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शांति का नोबेल लेकर अशांति के सवाल छोड़ जाएंगे ओबामा

७ अक्टूबर २०१६

बराक ओबामा अपने राष्ट्रपति काल के अंतिम दिनों में हैं. उनके सारे कामों की समीक्षा हो रही है. और ऐसे में उन्हें मिला नोबेल पीस प्राइज बार बार सामने आ रहा है.

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Friedensnobelpreisträger 2009 Barack Obama
तस्वीर: picture-alliance/dpa

सात साल पहले इन्हीं दिनों अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को शांति का नोबेल पुरस्कार देने का ऐलान हुआ था. दुनिया हैरान रह गई थी क्योंकि वह उनका अमेरिकी राष्ट्रपति के पद पर पहला ही साल था. लेकिन उम्मीदें इतनी ज्यादा थीं कि शांति का नोबेल ठीक ही लग रहा था. ऐलान के बाद ओबामा ने अपने स्टाफ से एक भाषण लिखने को कहा. यह भाषण उन्हें दिसंबर में ओस्लो में पुरस्कार ग्रहण करते हुए देना था. लेकिन जब तक पुरस्कार ग्रहण करने की बारी आई, चीजें बहुत बदल चुकी थीं. कई हफ्ते पहले ही ओबामा अफगानिस्तान में और 30 हजार अमेरिकी सैनिक भेजने की योजना तैयार कर चुके थे. लिहाजा, भाषण बदलना पड़ा. ओबामा ने नया भाषण लिखा.

और शांति का नोबेल लेने के बाद जो भाषण ओबामा ने दिया, उसमें उन्होंने दुनिया को युद्ध की जरूरत समझाई. युद्ध की जरूरत तो लोग पता नहीं कितना समझे लेकिन यह बात सबको समझ आ गई कि नोबेल कमिटी ने जो युद्ध बंद हो जाने की उम्मीद की थी, वह पूरी नहीं हो पाएगी.

अब सात साल बाद जब ओबामा पद पर अपने आखिरी साल में हैं तो जानकार कह रहे हैं कि युद्ध और शांति के मुद्दे पर वह विरोधाभासों से भरे एक नेता रहे. अपने पीछे वह विफलता की वजह से हुई बर्बादियों के कई मंजर छोड़ रहे हैं तो कई ऐसी नई शुरुआत भी दे जा रहे हैं, जिनकी गूंज आने वाले सालों में सुनाई देती रहेगी. कभी युद्ध-विरोधी उम्मीदवार रहे ओबामा अपने से पिछले राष्ट्रपति से ज्यादा युद्धों में उलझे हुए हैं. वह अमेरिका के ऐसे कमांडर इन चीफ हैं जिन्होंने लाखों सैनिकों को इराक से वापस बुलाया लेकिन धीरे धीरे वापस भेजना भी शुरू कर दिया. उन्होंने पूर्णकालिक पारंपरिक युद्धों से हाथ खींचे तो दुनिया को ड्रोन हमलों के रूप में एक नए तरह का युद्ध भी दिया. क्लाइमेट चेंज और परमाणु प्रसार पर अहम संधियों में कूटनीतिक सफलताएं हासिल की तो सीरिया में छह साल से जारी युद्ध को रोक पाने में नाकाम भी रहे.

तस्वीरों में, बिंदास ओबामा

2009 में जब ओबामा को शांति का नोबेल मिला था तो लोगों ने कहा था कि अभी वह इसके हकदार नहीं हैं क्योंकि उन्होंने कुछ करके नहीं दिखाया है. आज भी जानकारों की राय में वह शांति के मसीहा तो नहीं ही हैं. ओस्लो के पीस रिसर्च इंस्टिट्यूट के निदेशक क्रिस्टियान बेर्ग हार्पविकेन कहते हैं, "मुझे नहीं लगता कि 2016 में नोबेल कमेटी उनके नाम पर विचार भी करती." हार्पविकेन कहते हैं कि ओबामा की विदेश नीति पारंपरिक ही रही और जितनी उम्मीद की थी उससे कहीं ज्यादा हदों में बंधी रही. उनका मानना है कि शांति के लिए नए जरिए खोजने के मामले में ओबामा पुराने रास्तों पर ही चलते रहे.

सीरिया में ओबामा की भूमिका को लेकर भी खासी आलोचना हुई है. एक तरफ आलोचकों का कहना है कि बशर अल असद के खिलाफ सेना इस्तेमाल ना करने का फैसला सही नहीं था तो दूसरी तरफ कूटनीतिक कोशिशों से भी लोग संतुष्ट नहीं हैं. ज्यादातर लोगों का मानना है कि वह बुश की इराक युद्ध की नीति से इधर उधर ही होते रह गए. इंस्टिट्यूट फॉर द स्टडी ऑफ वॉर में सीनियर फेलो लेफ्टिनेंट जनरल जिम डूबिक कहते हैं, "पिछली सरकार के मैक्सिमलिस्ट अप्रोच से हटने का फैसला तो ओबामा ने ठीक ही किया था लेकिन ऐसा करने के चक्कर में उन्होंने जो नीति अपनाई उसने युद्धों को और लंबा खींच दिया." डूबिक कहते हैं कि ओबामा को स्थिर मध्य पूर्व बनाने के लिए समान सोच रखने वालों का एक मजबूत गठबंधन बनाने की और ज्यादा कोशिश करनी चाहिए थी. हालांकि ओबामा के सलाहकार इस आलोचना से ज्यादा सहमत नहीं हैं. वे कहते हैं कि ज्यादा सेना का मतलब ज्यादा शांति नहीं होता. डिप्टी नेशनल सिक्यॉरिटी अडवाइजर बेन रोड्स कहते हैं, "सीरिया में असद सरकार के खिलाफ युद्ध की कोई अंतरराष्ट्रीय वजह नहीं है. यह भी पता नहीं है कि सेना भेजने का नतीजा क्या होगा. तो फिर सेना को हम क्यों भेजें? राष्ट्रपति ऐसा नहीं मानते कि सिर्फ फौज के दम पर आप अपनी बात मनवा सकते हैं."

याद कीजिए, जब भारत आए थे ओबामा

लेकिन यह विरोधाभासी है क्योंकि पाकिस्तान, यमन, लीबिया, सोमालिया और यहां तक कि सीरिया में भी खास मकसद हासिल करने के लिए ओबामा ने ड्रोन हमलों के आदेश दिए थे. इन हमलों की वजह से इन देशों के साथ संबंधों में तनाव भी पैदा हुआ और मासूम जानें भी गईं. लिहाजा ओबामा अब बहुत सारे सवाल बिना जवाब खोजे ही छोड़े जा रहे हैं. मसलन, जो कदम उठाए गए उनसे शांति कब और कैसे मिलेगी.

वीके/एमजे (एपी)