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इंसान के लिए जानवरों की जान लेता विज्ञान

२ फ़रवरी २०१८

जर्मन कार कंपनियों की ओर से बंदरों पर धुएं के परीक्षण को लेकर लोगों में काफी नाराजगी है. लेकिन यह भी सच है कि दवा और दूसरे उद्योग भी इस तरह के परीक्षण करते हैं जो आम बात है. वैज्ञानिक इन दोनों में क्या फर्क देखते हैं?

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Tierversuche
तस्वीर: picture alliance/blickwinkel/J. S. Peifer

ब्रेन इम्प्लांट वाले बंदर या फिर सलाखों के पीछे खून से लथपथ पड़े बंदरों की तस्वीरें देख कर किसी का भी दिल दहल जाता है और फिर प्रयोगों में बंदरों के इस्तेमाल पर बहस शुरू हो जाती है. फिलहाल जर्मन कार कंपनियों फोक्सवागेन, डाइमलर और बीएमडब्ल्यू के बंदरों पर परीक्षण को लेकर बवाल मचा है. पता चला है कि इन कंपनियों ने प्रयोग के लिए 10 जावा बंदरों पर डीजल कारों से निकलने वाला धुआं छोड़ा था. 

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तस्वीर: picture-alliance/dpa/W. Grubitzsch

यह परीक्षण यह जानने के लिए था कि डीजल से निकलने वाले खतरनाक धुएं में आधुनिक फिल्टरों वाली तकनीक से कितना फायदा हुआ है. इसके तुरंत बाद ही यह सवाल भी उठने लगा कि विज्ञान बंदरों के साथ कैसा व्यवहार करता है. हाल के आंकड़े बताते हैं कि जर्मनी में 2016 के दौरान करीब 28 लाख जानवरों पर प्रयोग किया गया. जर्मनी के खाद्य और कृषि मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि इनमें 2460 बंदर और उनके परिवार के सदस्य भी शामिल हैं.

सबसे ज्यादा प्रयोग चूहों पर किए जाते हैं. इसके बाद मछली, मूषक, खरगोश और चिड़ियों का नंबर आता है. बंदरों का प्रयोग थोड़ा कम होता है लेकिन पशु अधिकारों के लिए काम करने वाले लोग इसे कमजोर दलील मानते हैं. जर्मन एनीमल वेल्फेयर फेडरेशन के प्रवक्ता मारिउस तुएंते ने कहा है, "प्राइमेट अपने शरीर विज्ञान के लिहाज से काफी ज्यादा विकसित हैं, उनके सामाजिक संबंध थे और उन्हें प्रयोगों के नतीजे के लिए दूसरे जानवरों की तुलना में ज्यादा तकलीफ झेलनी पड़ी."

पशु अधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि आज भले ही फोक्सवागेन जैसी कंपनियों पर लोगों की नजर है लेकिन बंदर और दूसरे जानवर हर रोज इस तरह के संदिग्ध प्रयोगों को झेल रहे हैं जिसे सरकारों की भी मंजूरी मिली हुई है. कार्यकर्ता ऐसे प्रयोगों पर रोक लगाने की मांग कर रहे हैं लेकिन दूसरी तरफ वैज्ञानिकों का मानना है कि प्राइमेट समेत दूसरे जानवरों पर प्रयोग अभी भी जरूरी है, खासतौर से मेडिकल रिसर्च के लिए. गोयटिंगन के जर्मन प्राइमेट सेंटर में तंत्रिकाविज्ञानी श्टेफान ट्राये ने समाचार एजेंसी डीपीए से कहा, "यह हर किसी को साफ साफ समझ लेना चाहिए कि हमारी दवाओं की सुरक्षा जानवरों के साथ प्रयोगों पर कुछ हद तक आधारित है."

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तस्वीर: picture-alliance/dpa/P. Förster

ट्राये ने यह भी कहा कि जर्मनी के नैतिक मानक यह शर्त रखते हैं कि रिसर्चरों को उन जीवों का इस्तेमाल करना चाहिए जिन्हें सबसे कम नुकसान होता है. तो अगर एक चूहे पर प्रयोग से पर्याप्त जानकारी मिल सकती है तो बंदरों का इस्तेमाल बंद कर देना चाहिए. यूरोपीय संघ के निर्देशों के मुताबिक चिम्पैंजी जैसे वानरों पर प्रयोगों की मनाही है. जर्मनी के तंबाकू उद्योग में खरगोश पर परीक्षण की मनाही है. इसी तरह से जानवरों पर सौंदर्य प्रसाधनों का परीक्षण करने पर भी रोक है.

जर्मनी में रिसर्चरों को जानवरों पर प्रयोग से पहले आवेदन देना होता है जिसका ब्यौरा संबंधित सरकारी अधिकारी जांचते हैं. इनमें यह देखा जाता है कि प्रयोग कितना जरूरी है और नैतिक रूप से कितना सही. अधिकारी इसके लिए पशु कल्याण आयोग की रिपोर्ट पर भरोसा करते हैं. इस आयोग में पशु चिकित्सक, डॉक्टर, वैज्ञानिक और पशु संरक्षक हैं. बीते सालों में बहुत से प्रयोगों की अनुमति नहीं दी गई. हालांकि इन सब के बावजूद बड़ी संख्या में जानवरों की जान विज्ञान के प्रयोगों में जाती है.

एनआर/एमजे (डीपीए)