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विज्ञानविश्व

ये एआई टूल बताता है जानवरों ने कब क्या कहा

फ्रेड श्वालर
१२ जनवरी २०२४

जानवरों की आवाजों और उनकी आपसी बातचीत को समझने के लिए वैज्ञानिक, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल कर रहे हैं. इससे ये समझने में भी मदद मिल रही है कि इंसानी जबान इतनी भी खास नहीं है.

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क्या जानवर जो आवाजें निकालते हैं, उसका कुछ मतलब भी होता है?
तोता, इंसानी भाषा की नकल कर सकता है. लेकिन क्या पक्षियों-जानवरों की आवाजों का कोई मतलब भी होता है?तस्वीर: imageBROKER/picture alliance

कुदरत तरह-तरह की आवाजों से भरी है. अगर आप जंगल में किसी चट्टान पर बैठे हैं, पहाड़ के ऊपर या खेत में हैं, तो आमतौर पर आप कोई-न-कोई आवाज सुन ही लेंगे. जैसे कि कहीं कोई चर्रमर्र, कोई सरसराहट या चहचहाहट की आवाज.

बर्लिन जैसे कंक्रीट के शहर में भी झाड़ियों में छिपकर बैठी बदमाश गौरैयों के झुंड अक्सर मुझे चिल्लाने पर मजबूर कर देते हैं. या, हर साल मई में बर्लिन पहुंचने वाली बुलबुल की मीठी तान मुझे सुला देती है.

हम जानते हैं गायें अपने स्थानीय अंदाज में रंभाती हैं. बंदर ऐसी खास ध्वनियां निकालते हैं, जो उनके सामने आए खतरे से ही जुड़ी होती हैं. चूहे सेक्स के लिए गाते हैं और झींगुर चीखते हैं.

अब एक नई रिसर्च का दावा है कि स्पर्म व्हेलें जो आवाज निकालती हैं, उसमें क्लिक्स की ध्वनि, इंसानी बोली में स्वरों की तरह है. ऐसा लगता है कि स्पर्म व्हेलें ए-स्वरों और आई-स्वरों के पैटर्न में बातचीत करती हैं. जानवरों की ध्वनियों-आवाजों, खासकर पेचीदा संचार प्रणालियों का अध्ययन करने के लिए अब वैज्ञानिक एआई का इस्तेमाल करने लगे हैं.

पशु संचार के अध्ययन में एआई का उपयोग

हालिया सालों में जानवरों की बातचीत को लेकर हमारी समझ बढ़ी है. ये हुआ है आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) की बदौलत. इसकी मदद से शोधकर्ता कुछ ही सेकंड में जानवरों की आवाजों से बड़ी मात्रा में ऑडियो डेटा की समीक्षा कर पाते हैं. पहले इस काम में दशकों लग जाते.

अलग-अलग प्रजातियों की आवाजों का विश्लेषण करने के लिए सैकड़ों एआई टूल उपलब्ध हैं.

अमेरिका की वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी में न्यूरोसाइंटिस्ट केविन कॉफे ने डीपस्क्वीक नाम का एक टूल तैयार किया है, जो चूहे और गिरहरी जैसे रोडेंट स्तनधारियों की किटकिटाहट को डिकोड करता है.

डीपस्क्वीक, ऑडियो डेटा से इन जानवरों की आवाजें या ध्वनियां उठाता है. ऐसी ही खूबियों वाली दूसरी आवाजों से उनका मिलान करता है और उनके जरिए पशुओं के व्यवहार पर रोशनी डालता है.

कॉफे कहते हैं, "चूहे अल्ट्रासॉनिक आवाजें निकालते हैं. 50 किलोहर्ट्स वाली ऊंची लय की आवाजें हंसी जैसी मानी जाती है. लेकिन अलग-अलग सकारात्मक स्थितियों में ऐसी आवाजों की बहुत सी किस्में मिलती हैं. जैसे कि खेल के दौरान, अंतरंगता में या नशे में."

चूहों में 22 किलोहर्ट्स वाली आवाजें भी होती हैं, जिनका इस्तेमाल वे नकारात्मक स्थितियों में करते हैं. मसलन, जब उन्हें दर्द महसूस हो रहा हो या वो बीमार हों. आवृत्तियों की मदद से कॉफे बता सकते हैं कि उनकी लैब के चूहे कब बुरा महसूस करते हैं.

इंसान इन आवाजों को नहीं सुन सकते क्योंकि वे इंसानों को सुनाई देने वाली आवृत्तियों की रेंज से बाहर होती हैं. लेकिन डीपस्क्वीक और दूसरे टूल उन्हें डिकोड करने में हमारी मदद कर सकते हैं.

2018 में पहली बार पेश किए गए डीपस्क्वीक का इस्तेमाल चूहों के सामाजिक व्यवहार, ड्रग इस्तेमाल, ऑटिज्म आदि में किया जाता रहा है. इसे डॉल्फिनों, बंदरों और पक्षियों की आवाजों के लिए भी इस्तेमाल के लायक बनाया गया है.

कॉफे कहते हैं कि अल्ट्रासॉनिक वोकलाइजेशन (यूएसवी) स्पेक्टोग्राम का इस्तेमाल हाथों से किया जाता था, लेकिन एआई टूल्स की मदद से प्रक्रिया स्वचालित हो गई है. इससे समय बच जाता है, लेकिन ये तय इंसान ही करेंगे कि किसी जीव की आवाज के मायने क्या हैं.

कॉफे कहते हैं, "एआई और डीप-लर्निग टूल्स जादू नहीं हैं. वो देखते-ही-देखते जानवरों की तमाम आवाजों का अंग्रेजी में अनुवाद नहीं कर देंगे. जीवविज्ञानी कड़ी मेहनत कर रहे हैं, बहुत सारी स्थितियों के बीच पशुओं का निरीक्षण करते हैं. उनकी आवाजों को उनके व्यवहारों, भावनाओं आदि से जोड़ने की कोशिश करते हैं."

क्या जानवरों की भाषा होती है?

बातचीत या भाषा, जानकारी पहुंचाने का जरिया है. तमाम जानवर किसी-न-किसी रूप में दूसरों तक अपनी बात पहुंचाते हैं. वो महक, देह की गंध, व्यवहार या फिर आवाज के माध्यम से ऐसा करते हैं.

लेकिन जानवरों की भाषाओं पर विवाद है. इसकी वजह कुछ तो भाषा को लेकर इंसानों का नजरिया और उनके लिए भाषा के इस्तेमाल का मतलब है. जहां तक हम जानते हैं, जानवरों के पास भी भाषा के रूप होते हैं. लेकिन स्पर्म व्हेलों का संवाद या बंदरों की सांकेतिक भाषा, इंसानी भाषा की संपन्नता के आस-पास कहीं नहीं ठहरते.

ब्लू व्हेल
व्हेल अपनी आवाज से एक-दूसरे तक अपनी बात पहुंचा सकते हैं, लेकिन शोधकर्ता इन आवाजों को इंसानी भाषा जैसा नहीं मानते हैं. तस्वीर: Tui De Roy/Nature Picture LibraryIMAGO

कॉफे कहते हैं कि भाषा, बातचीत के लिए विशेष तौर पर एक उच्चीकृत टूलकिट है, जो मनुष्यों के लिहाज से अनूठी है. मानवविज्ञानी कहते हैं कि भाषा मनुष्यों की विशेषता इसलिए है कि उसमें सांस्कृतिक विश्वासों, संबंधों और पहचानों को बनाने और बनाए रखने की क्षमता होती है.

मानव भाषा हमें अपने अंदरूनी विचारों और भावनाओं को अभिव्यक्त करने में भी मदद करती है, ताकि दूसरे इंसान इसे समझ सकें. हमें लगता है कि दूसरे जानवर अपनी आवाजों और हरकतों से ऐसा कर पाने में असमर्थ हैं. कुछ सिद्धांत तो यहां तक कहते हैं कि मनुष्य चेतना, उसकी भाषायी क्षमता के साथ-साथ विकसित हुई थी.

कॉफे कहते हैं, "लोग बहस करते हैं कि भाषा ठीक-ठीक किस रूप में परिभाषित की जा सकती है और जानवरों की बातचीत के कुछ तत्व क्या इंसानी भाषा से मिलते-जुलते हो सकते हैं. जिन चूहों का हमने अध्ययन किया, वो निश्चित ही काफी सामाजिक और संचारशील हैं. उनकी निकाली ध्वनियां काफी अलग-अलग हैं और उनमें कई तरह की सूचनाएं मिलती हैं, लेकिन फिर भी मैं उन्हें भाषा नहीं मानूंगा."

मानवीकरण से सावधान

ऑस्ट्रिया के दार्शनकि लुडविग विटगेनश्टाइन के हवाले से एक कथन काफी मशहूर है कि उनके शब्दों में अर्थ है, लेकिन तोते के शब्दों में नहीं. कहने का मतलब ये कि इंसान जब कुछ कहते हैं, तो उसमें मायने भी होते हैं.

ये तर्क सही है या गलत, इससे अलग हम अर्थ के विचार पर फोकस करते हैं. क्योंकि कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि तात्पर्य के इसी विचार की बदौलत वैज्ञानिक और गैर-वैज्ञानिक, दूसरे जानवरों के चिचियाने-किकियाने में अपने-अपने अर्थ भर देते हैं. जैसे, बर्लिन में वैज्ञानिकों ने पाया कि जब चूहों को गुदगुदी की जाती थी, तो वो "हंसते" थे. ऐसे में टिप्पणीकारों ने कह दिया कि चूहों में हास्य-बोध होता है.

लेकिन वैज्ञानिकों ने इस पर अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि चूहों के चिचियाने को मजाक या हंसी बताना, दरअसल जानवरों के मानवीकरण का मामला है. मतलब, जानवरों को या रोबोट जैसी चीजों को इंसानी मायना देने और इंसानी नजरिये से देखने की हमारी प्रवृत्ति.

हमें ये कैसे पता कि गुदगुदी को चूहों ने मजाक माना? हम नहीं जानते. हम चूहे का दिमाग नहीं पढ़ सकते. लेकिन दूसरे जानकारों की दलील है कि हम अक्सर जानवरों की क्षमताओं को कम आंकते हैं. नतीजतन हम ऐसे कई सारे अध्ययन देखने लगे हैं जो बड़ी "नायाब" खोजों का दावा करते हैं. जैसे कि दर्द महसूस करती मछलियां, बुद्धिमान ऑक्टोपस या हंसते चूहे.

हो सकता है हम जानवरों के अध्ययन में बेहतर हो रहे हों या फिर बस उनकी इंसानों जैसी क्षमताओं को स्वीकार करने के लिए ज्यादा इच्छुक हो रहे हों. किसी पालतु जीव के मालिक के लिए ये कोई हैरानी की बात नहीं होगी, जो आपको बताएंगे कि वो ठीक-ठीक जानते हैं उनका कुत्ता कब उदास हो जाता है.

बहुत से तोता पालने वाले लोग आपको बताएंगे कि दार्शनिक विटगेनश्टाइन गलत थे. वे कहेंगे कि तोते की आवाज का मतलब हो सकता है, वो भूखा या दर्द में हो सकता है.

शुरुआती 20वीं सदी में विटगेनश्टाइन के लेखन के बाद से विज्ञान बहुत तरक्की कर चुका है. कॉफे कहते हैं कि मानवीकरण कुछ स्तरों पर अच्छा है क्योंकि इससे लोग जानवरों की दुनिया से जुड़ पाते हैं.

क्या इंसानों जैसी हो जाएंगी एआई मशीनें

जानवरों को सुनना जरूरी क्यों?

जीवों की बातचीत को समझना मानव जिज्ञासा से काफी आगे की बात है. कॉफे मानते हैं कि एआई से उन जानवरों को फायदा होगा, जिनसे हम रोज मिलते हैं. कॉफे कहते हैं, "मेरे लिए निजी तौर पर बात यह है कि मैं प्रयोगशाला के जानवरों की जिंदगी सुधारना चाहूंगा और न्यूरोसाइंस में अनुवाद हो पाने वाली खोजों की दर में सुधार कर पाऊंगा. लैब के चूहों की बातचीत को समझना इस पहेली का एक हिस्सा है."

दूसरे वैज्ञानिक और संगठन वन्यजीवों की जैव विविधता की निगरानी के लिए एआई का इस्तेमाल करते हैं. जर्मनी की वुर्सबुर्ग यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने वर्षावन के ध्वनिमंडल को रिकॉर्ड करने के लिए माइक्रोफोन का इस्तेमाल कर जानवरों की आवाजों का विश्लेषण किया. उनमें कीट-पतंगे, पक्षी शामिल थे.

जैव विविधता को मॉनीटर करने के लिए भी अर्थ स्पीशीज प्रोजेक्ट (ईएसपी) एआई का इस्तेमाल कर रहा है. उसने अपनी वेबसाइट पर लिखा है, "गैर-इंसानी भाषाओं की समझ बाकी प्रकृति के साथ हमारे रिश्ते बदल देगी." उनका इरादा है, एआई की मदद से जानवरों की बातचीत को और गहराई से समझना. दूसरी जीवित प्रजातियों के साथ संपर्क बनाना और उनकी हिफाजत करना.