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शिक्षा

एससी-एसटी जज मिलने में मुश्किल क्यों?

महेश झा
२४ जनवरी २०१९

वंचित तबकों को सरकारी नौकरियों में उचित प्रतिनिधित्व देने के लिए उन्हें पढ़ाई और प्रशिक्षण की जरूरी सुविधाएं देने और शिक्षा का स्तर सुधारने की जरूरत है.

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Oberster Gerichtshof Indien
फोटो सांकेतिक हैतस्वीर: picture-alliance/AP Photo/A. Qadri

केरल को 45 जजों की नियुक्ति करनी थी. 2700 उम्मीदवारों ने इसके लिए अर्जी दी थी. सामान्य श्रेणी में 31 उम्मीदवार तो मिल गए लेकिन 14 आरक्षित श्रेणी के लिए कोई उम्मीदवार परीक्षा पास नहीं कर पाया. प्रिलिमनरी परीक्षा पास करने के लिए 35 प्रतिशत और मेन पास करने के लिए 40 प्रतिशत की जरूरत थी.

सिर्फ तीन उम्मीदवार यह बाधा पार कर पाए लेकिन इंटरव्यू की बाधा कोई उम्मीदवार पार नहीं कर पाया. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने भी इस पर चिंता व्यक्त की है और उनकी तीन सदस्यों वाली बेंच ने प्रिलिमनरी पास करने की शर्त को 35 प्रतिशत से 30 प्रतिशत करने का सुझाव दिया है.

बहुत से लोग उम्मीदवारों के कानूनी ज्ञान के स्तर की बात करेंगे. और करनी भी चाहिए क्योंकि इस पर न्यायिक प्रक्रिया का स्तर भी निर्भर करेगा. सुप्रीम कोर्ट की चिंता वाजिब है कि केरल जैसे 94 प्रतिशत साक्षरता वाले राज्य में जज बनने के लिए आरक्षित सीटों के लिए 14 कानूनविद् नहीं मिले. अगर यही हाल रहा तो न्यायपालिका में वंचित वर्गों को प्रतिनिधित्व मिलने में सदियों लग जाएंगे. अगर स्थिति को बदलना है तो समस्या के मूल में जाना होगा.

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समस्या शिक्षा में सबकी भागीदारी और शिक्षा के स्तर की है. जिन लोगों के घरों में पढ़ने का माहौल नहीं रहा है उनके लिए शिक्षा की सीढ़ियां तय कर पाना आसान नहीं होता. इसीलिए संयुक्त राष्ट्र के टिकाऊ विकास लक्ष्यों में सभी लड़के और लड़कियों के लिए क्वालिटी विकास की सुविधा उपलब्ध कराने की बात है ताकि वे क्वालिटी प्राइमरी शिक्षा पाने के लिए तैयार हों. साक्षरता का लक्ष्य रखना काफी नहीं क्वालिटी शिक्षा का आधार भी रखना होगा. प्राइमरी शिक्षा पर ही माध्यमिक और उच्च शिक्षा की नींव रखी जाती है. अगर नींव ही कमजोर हो तो नौकरी के समय क्वालिटी की उम्मीद करना बेमानी है.

जर्मनी भी इस तरह की समस्या से जूझता रहा है और अभी भी जूझ रहा है. जर्मनी में यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले ऐसे छात्रों की तादाद उन छात्रों से तिगुनी है, जिनके माता पिता कभी यूनिवर्सिटी नहीं गए हैं. कामगारों और मजदूरों के बच्चों के लिए अफसर बनने के मौके कम होते हैं.

इस स्थिति से बाहर निकलने के लिए जर्मनी ने संघीय छात्रवृत्ति का रास्ता अख्तियार किया जो सामान्य जीवन चलाने के लिए पर्याप्त होता है लेकिन यह छात्रवृत्ति माता पिता की आय के आधार पर मिलती है. इस छात्रवृत्ति का आधा हिस्सा सरकारी लोन के रूप में मिलता है जिसे पढ़ाई समाप्त करने के पाँच साल बाद चुकाना पड़ता है. नियमित समय में पढ़ाई खत्म करने और चोटी के एक तिहाई पास करने वालों में शामिल होने पर तीस फीसदी कर्ज माफ कर दिया जाता है.

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इसी तरह सारा कर्ज एक बार चुका देने पर भी करीब 30 फीसदी माफ हो जाता है. यूं भी इस कर्ज की अदायगी 20 साल में हो सकती है और महीने में कम से कम 105 यूरो ही देना पड़ता है. इस कर्ज पर कोई ब्याज नहीं लगता.

इसके अलावा जर्मनी में मेधावी छात्रों को प्रोत्साहित करने के लिए राजनीतिक पार्टियों और विभिन्न संस्थाओं की और से 13 फाउंडेशन काम करते हैं. इनमें वामपंथी पार्टियों और ट्रेड यूनियनों के फाउंडेशन भी हैं जो कमजोर तबकों के छात्रों को प्रोत्साहित करते हैं.

वे अपनी संस्थाओं के लक्ष्य को मानने वाले मेधावी छात्र चुनते हैं और उन्हें सरकारी छात्रवृत्ति की तर्ज पर ही छात्रवृत्ति देते हैं. दिलचस्प बात ये है कि यह छात्रवृत्ति सिर्फ यूनिवर्सिटी में पढ़ने के दौरान नहीं दी जाती बल्कि हायर सेकंडरी के दो साल यानी प्लस टू करने के लिए भी दी जाती है. इस छात्रवृत्ति की मदद से ऐसे बच्चे भी पढ़ सकते हैं जिन्हें माता पिता की ओर से कोई सहारा नहीं है.

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जर्मनी की ताजा समस्या यहां आने वाले शरणार्थियों या विदेशियों के बच्चों को लेकर है, जो जर्मन नहीं जानने के कारण उच्च शिक्षा हासिल नहीं कर पाते और समाज में अपना स्थान नहीं बना पाते. बचपन में जर्मन भाषा में पारंगत नहीं हो पाने कारण वे पढ़ाई में पीछे छूटते जाते हैं और कभी न कभी प्रतिस्पर्धा की स्थिति में नहीं रहते.

इस स्थिति से निबटने के लिए जर्मनी में प्री स्कूल शिक्षा पर ध्यान दिया है और किंडरगार्टन की सुविधा को कानूनी तौर पर 3 से 6 साल के सभी बच्चों के लिए अनिवार्य कर दिया है. इसके जरिए स्कूल जाने वाले सभी बच्चों के ज्ञान का स्तर समान होने की उम्मीद है ताकि वे स्तरीय प्राथमिक शिक्षा हासिल कर सकें.

भारत में शिक्षा के स्तर को बेहतर बनाने के लिए प्री स्कूल शिक्षा और प्राथमिक शिक्षा पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है. माध्यमिक शिक्षा तो भारत में मुफ्त है लेकिन प्री स्कूल शिक्षा को भी मुफ्त और स्तरीय बनाने से समाज में शिक्षा के स्तर में विषमता को दूर किया जा सकता है.

कमजोर वर्ग के बच्चों को छात्रवृत्ति की सुविधा देकर और स्कूलों तथा यूनिवर्सिटियों में कमजोर बच्चों को अतिरिक्त प्रशिक्षण देने से उन्हें प्रतिस्पर्धी मुख्यधारा में लाया जा सकेगा. फिर केरल जैसी स्थिति नहीं आएगी जिसमें निचली अदालतों के लिए भी रिजर्व श्रेणी के अधिकारी नहीं मिलते. तब अगले बीस से तीस साल में हमें सुप्रीम कोर्ट में भी अनुसूचित जातियों और जनजातियों के न्यायाधीश दिखेंगे.

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