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कोरोनाः भारी पड़ेगी बचाव की सावधानियों से ये दूरी

शिवप्रसाद जोशी
३० जुलाई २०२०

भारत के अधिकांश इलाके जो लॉकडाउन या कन्टेन्मेट एरिया की जद से बाहर हो चुके हैं, वहां रोजमर्रा का जीवन महामारी पूर्व ढर्रे पर चल पड़ा है. कोरोना से बचाव में जुटे चिकित्सकों और विशेषज्ञों के मुताबिक ये चिंताजनक रवैया है.

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Indien Coronavirus-Ausbruch
तस्वीर: picture-alliance/NurPhoto/H. Bhatt

भारत में कोरोना महामारी के बीच लॉकडाउन के पांच महीने बीतते बीतते रिकवरी रेट भले ही बेहतर है और मरने वालों की संख्या की दर भी अपेक्षाकृत रूप से बहुत कम है, इसके बावजूद आबादी के विशाल आकार को देखते हुए यह अंदाजा लगाना कठिन नहीं है कि देश में खतरा कायम है और नए नए इलाके संक्रमण की जद में आ रहे हैं. खतरों के बीच यह भी देखा जा रहा है कि लोग महामारी से बचाव को लेकर बेफिक्र से भी हो चले हैं. मास्क पहनने से लोग कतरा रहे हैं, कहीं मास्क को मजबूरी की तरह, तो कहीं लापरवाही से पहने हुए देखा जा सकता है. फिजिकल डिस्टेंसिग के प्रति भी कई लोग अब सचेत नजर  नहीं आते हैं. सड़कों पर थूकना, पेशाब करना, कूड़ा फेंकना जारी है और लगता नहीं है कि यह वही आशंकित, भयभीत और थाली पीटते लोग हैं जो कोरोना वायरस को भगाने के लिए कुछ भी करने को तत्पर नजर आते थे. एक आम नैरेटिव यह चल पड़ा है कि अब इसके साथ ही रहना है. महामारी के खिलाफ अभियान में यह रवैया घातक और दूरगामी नुकसान पहुंचाने वाला माना जा रहा है.

इन दिनों ऐसे शहरों में जो लॉकडाउन और अन्य पाबंदियों से उबर चुके हैं, वहां सुबह शाम वॉक के लिए सड़कों पर निकले या सब्जी या किराने की दुकानों पर सामान खरीदने के लिए आतेजाते अधिकांश लोगों को मास्क न पहने हुए और भौतिक दूरी रखने की सावधानी को नजरअंदाज करते हुए देखा जा सकता है. मास्क से जुड़ी प्रशासनिक और चिकित्सकीय हिदायतों को न सिर्फ भुला रहे हैं, बल्कि कई लोगों ने तो इन हिदायतों का यह कहकर पालन करने से मना कर दिया है कि इनसे कुछ होने वाला नहीं. कई बार लोगों को निवेदन करना होता है कि वे मास्क पहन लें या थोड़ा दूरी बरतें. लेकिन कोई भड़क न उठे, इसका भी डर है. अगर संक्रमण होना है तो होकर रहेगा- नहीं होगा तो नहीं होगा - एक नैरेटिव यह है. दूसरा तर्क यह चल पड़ा है कि हमें नहीं होगा क्योंकि हमारा तो खानपान ठीक है, हमारा शरीर मजबूत है आदि आदि. लोग एक तरह से खुश हैं कि वे उससे बचे हैं लेकिन इस बात से शायद अंजान है कि उसका दायरा उन तक बढ़ता ही जा रहा है. और जरूरी सावधानियां ही उन्हें बचाए रख सकती हैं.

भागमभाग का यह नया दौर कोरोना को हराने या उससे निर्भयता दिखाने का आत्मविश्वास नहीं है, बल्कि यह सावधानियों को बोझ समझकर उतार फेंकने का दोषपूर्ण और अवैज्ञानिक दुस्साहस है, मनमानी करने की ढिठाई है. संवेदनाविहीन उपभोग की यह मानसिकता अपना काम बन जाने के स्वार्थ से संचालित होती है. और भारत इस समय कई तरह के जिन सामाजिक संकटों से घिरा है, उनमें एक यह भी है. वरना बीमारी से तड़पते लेकिन इलाज के लिए तरसते लोगों को समय पर सहायता मिल पाती, जरूरतमंदो को दुत्कारने या उनकी मदद से इनकार न किया जाता और कोरोना संक्रमण को लेकर छुआछूत, अंधविश्वास और सोशल मीडिया जनित अफवाहों के जरिए अज्ञानता और विवेकहीनता का शिकंजा न पड़ा रहता.

बेशक कोरोना संक्रमण को लेकर अनावश्यक भय या अतिरंजित कोशिशों से बचे जाने की जरूरत है. लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि अब इसके साथ जीना पड़ेगा वाली धारणा के आगे नतमस्तक होकर बचाव के तरीकों को अनदेखा कर दिया जाए और जैसा चलता है चलने दिया जाए. यह यथास्थितिवाद ही सामाजिक गतिशीलता के सामने सबसे बड़ा अवरोधक है. जनता सिर के ऐन ऊपर तने हुए कानूनों और आदेशों पर तो अमल कर लेती है लेकिन इन कायदों कानूनों में जरा भी छूट मिलते ही अपनी मनमर्जी में लौट जाती है. छोटे छोटे इलाकों में प्रशासन जिम्मेदार लोगों को चिंहित कर सकता है जो जागरूकता अभियान चलाए रखें और जरूरी हिदायतों पर अमल न करने वालों पर कार्रवाई करें. हालांकि लॉकडाउन में छूट की अवधियों के दौरान यह निगरानी अभियान चला था लेकिन लॉकडाउन हट जाने के बाद अधिकारियों और लोगों ने भी इन हिदायतों से पल्ला झाड़ लिया.  

कोरोना समय के ये मनोवैज्ञानिक और सामाजिक-राजनीतिक विश्लेषण अभी किए जाने हैं कि आखिर जनता में यह रवैया क्यों आता है और क्या यह खुद उसकी स्वाभाविक और स्वतःस्फूर्त फितरत होती है या इसके पीछे सत्ता-राजनीति के परिचालकों की प्रछन्न कार्रवाइयां भी जिम्मेदार होती हैं. किसी डोर से नियंत्रित होने या तनी हुई रस्सी पर चलने से अच्छा है एक सामान्य जीवन बिता पाना - यह समझना जरूरी है. अगर लोग अपने व्यवहार को संतुलित नहीं करते हैं और सरोकारविहीन रवैये में कमी नहीं लाते हैं, तो और कड़े नियम और बंदिशें आ सकती है. हो सकता है कि तब प्रशासनिक उपाय कन्टेन्मेंट या लॉकडाउन तक सीमित न हो. और लोगों को न चाहते हुए भी संपूर्ण सर्विलांस से व्याप्त सिस्टम में रहना पड़े. सत्ता व्यवस्था चलाने वाली ब्यूरोक्रेसी के लिए तो यह एक मुफीद रास्ता होगा.

जाहिर है अपने अपने जीवन में सिमटी हुई या अपने अपने दायरों और जरूरतों में बिखरी हुई जनता को इस बारे में एकजुट करना कठिन है लेकिन एक सामूहिक चेतना का निर्माण  जटिल हालात से निकाल सकता है. युद्ध और धर्म से लेकर क्रिकेट और पड़ोसी देशों के साथ बिजनेस के मामलों तक सामूहिक विवेक जागृत हो उठता है तो कोरोना जैसी भयावह महामारी से निजात पाने और सावधानियां बरतने के मामले में एकजुटता क्यों नहीं बना सकता? फेक न्यूज की अदृश्य मशीन अगर व्हाट्सऐप के जरिए निर्बाध रूप से धड़धड़ाती रह सकती है तो उस प्लेटफॉर्म का उपयोग क्यों नहीं नाजुक मौकों के बंधुत्व, नागरिक जिम्मेदारी और सामाजिक समरसता के निर्माण के लिए किया जाता? मास्क न पहनने और अन्य सावधानियों की धज्जियां उड़ाने वाले लोग अपनी ‘आजादी' का बेहिचक प्रदर्शन तो कर रहे हैं लेकिन दूसरों की जीने की आजादी छीनने वाले कैरियर भी बन रहे हैं. 

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