थितकीय नुकसान हो गया था. एनजीटी ने कंपनी को कसूरवार ठहराते हुए उस पर सौ करोड़ रुपए का जुर्माना ठोका है.

दोनों मामलों में दिए गए आदेश दिखाते हैं कि एनजीटी उन निजी कंपनियों की जवाबदेही तय कर रहा है और उन्हें पर्यावरण के नुकसान का जिम्मेदार भी मान रहा है. कंपनियों को कटघरे में लाने की इस वैधानिक सक्रियता ने पर्यावरण आंदोलन से जुड़े गंभीर लोगों और संस्थाओं को बड़ी राहत और उम्मीद हासिल कराई है. एनजीटी के फैसले से पता चलता है कि सरकारी काहिली कितनी गहरी पैठ गई है कि जो काम उसे पहले ही कर देने चाहिए थे वे तब हो रहे हैं जब मामले पर्यावरण की इस अदालत के पास जा रहे हैं. इन फैसलों से ये भी साफ है कि कुदरती आफत के समय पर्यावरण और पारिस्थतिकी को होने वाले नुकसान का खामियाजा अकेले सरकार भुगत लेती है और वो भी मानो इसके लिए सहर्ष तैयार रहती है. राज्य केंद्र से मदद की गुहार लगाता है, राहत कोष बन जाते हैं या जनता का पैसा ही इस काम में खर्च कर दिया जाता है जबकि निजी कंपनियां पूरी मौज में रहती है, वे किसी तरह की जवाबदेही से बची रह जाती हैं. एनजीटी ने ये स्पष्ट कर दिया है कि ऐसे किसी नुकसान में अगर निर्माण निजी कंपनी का होगा तो वो भी बराबर की जिम्मेदार होगी.

देश की अदालतों में सिविल और फौजदारी के मामले न जाने बरसों से लंबित हैं. पर्यावरण के संदर्भ में एनजीटी ने बेशक ये भार कम किया है. हालांकि इसमें कंपनियों को सुप्रीम कोर्ट जाने की छूट है लेकिन जिस तरह से नुकसान हुआ है और जो प्रामाणिक साक्ष्य उपलब्ध हैं उन्हें देखते हुए लगता नहीं कि सुप्रीम कोर्ट एनजीटी से अलग लाइन लेगा. अलदकनंदा मामले से पहली बार ऐसा हुआ कि कोई निजी कंपनी भी अब जिम्मेदारी के रडार पर आ गई है. अब वे सरकार पर दोष मढ़कर या दैवी प्रकोप या हादसा कहकर मुंह नहीं चुरा सकती हैं.

किस देश पर टूटेगा कुदरत का कितना कहर

मुंबई की शिपिंग कंपनी के मामले में भी एनजीटी का रुख साफ था. उसका फैसला “प्रदूषक भरपाई करे” के सिद्धांत पर टिका था. पनामा स्थित इस कंपनी का जहाज, अडानी एन्टरप्राइसेस लिमिटेट के लिए छह लाख मीट्रिक टन कोयला लेकर आ रहा था. उसमें करीब 300 टन ईंधन था और 50 टन डीजल भी रखा था. एनजीटी के फैसले की खास बात ये भी थी कि उसने कंपनी को बेहद पुराना जहाज भेजने के लिए भी लताड़ लगाई थी. ट्रिब्यूनल का कहना था कि भारत की जल सीमा किसी भी देश या किसी भी कंपनी के कूड़े की डंपिंग के लिए नहीं है. एनजीटी के अडानी ग्रुप पर भी पांच करोड़ रुपए का दंड लगाया.

एनजीटी के ये दो फैसले ऐतिहासिक इसीलिए है कि ये प्रकृति और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वालों को सही सही चिंहित कर पाए, निजी कंपनियों और कॉरपोरेट को कड़े शब्दों में संदेश दे पाए कि वे भी कानून के दायरे में रहें और दंड भुगतने के लिए तैयार रहें. वरना तो क्या होना था. सरकारें ही आखिरकार कचरे और प्रदूषण की सफाई करतीं, पुनर्वास का अभियान चलातीं, सब कुछ पहले जैसा करने की कोशिश करतीं और इसके लिए वो पैसा कहां से लातीं! कहने की जरूरत नहीं कि इसका भार भी एक बार फिर देश के आम नागरिक पर पड़ता जो टैक्स का भुगतान करता है.

सैटलाइट की नजर से प्राकृतिक आपदाओं को देखिए

बांध विरोधी अभियानों को भी इस फैसले से राहत मिलेगी. और बांध निर्माता कंपनियां और बांध बनाने को उतावली जान पड़ रही केंद्र और राज्यों की सरकारें को भी एकबारगी सोचना पड़ेगा. विकास के नाम पर अनापशनाप निर्माण का मॉडल जैसे चुपचाप अपना लिया गया है और जब कोई बहुत बड़ी त्रासदी घट जाती है तो मुनाफा कमाने वाली एजेंसियां, ठेकेदार, सरकारी अमला, पीछे हट जाते हैं. लोगों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है. निगरानी का सिस्टम तो दूर सवाल उठाना भी गवारा नहीं समझा जाता. एनजीटी के फैसले के बाद सरकार को चाहिए कि मुआवजा राशि फौरन वितरित की जाए और ये काम पारदर्शिता और सुनियोजित ढंग से हो.

अलकनंदा के बांध और मुंबई के समन्दर की ही बात नहीं है, अभी पिछले दिनों मार्च में देश की राजधानी में मृतप्रायः नदी यमुना के संवेदनशील कछार पर आर्ट आफ लिविंग के विश्व संस्कृति महोत्सव को लेकर हुआ विवाद भी जारी है. एनजीटी को पांच करोड़ की गारंटी राशि को हासिल करने में लंबा वक्त लगा. इस पर भी उस रिपोर्ट पर कार्रवाई होना बाकी है जो इस कार्यक्रम से कछार को हुए भारी नुकसान के बारे में है.

इसी तरह एनजीटी का 15 साल पुरानी डीजल कारों को सड़कों से हटाने का फैसला सरकार और कॉरपोरेट में खलबली पैदा कर गया. भारी उद्योग मंत्रालय तक ने कह दिया कि ये संभव नहीं है. ट्रिब्यूनल ने हर राज्य के दो सबसे ज्यादा प्रदूषित शहरों में वायु प्रदूषण के लेवल और वाहनों की संख्या का डाटा मंगवाया है. एनजीटी कूड़ा जलाने को लेकर दिल्ली सरकार को भी फटकार लगा चुका है. आए दिन कोई न कोई मामले ऐसे आ जाते हैं जिनमें हम पाते हैं एनजीटी को दखल देना पड़ रहा है. तो ऐसे में सवाल ये है कि पर्यावरण, उद्योग आदि से जुड़े मंत्रालय, विभाग, अफसरान क्या कर रहे हैं. वे क्या सिर्फ आंख मूंदकर विकास परियोजनाओं के नाम पर किसी भी फाइल में साइन करने के लिए बाध्य हैं, विवश हैं या अभिशप्त हैं?

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी