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एग्जिट पोल की प्रामाणिकता कौन जांचेगा

शिवप्रसाद जोशी
२० मई २०१९

एग्जिट पोल के औचित्य और प्रासंगिकता पर एक बार फिर सवाल उठने लगे हैं. चुनाव पश्चात के सर्वेक्षण क्या वाकई जनमत को रिफलेक्ट करते हैं या ये सिर्फ एक गणितीय एक्सरसाइज होती है जिसकी मापन विधियों पर भी सवाल हैं.

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Double von Politikern NEW DELHI INDIA Lookalikes von Baba Ram Dev und Narendra Modi
लोकसभा चुनाव के प्रचार अभियान के दौरान लोगों के बीच नरेंद्र मोदी और बाबा रामदेव के डुप्लीकेट .तस्वीर: imago/Hindustan Times

भारत के लोकसभा चुनावों के समापन पर करीब दो दर्जन एग्जिट पोल सामने आए हैं. इनके अलावा विभिन्न अन्य एजेंसियों, स्वतंत्र संगठनों और राजनीतिक दलों के छाया संगठनों के अपने अपने निजी सर्वे भी हैं. कुल मिलाकर टीवी पर आने वाले एग्जिट पोल ही दर्शकों और राजनीतिक दलों और उनके समर्थकों में रोमांच का विषय बनते हैं. 2019 चुनावों के तमाम एग्जिट पोल में एक बार फिर बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए को बहुमत दिखाया जा रहा है. कांग्रेस की अगुवाई वाला यूपीए सत्ता की रेस में बहुत पीछे बताया गया है. एसपी-बीएसपी के गठबंधन से लेकर बिहार में कांग्रेस-आरजेडी गठबंधन, या आंध्रप्रदेश में चंद्रबाबू नायडू को और बंगाल में तृणमूल को भी झटका लगता हुआ दिख रहा है. यूं तो विपक्षी दलों का अपने खिलाफ आ रहे सर्वेक्षण के नतीजों से इनकार कर देना स्वाभाविक है लेकिन तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी जैसे नेता भी हैं जो खुलकर न सिर्फ इन एग्जिट पोल को खारिज कर रहे हैं बल्कि सभी विपक्षी दलों को एकजुट और साहसी बने रहने की अपील भी कर रहे हैं. हालांकि बीजेपी और उसके समर्थकों का आरोप है कि विपक्षी दल संभावित हार से खीझे हुए हैं.

लेकिन ये भी एक सच्चाई है कि चुनावों पर गहरी नजर रखने वाले स्वतंत्र राजनीतिक पर्यवेक्षक और विश्लेषक भी हैं जो मानते हैं कि एग्जिट पोल पर निर्णायक रूप से फौरन कुछ देना जल्दबाजी होगी. लिहाजा 23 मई के इंतजार की भी बात की जा रही है, जब चुनावी नतीजे घोषित किए जाएंगें. लेकिन जिस तरह से बीजेपी और प्रधानमंत्री मोदी के पक्ष में पहले जो लहर नहीं दिख रही थी वो अचानक एग्जिट पोल आते आते कैसे लहर बना दी गई - ये सवाल भी उठने लगे हैं. इसी से जुड़ा सवाल ये भी है कि क्या ऐसे सर्वेक्षणों के कुछ राजनीतिक निहितार्थ भी हो सकते हैं या नहीं. क्योंकि ये भी पाया गया कि एग्जिट पोल जारी करने के दौरान कुछ एजेंसियों के आंकड़े भी घटते बढ़ते हुए दिखाए गए हैं. कुछ एग्जिट पोल में प्रविधि की त्रुटियां भी चिन्हित की गई हैं. और तो और चुनाव पश्चात के सर्वेक्षणों का ये नतीजा आखिर कितने प्रतिशत वोटरों से मिलकर बना है.

Wahlen in Indien
पहले चरण के दौरान पश्चिम बंगाल में मतदान के लिए कतार में खड़े लोग.तस्वीर: Reuters/R. De Chowdhuri

आमतौर पर कहा जाता है कि वोट देकर बाहर निकलने वाले मतदाताओं से एजेंसियों के वॉलंटियर सवाल पूछते हैं और उनके आधार पर ये पता लगाया जाता है कि कितने प्रतिशत मतदाताओं ने किस पार्टी के निशान के सामने बटन दबाया होगा. वे कौन से मतदाता होते हैं जिन्हें पूछने के लिए रोका जाता है, क्या ये रैंडम सैंपल होता है. रैंडम सैंपल का भूगोल क्या है, किन इलाकों में सर्वेक्षण किया गया है, क्या वहां पहले से किसी खास पार्टी या उम्मीदवार का प्रभाव था या नहीं - और भी बहुत सारे फैक्टर हैं जो सर्वेक्षण में आने चाहिए. साइलेंट वोटर (प्रतिक्रिया न देने वाले खामोश मतदाता) जाहिर है इस सैंपलिग से बाहर है. और ऐसे कितने मतदाता होंगे - ये सैंपल के नमूनों से ही स्पष्ट हो जाता है. तो ऐसे में सर्वेक्षण के सटीक आकलन के दावे भी डगमगाते हुए से लगते हैं.

बेशक कुछ पहलुओं पर और खासकर सैंपलिंग के गणित पर ये सर्वेक्षण बारीकी से ध्यान देते हैं लेकिन अपने सवालों में किन फैक्टरों का ध्यान रखते हुए सैंपलिग करते हैं - ये स्पष्ट नहीं हो पाता है. आम दर्शक तो टीवी स्क्रीन पर आंकड़ों की बारिश देखता है और कुछ सनसनीखेज ग्राफिक्स जहां बहुमत और अल्पमत और हार-जीत की डुगडुगी बजती हुई दिखती है और पैनलिस्टों के तू-तू मैं-मैं के शोर में सब कुछ डूबा रहता है. इन सब में यही नहीं बताया जाता कि सैंपल कहां से हैं और किसी राजनीतिक दल या व्यक्ति से कितना प्रभावित है. भूगोल, रुचि और समर्थन के अलावा फिर ये कैसे तय किया जाएगा कि जो वो कह रहा है वही सही है - तो एग्जिट पोल का सारा का सारा दारोमदार इसी एक बात पर टिका है कि व्यक्ति को पूछे गये सवाल के जवाब में वो जो कहता है वो कितना प्रामाणिक और सही है. तो ये एक तरह से आखिरकार अनुमान और आभास का मिलाजुला संग्रह बनकर रह जाता है. कभी सही तो अधिकांश बार गलत. भारत के चुनावों को लेकर अधिकांश सर्वे का इतिहास तो यही बताता है.

इन एग्जिट पोल के व्यवसायिक निहितार्थ तो हैं ही, जानकारों को ये संदेह भी रहता है एग्जिट पोल एक खास राजनीतिक झुकाव वाले आंकड़े भी दे सकते हैं. और अगर ऐसा हो रहा है या होता हुआ दिखता है तो इसकी रोकथाम के उपाय क्या हैं. इस पर नियंत्रण कैसे पाया जा सकता है. क्या चुनाव आयोग की ऐसे मामलों में कोई भूमिका हो सकती है. उसने इतना तो जरूर कुछ वर्षों पहले कर दिया था कि एग्जिट पोल पूरी मतदान प्रक्रिया खत्म होने के बाद ही जारी किए जा सकते हैं, पहले नहीं. लेकिन ऐसा होते हुए भी ये क्यों नहीं माना जा सकता कि संभावित नतीजों से पहले एक सनसनी और राजनीतिक दबावों का वायुमंडल तैयार करने में भी ये एग्जिट पोल प्रछन्न भूमिका निभा सकते हैं. चुनाव आयोग की जैसी तीखी आलोचना और भर्त्सना इन चुनावों में हुई है, वैसा पहले कभी इस एजेंसी के साथ नहीं हुआ. तो ऐसे में एग्जिट पोल को लेकर उसके ऐक्शन की दिशा क्या होगी, कहना कठिन है.

और एक आखिरी बात, अगर ये सर्वेक्षण वास्तविक चुनावी नतीजों से मेल खाते हैं तो इनका बाजार और जरूरत तो और फले फूलेगी, दावों का डंका भी खूब जोर शोर से बजेगा. लेकिन अगर नतीजे उलट गए तो क्या होगा. क्या एग्जिट पोल अपनी चूक को स्वीकार करेंगे और ये बताएंगे कि उनसे कहां और कैसे चूक हुई या वे नये बाजारों और नयी सांख्यिकी का रुख करेंगे. 

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