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भारत के लोगों पर दवाओं के टेस्ट, बिना नियम-कायदे

२८ दिसम्बर २०१६

अंतरराष्ट्रीय दवा कंपनियां काफी बड़ी संख्या में भारत में दवाओं का मानव परीक्षण करती हैं, नियम कायदे तोड़कर. इस कारण यूरोप में 700 दवाओँ पर बैन लगाया जा चुका है.

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Ebola-Impfung in Liberia 02.02.2015
तस्वीर: John Moore/Getty Images

वासुदेव प्रकाश मकैनिक का काम कर रहे थे जब उनके पास नए काम का ऑफर आया. ऑफर बहुत अच्छा था तो प्रकाश ने नौकरी छोड़ दी. उसके बाद वह क्लिनिकल ट्रायल्स में हिस्सा लेने लगे. दो साल में उन्होंने ठीकठाक पैसा कमाया है. उन्होंने एचआईवी/एड्स से लेकर हर तरह की बीमारियों के लिए बनाई जा रही जेनरिक दवाओं के परीक्षण में हिस्सा लिया है. वह कई अंतरराष्ट्रीय दवा कंपनियों के लिए काम कर चुके हैं. वह कॉन्ट्रैक्ट रिसर्च ऑर्गनाइजेशंस के लिए काम करते हैं. इन संस्थाओं से दुनिया की बड़ी बड़ी कंपनियां अपनी दवाओं के मानव-परीक्षण करवाती हैं. ये संस्थाएं प्रकाश जैसे लोगों पर इन दवाओं का परीक्षण करती हैं और बदले में उन्हें अच्छा पैसा देती हैं. लेकिन सब इतना साफ सुथरा नहीं है.

दवाओं के मानव-परीक्षण के लिए मानक तय हैं लेकिन प्रकाश के साथ हुए परीक्षणों में इन मानकों का कोई पालन नहीं हुआ. और प्रकाश इसकी परवाह भी नहीं करते. वह कहते हैं कि एक के बाद एक परीक्षणों में भी हिस्सा ले सकते हैं. कई बार तो इन परीक्षणों के बीच में कुछ दिनों का ही अंतर होता है जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक दो दवाओं के परीक्षण के बीच कम से कम 90 दिन का अंतर होना चाहिए.

समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने चेन्नै, हैदराबाद, बेंगलुरु और नई दिल्ली में दवाओं के परीक्षण में हिस्सा लेने वाले आधा दर्जन से ज्यादा लोगों से बात की. सभी ने बताया कि उन्होंने दो दवाओं के परीक्षणों में 90 दिन से भी कम का अंतर रखा. बीते तीन चार साल में वे कई कई महीने दूसरे शहरों में रहे, ताकि ज्यादा से ज्यादा परीक्षणों में हिस्सा ले सकें.

प्रकाश के पास ऐसे दस्तावेज मौजूद हैं जो दिखाते हैं कि उन पर बहुत कम अंतर में कनाडाई दवा कंपनी अपोटेक्स इंक, अमेरिकी कंपनी एक्टाविस, अमेरिकी कंपनी एथिक्स बायो लैब और भारत के सेलर रिसर्च सेंटर की दवाओं के परीक्षण किए गए. इस बारे में जब कंपनियों से पूछा गया तो अपोटेक्स और एथिक्स बायो ने तो कोई जवाब नहीं दिया जबकि एक्टाविस के लिए रिसर्च करने वाली लोटस लैब्स और सेमलर ने कहा कि उन्होंने ऐसी व्यवस्था बना रखी है कि ट्रायल में हिस्सा लेने वाले लोग एक साथ अलग अलग परीक्षणों में हिस्सा ना ले सकें.

वैसे भारत के अपने नियम भी हैं जिनके आधार पर दवाओं के मानव-परीक्षण होने चाहिए लेकिन वे यह स्पष्ट नहीं करते कि दो परीक्षणों के बीच कितना अंतर होना चाहिए. इस कारण गड़बड़ियां हो रही हैं. पिछले साल कुछ रिसर्च लैब्स जांच के घेरे में आ गईं जब यूरोप की मेडिसिन्स एजेंसी ने पूरे यूरोप में 700 दवाओं की बिक्री पर रोक लगा दी. जांच में पता चला था कि इन दवाओं का परीक्षण भारत में हुआ था और आंकड़ों से छेड़छाड़ की गई थी.

अंतरराष्ट्रीय दवा विशेषज्ञ कहते हैं कि एक के बाद एक परीक्षणों में हिस्सा लेने से वॉलन्टियर्स की सेहत खतरे में पड़ जाती है. इसका असर उन आंकड़ों पर भी पड़ता है, जो परीक्षणों में जमा किए जाते हैं. इन्हीं आंकड़ों के आधार पर दवा कंपनियां दवा बाजार में बेचनी की इजाजत मांगती हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन में प्रमुख इंस्पेक्टर स्टेफनी क्रॉफ्ट कहती हैं, "दो अलग-अलग परीक्षणों के बीच कम से कम 90 दिन का अंतर होना चाहिए. अगर ऐसा नहीं होता है तो मरीजों को गंभीर खतरा हो सकता है."

इस बारे में जब भारत के स्वास्थ्य मंत्रालय से बात करने की कोशिश की गई तो कोई जवाब नहीं मिला.

वीके/एके (रॉयटर्स)