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सामूहिक नकल पर नकेल की कोशिश

स्टीफन डेजे
१३ फ़रवरी २०१७

भारत में शिक्षा जगत के अब तक के सबसे बड़े घोटाले के रूप में कुख्यात व्यापमं मामले में सुप्रीम कोर्ट का ताज़ा आदेश सामूहिक अपराध के लिहाज़ से अहम है.

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Oberstes Gericht Delhi Indien
तस्वीर: picture-alliance/dpa

व्यापमं मामले की गंभीरता को अपराध की कई कोटियों से तय करते हुए अदालत ने छात्रों को राहत देने से इंकार किया है. यही इस मामले का खास पहलू है.    

दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश के व्यापमं घोटाले में मेडिकल शिक्षा के छात्रों का दाखिला रद्द करने से जुड़े एक मामले में अपना फैसला सुनाया है. इसलिए चीफ जस्टिस जेएस खेहर की अगुवाई वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ के इस आदेश को समूचे मामले का फैसला नहीं समझा जाना चाहिए.

इस मामले में अदालत ने किसी प्रतियोगी परीक्षा में सामूहिक नकल से जुड़े मुद्दे पर छात्रों को राहत देने से इंकार कर प्रतिवादी पक्ष की व्यापक हित की दलील को स्वीकार किया है. अपने तरह के इस अनूठे मामले में कोर्ट ने कानूनी पहलू के बजाय सामाजिक पक्ष को प्रश्रय देकर करियर के मामले में छात्रों को ढिलाई न बरतने देने का भी स्पष्ट सन्देश दिया है. 

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मामले के तथ्य

मध्य प्रदेश में विवादित व्यापमं परीक्षा में मेडिकल प्रवेश परीक्षा के 634 छात्रों को हाईकोर्ट ने सामूहिक नकल का दोषी ठहराते हुए इनके दाखिले को रद्द कर दिया था. पिछले साल सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की बैंच ने 268 छात्रों की याचिका पर दिलचस्प फैसला सुनाते हुए छात्रों को पांच साल तक सेना में या ग्रामीण इलाकों में सेवाएं देने को कहा था.

जस्टिस जे चेलामेश्वर ने छात्रों को राहत देते हुए कहा कि जनता के हितों को ध्यान में रखते हुए सभी 634 छात्रों को ग्रेजुएशन पूरा होने के बाद पांच साल तक भारतीय सेना के लिए बिना किसी वेतन के काम करना पड़ेगा. पांच साल पूरे होने पर ही उन्हें डिग्री दी जाएगी. इस दौरान उन्हें केवल गुजारा भत्ता दिया जाएगा.

वहीं जस्टिस अभय मनोहर सप्रे ने हाईकोर्ट के दाखिला रद्द करने के फैसले को बरकरार रखते हुये छात्रों की अपील को खारिज कर दिया. विसम्मत फैसले को देखते हुए मामले को तीन जजों की बेंच में भेजा गया. जस्टिस खेहर ने सामाजिक हित की पिछली दलील को नकारते हुए अपराध के समय छात्रों के नाबालिग होने के कारण राहत देने योग्य बताने की बात को नकार दिया.  

गौरतलब कि व्यापमं मे सामूहिक नकल की बात सामने आने पर 2008-2012 के छात्रों के बैच के एडमिशन रद्द कर दिए गए थे. इसके बाद सभी छात्रों ने कोर्ट से इस मामले में दखल देने की अपील की थी.

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सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ को यह तय करना था कि सामूहिक नकल के दोषी 634 छात्रों को राहत दी जाए या नहीं. कोर्ट ने इन सभी छात्रों को राहत देने से इंकार करते हुए हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा है. कोर्ट ने सामूहिक नकल के दोषी छात्रों के दाखिले रद्द कर छात्रों को भी घोटाले का भागीदार करार दिया है. 

दूरगामी परिणाम

इस फैसले के दूरगामी परिणाम होंगे. अदालत ने छात्रों को कानूनी आधार पर ही नहीं बल्कि भावनात्मक आधार पर भी कोई राहत के योग्य नहीं माना. इससे इतना तो साफ है कि देश भर में प्रतियोगी परीक्षाओं में नकल के बढ़ते चलन को देखते हुए कानून में नाबालिग को दोषी न मानने की विधिक मजबूरी को अदालत के इस फैसले से अस्वीकार्यता मिली है.

अब तक इस तरह के मामलों में छात्रों को कानून के शिकंजे में लेने की बजाय अभिभावक और शिक्षक ही जवाबदेही के दायरे में आते हैं. भारतीय दंड संहिता में नाबालिग को अपराध की श्रेणी से उन्मुक्ति देने की खिड़की इस फैसले से बंद हो सकेगी. साथ ही विधायिका को भी कानून की इस कमी को दुरुस्त करने का कोर्ट ने अवसर दिया है. बिहार बोर्ड परीक्षा में टॉपर छात्र की फर्जी परीक्षा से जुड़े मामले में भी छात्र की गिरफ़्तारी में हुई अनपेक्षित देरी भी कानून की इस कमी को उजागर करती है.