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हर हमले में घायल होता हूं मैं

विवेक कुमार२५ जुलाई २०१६

यूरोप में बढ़ते हमले हर उस रिफ्यूजी के लिए मुश्किल खड़ी कर रहे हैं जो अपनी रोजी रोटी कमाने आया है. लेकिन कसूर किसका है और सजा किसे मिले?

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Deutschland München nach dem Amoklauf Trauernde
तस्वीर: DW/D. Regev

जब म्यूनिख में अटैक की खबर आई तो भारत से कई मेसेज आए. मेरी खैरियत जानने के लिए. मेरा जवाब था, सब ठीक है. लेकिन सच बताऊं, सब ठीक नहीं था. मैं भी घायलों में शामिल था क्योंकि उस अटैक के फौरन बाद मेरी चमड़ी के रंग ने मेरे पूरे वजूद पर कब्जा कर लिया था. मुझे लग रहा था कि यहां के लोग मुझे नहीं देख रहे थे, मेरी त्वचा को देख रहे थे. उनके देखने में एक संदेह था. और नहीं भी था तो मुझे महसूस हो रहा था क्योंकि मेरा रंग हमलावर के रंग से मिलता था. हमारे बीच वो और हम की दीवार खड़ी हो गई थी. यह एक जख्म था. हर हमले के साथ यह जख्म गहरा होता जाता है.

यह यूनिवर्सल प्रक्रिया है. जब भी कहीं कोई घटना घटती है तो हमलावर के धर्म, जाति, रंग, देश को देखा ही जाता है. देखने वाले किसी भी धर्म, जाति, रंग या देश के क्यों न हों, वे तुरंत क्लासिफिकेशन करने लगते हैं. और क्लासिफिकेशन की यह पूरी प्रक्रिया साधारणीकरण की हद तक चली जाती है. मसलन, अब तक हुए ज्यादातर आत्मघाती हमलों में हमलावर मुसलमान हैं तो हर मुसलमान को शक की निगाहों से गुजरना ही पड़ता है. कट्टरपंथी तो यह भी कहते हैं कि आतंकवाद का एक ही धर्म है इस्लाम. वैसे तो पूरी दुनिया का ही यह हाल है लेकिन मैं भारतीय हूं इसलिए जानता हूं कि भारत में मुसलमानों को इस वजह से किस-किस तरह की बातें सुननी पड़ती हैं. मसलन, जब भी पुलिस किसी व्यक्ति को आतंकवादी संपर्कों से संदेह के आधार पर गिरफ्तार करती है, जो अक्सर मुसलमान होते हैं, तो खबर होती है, आतंकवादी गिरफ्तार. कुछ साल पहले जब यूपी के आजमगढ़ के कई लड़कों को आतंकी संपर्कों की वजह से गिरफ्तार किया गया तो आजमगढ़ के मुस्लिम लड़कों को दिल्ली में किराये पर कमरे मिलना बंद हो गया था. भारत में मैं तथाकथित उच्च जाति का हिंदू हूं तो यह सब झेलना नहीं पड़ता था. यूरोप में रहने पर पहली बार मैं मेज के इस तरफ हूं जब मुझे शक की निगाह से देखा जा सकता है. और इसकी वजह सिर्फ इतनी है कि जो जर्मनी में हाल में हुए हमलों में शामिल हैं, वे भी विदेशी थे मेरी तरह.

म्यूनिख हमले की तस्वीरें

अब सवाल यह है कि अगर कोई जर्मन सुरक्षाकर्मी म्यूजियम की एंट्री लाइन से अलग निकालकर मुझे अपना बैग खोल कर दिखाने को कहता है तो इसमें उसकी क्या गलती है. उसे कैसे पता होगा कि मैं विश्व को शांति का पाठ पढ़ाने वाले महान देश भारत से हूं, और मेरे धर्म के ठेकेदार कहते हैं कि यह दुनिया का सबसे महान धर्म है. उनके लिए तो मैं एक विदेशी हूं जिसके बैग में विस्फोटक हो सकता है. और वे गलत नहीं हैं क्योंकि सुरक्षा सुनिश्चित करना उनका काम है और अपने संदेह को दूर करना भी. और अलग दिखने वाले अक्सर संदेह के दायरे में होते हैं. फिर मैं किसी ऐसे देश से आया हूं जहां के समाज में हिंसा स्वीकार्य हो चुकी है. जहां सड़क चलते दो लोगों की लड़ाई हो जाए तो कत्ल हो जाते हैं. जहां कुछ लोग चार-छह लोगों को सरेआम इसलिए पीट डालते हैं कि वे मरी हुई गाय ले जा रहे थे. जहां भीड़ किसी के घर में घुसकर एक आदमी को इसलिए मार डालती है क्योंकि उसने कोई खास चीज खाई जो भीड़ को गवारा नहीं थी.

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पर अब मैं क्या करूं? हर हमला मुझे घायल करता है. मेरी छवि बदलता है. मुझे और ज्यादा विदेशी, और ज्यादा पराया बना देता है. मैं यहां की भाषा सीख सकता हूं, यहां का खाना-पीना अपना सकता हूं, यहां का पहनावा अपना सकता हूं. लेकिन अपनी त्वचा का रंग नहीं बदल सकता. मैं चाहूं तो विक्टिम कार्ड पर खेल सकता हूं कि देखो मेरे रंग के आधार पर मेरे साथ ऐसा हो रहा है. लेकिन क्या वह जायज होगा? सोचिए और मुझे बताइए.

ब्लॉगः विवेक कुमार