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इराक: मलबे के ढेर में अलसाती उम्मीदें

अशोक कुमार
१० अक्टूबर २०१८

इराक का नाम आते ही आज भी सबसे पहले दिमाग में सद्दाम हुसैन का नाम आता है. तानाशाह सद्दाम के पतन को 15 साल हो गए हैं, लेकिन देश आज भी वहीं खड़ा है. तबाह और बर्बाद. हाल में वहां नई सरकार बनी है पर चुनौतियां वही पुरानी हैं.

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Etappen des Irakkrieges Gestürzte Saddam-Statue
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo

संसदीय चुनावों के पांच महीने बाद इराक को नई सरकार नसीब हुई है, जिसमें प्रधानमंत्री पद अब्दुल महदी ने संभाला है. महदी शिया समुदाय के हैं और इससे पहले इराक के पूर्व उपराष्ट्रपति और तेल मंत्री रह चुके हैं.

2003 में सद्दाम हुसैन की सत्ता खत्म होने के बाद इराक में हुए सत्ता साझेदारी समझौते के तहत प्रधानमंत्री पद पर हमेशा बहुसंख्यक शिया समुदाय का व्यक्ति ही होगा जबकि संसद का स्पीकर सुन्नी होगा. इस डील के मुताबिक इराक के राष्ट्रपति पद पर कुर्द समुदाय का हक है.

महदी एक आजाद उम्मीदवार हैं, लेकिन उन्हें चुनावों में सबसे ज्यादा वोट हासिल करने वाले दो प्रतिद्वंद्वी धड़ों का समर्थन प्राप्त है. जाहिर है महदी को इन दोनों ही धड़ों के हितों का ख्याल रखना होगा. लेकिन वह कुर्दों और सुन्नी अरबों की मांगों को भी अनदेखा नहीं कर सकते. इसलिए महदी के लिए प्रधानमंत्री पद काटों के ताज से कम नहीं है.

Irak neuer Präsident Barham Salih (R) und Premierminister Adel Abdul Mahdi
इराक के नए प्रधानमंत्री अब्दुल महदी (बाएं) और राष्ट्रपति बरहाम सालिह (दाएं)तस्वीर: REUTERS

बहरहाल, महदी के लिए सबसे पहली चुनौती तो सरकार के गठन की है, जिसके लिए उन्हें राष्ट्रपति बरहाम सालेह से एक नवंबर तक का समय मिला है. दिलचस्प बात यह है कि वह अपना मंत्रिमंडल इस तरह तैयार करना चाहते हैं जैसे कोई कंपनी में स्टाफ की भर्ती करता है.

इसके लिए उन्होंने एक वेबसाइट बनाई और ऐसे लोगों से मंत्री पदों के लिए आवेदन करने को कहा है जो अपने आपको काबिल समझते हों. जाहिर है उन्हें नियुक्ति की कड़ी प्रक्रिया से गुजरना होगा.  

कैबिनेट गठन के बाद कहीं बड़ी चुनौती महदी का इंतजार कर रही है. चार साल की भीषण लड़ाई के बाद इराक ने इस्लामिक स्टेट को लगभग खत्म कर दिया है. लेकिन इस दौरान देश के कई बड़े शहर मलबे के ढेर में तब्दील हो चुके हैं.

तबाही का यह आलम है कि इस्लामिक स्टेट के आखिरी ठिकाने रहे मोसूल शहर में दजला नदी के पश्चिमी किनारे पर चार किलोमीटर लंबी और डेढ़ किलोमीटर चौड़ी पट्टी में शायद ही कोई ऐसा घर मकान हो जो सलामत है. तीस लाख से ज्यादा लोग बेघर हैं. अर्थव्यवस्था ठप है और देश को फिर से खड़ा करने के लिए अमीर और ताकतवर देशों की तरफ ताकने के अलावा कोई चारा नहीं है.

इराक मध्य पूर्व के उन देशों में से एक है जिन्होंने पिछले 50 साल के दौरान सबसे ज्यादा उथल पुथल देखी. शिया बहुल देश इराक में सुन्नी तानाशाह सद्दाम हुसैन ने 1979 में सत्ता संभाली थी और डंडे के जोर पर लगभग 25 साल तक एकछत्र राज किया. 1980 से लेकर 1988 तक सद्दाम ने ईरान से जंग लड़ी. इसके दो साल बाद इराक ने कुवैत पर हमला कर उस पर कब्जा कर लिया. यहीं से दूसरा खाड़ी युद्ध शुरू हुआ जिसमें इराक के सामने अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और सऊदी अरब जैसे ताकतवर देश थे.

सात महीने बाद यह लड़ाई तो खत्म हो गई, लेकिन अमेरिका और सद्दाम की रंजिश बनी रही. इराक पर 2003 में अमेरिका का हमला शायद इसी रंजिश का नतीजा था, क्योंकि जिन व्यापक विनाश के हथियारों को आधार बना कर हमला किया गया, वे तो आज तक नहीं मिले हैं.

इराक में सद्दाम की सत्ता को खत्म हुए डेढ़ दशक बीत गया है. लेकिन इन पंद्रह सालों में इराक को चैन की सांस नसीब नहीं हुई. आतंक के साए लगातार उस पर मंडराते रहे. कभी अल कायदा के रूप में तो कभी इस्लामिक स्टेट के रूप में. और इसकी कीमत चुकानी पड़ी इराक की जनता को. इराकी लोगों ने कभी अमेरिकी लड़ाकू विमानों से गिरने वाले बमों और मिसाइलों को झेला तो कभी वे इस्लामिक स्टेट के गुलाम बने.

चूंकि इस्लामिक स्टेट एक सुन्नी चरमपंथी गुट है, तो बीते चार साल के दौरान उसके खिलाफ लड़ाई में सबसे ज्यादा तबाही भी सुन्नी इलाकों ने ही झेली. शिया बहुल इराक में सुन्नी अकसर अपनी अनदेखी और भेदभाव का आरोप लगाते हैं. अल कायदा और इस्लामिक स्टेट के उभार को भी कई बार इसी असंतोष से जोड़ कर देखा जाता है. अब इराक ने अल कायदा और इस्लामिक स्टेट की तो लगभग कमर तोड़ दी है, लेकिन सुन्नियों की जायज मांगों पर ध्यान नहीं दिया गया तो उनका असंतोष फिर किसी और रूप में फूटेगा.

अब्दुल महदी सुन्नियों के प्रति सहानुभूति जताते रहे हैं. उनके असंतोष की वजहों को भी वह जानते हैं. इसलिए शिया सुन्नी आधार पर बंटे इराक में महदी प्रधानमंत्री के रूप में दोनों समुदायों को साथ लाने में मददगार हो सकते हैं. लेकिन यह मुश्किल डगर है क्योंकि उनका प्रधानमंत्री पद दो शिया धड़ों के समर्थन पर टिका है.

बेशक उनके कंधों पर इराकी जनता की उम्मीदों का बोझ है. लेकिन सियासत की तल्ख हकीकतें अकसर ऐसी उम्मीदों पर भारी पड़ती हैं. शिया, सुन्नी और कुर्द जैसे खांचों में बंटे इराक की सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वह इन समुदायों के टकराव को अपनी कमजोरी नहीं, बल्कि इनकी विविधता को अपनी ताकत बनाए. आने वाले सालों में इराक किस तरफ जाएगा, इसकी पहली झलक महदी के कैबिनेट से मिलेगी.