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समाज

क्या भारतीय चाहते हैं एक तानाशाह?

मारिया जॉन सांचेज
१७ अक्टूबर २०१७

भारत के लोकतंत्र में अनेक कमियां और कमजोरियां हैं, लेकिन इसके बावजूद वह पिछले सात दशकों से चल रहा है और अपनी जड़ें जमा चुका है. अब उसे हिलाना इतना आसान नहीं, कहना है कुलदीप कुमार का.

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Indien Schulkind mit Nationalflagge
तस्वीर: picture-alliance/dpa/J. Nv

पीयू रिसर्च के सर्वे के नतीजे चौंकाने वाले तो हैं ही, बहुत अधिक विश्वसनीय भी नहीं हैं. खासकर इसलिए क्योंकि इसके नतीजे 38 देशों के केवल लगभग 42,000 लोगों से पूछे गए सवालों के जवाबों पर आधारित हैं. हमें यह भी नहीं पता कि सवाल ठीक-ठीक किन शब्दों में और किस अंदाज में पूछे गए. फिर भारत जैसे सवा अरब आबादी वाले देश के लिए इतने छोटे से सैंपल के आधार पर निष्कर्ष निकालना आसान नहीं है. यूं पीयू अमेरिका का प्रतिष्ठित थिंक टैंक है, लेकिन ऐसे मामलों में अक्सर प्रतिष्ठित थिंक टैंक भी गलतियां करते देखे गए हैं.

मजबूत नेता की चाहत

क्या भारतीय एक मजबूत नेता चाहते हैं? अवश्य चाहते हैं. यदि न चाहते तो 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी लोकसभा में बहुमत प्राप्त करके प्रधानमंत्री न बने होते. दस वर्षों तक प्रधानमंत्री के पद पर काम करने के बाद मनमोहन सिंह की छवि एक कमजोर और पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी पर निर्भर रहने वाले नेता की बन गई थी. फिर वह जननेता न होकर अर्थशास्त्री यानि तकनीकी विशेषज्ञ थे. लेकिन उनका भी पहला कार्यकाल सफल माना गया क्योंकि जनता ऐसे मंत्रियों और प्रधानमंत्रियों से आजिज आ गई थी जिन्हें अपने मंत्रालय के मामलों के बारे में कोई जानकारी नहीं होती. मनमोहन सिंह की आलोचना उनके कमजोर प्रधानमंत्री होने के कारण होती थी, अर्थशास्त्री के रूप में सरकार की नीतियां बनाने में उनके योगदान की प्रशंसा ही की जाती थी. भारतीयों को सरकार में तकनीकी विशेषज्ञता से लैस व्यक्तियों के होने पर अक्सर कोई आपत्ति नहीं होती. अमेरिका में भी राष्ट्रपति के अलावा सभी मंत्री नामजद होते हैं और अक्सर टेक्नोक्रेट की श्रेणी से ही आते हैं. 

तानाशाही या लोकतंत्र

भारतीय एक मजबूत नेता चाहते हैं, तो क्या वे सैनिक शासक या नागरिक तानाशाह की बाट जोह रहे हैं? भारतीयों की मानसिकता और पिछले दशकों के राजनीतिक इतिहास को देखते हुए इसे मानना बहुत कठिन है. पिछले सात दशकों से भारत में संसदीय प्रणाली पर आधारित लोकतंत्र है जिसमें सभी वयस्कों को वोट देने का अधिकार मिला हुआ है. अब गांव का अनपढ़ किसान भी अपने इस अधिकार के महत्व को पहचानता है क्योंकि उसे पता है कि इसका इस्तेमाल करके वह सरकारें पलट सकता है. और उसने कई बार पलटी भी हैं. इंदिरा गांधी की सिर्फ डेढ़ साल चली इमरजेंसी को लोग 42 साल बाद भी नहीं भूले हैं. वे अपने वोट के आधार पर चुनी हुई सरकारों से चाहे जितना भी असंतुष्ट हों, लेकिन वे अपने लोकतांत्रिक अधिकारों को तिलांजलि देकर किसी तानाशाह के शासन को स्वीकार नहीं करेंगे. भारत के लोकतंत्र में अनेक कमियां और कमजोरियां हैं, लेकिन इसके बावजूद वह पिछले सात दशकों से चल रहा है और अपनी जड़ें जमा चुका है. अब उसे हिलाना इतना आसान नहीं.

"कमल का फूल, हमारी भूल"

मई के बाद एक और बड़ी घटना हुई है और वह है जीएसटी प्रणाली का लागू होना. इस नई प्रणाली से काफी लोग परेशान हैं. पीयू सर्वे मई में खत्म हो गया था. इसलिए यदि उसके इस निष्कर्ष को मान भी लें कि 85 प्रतिशत भारतीय सरकार के कामकाज से खुश हैं, तो भी अब अक्तूबर में यह कहना बहुत कठिन है कि आज भी इतने ही भारतीय सरकार के कामकाज से खुश होंगे क्योंकि नोटबंदी के तत्काल बाद लागू जीएसटी प्रणाली से छोटा और मंझोला व्यापारी इस कदर परेशान है कि बहुत बड़ी संख्या में व्यापारियों ने अपने कैश मेमो पर छपवा लिया है: "कमल का फूल, हमारी भूल". छात्रों का भी सरकार से मोहभंग होता नजर आ रहा है.

सर्वे का यह निष्कर्ष सही लगता है कि 50 साल से अधिक उम्र के लोग लोकतंत्र के प्रति अधिक चिंतित हैं क्योंकि उन्होंने या उनकी ठीक पहली पीढ़ी के लोगों ने देश में आजादी और लोकतंत्र लाने और उनकी जड़ें जमाने के लिए कोशिशें कीं जबकि युवा वर्ग के पास ऐसी कोई स्मृति नहीं है.