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कई सवाल खड़े कर गई डॉक्टरों की हड़ताल

प्रभाकर मणि तिवारी
२० जून २०१९

पश्चिम बंगाल से शुरु होकर एक सप्ताह में देश के तमाम हिस्सों में फैल गई डॉक्टरों की हड़ताल तो खत्म हो गई लेकिन अपने पीछे कैसे कैसे सवाल छोड़ गई है, इस पर एक नजर.

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Indien Streikende Ärzte im NRS-Krankenhaus von Kalkutta
तस्वीर: DW/P. Mani

भारत में हुई इस एक सप्ताह की डॉक्टरों की हड़ताल के दौरान हजारों मरीजों को हुई परेशानियों और दो दर्जन से ज्यादा मरीजों की मौत के बाद यह सवाल उठना लाजमी है कि डॉक्टरों की यह हड़ताल कितनी जायज थी और क्या दूसरे पेशों की तरह डॉक्टरों को हड़ताल करने का अधिकार है? साथ ही यह भी पूछा जा रहा है कि हिपोक्रेटिक शपथ लेने वाले डॉक्टरों ने हड़ताल के दौरान अपनी शपथ को भुला कर मरीजों को इलाज के अभाव में मरने क्यों दिया?

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की ओर से सुरक्षा का भरोसा देने और दूसरी मांगों पर विचार करने के बाद जूनियर डॉक्टरों की हड़ताल खत्म जरूर हो गई लेकिन यह सवाल अब भी अनुत्तरित है कि क्या यह समस्या का स्थायी समाधान है और आगे से ऐसी घटना की स्थिति में क्या डॉक्टर दोबारा हड़ताल पर नहीं जाएंगे ? मुख्यमंत्री के साथ बैठक में राज्य भर से जुटे जूनियर डॉक्टरों ने आधारभूत ढांचे की कमियों पर जो सवाल उठाए उससे बंगाल में स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली एक बार फिर सामने आ गई.

हड़ताल

बंगाल में हड़ताल की शुरुआत एक सप्ताह पहले उस समय हुई जब कोलकाता के एनआरएस मेडिकल कालेज और अस्पताल में एक मरीज की मौत के बाद उसके परिजनों ने जूनियर डॉक्टरों के साथ कथित रूप से मारपीट की. उसमें दो लोग घायल हो गए. उस घटना के विरोध में पहले एनआरएस के जूनियर डॉक्टरों ने काम ठप कर दिया. उसके बाद अगले दिन से बंगाल के तमाम सरकारी अस्पतालो में काम बंद हो गया. कोलकाता में मारपीट की ऐसी घटनाएं पहले भी होती रही हैं और उनके खिलाफ डॉक्टरों का आंदोलन भी. लेकिन पहली बार राज्य के तमाम सरकारी अस्पतालों के साथ-साथ ज्यादातर निजी अस्पतालों और निजी प्रैक्टिस करने वाले डॉक्टरों ने भी एनआरएस की घटना के विरोध में काम बंद कर दिया. नतीजतन राज्य में स्वास्थ्य सेवाएं पूरी तरह ठप हो गईं.

धीरे-धीरे यह आग देश के दूसरे हिस्सों में फैल गई और तमाम डॉक्टर और इंडियन मेडिकल एसोसिएशन इस हड़ताल के समर्थन में आगे आ गए. ममता की टिप्पणियों ने भी आंदोलन की आग में घी डालने का काम किया. उन्होंने आंदोलन में बाहरी लोगों के शामिल होने का आरोप लगाते हुए डॉक्टरों को दो घंटे के भीतर काम पर लौटने या सरकारी कार्रवाई का सामना करने की चेतावनी दे दी. इससे डॉक्टरों की नाराजगी बढ़ गई और वह ममता से माफी की मांग करने लगे. केंद्र सरकार ने भी इस मुद्दे पर बंगाल सरकार को एडवायजरी भेजी. इसके बाद ममता ने बीजेपी पर आंदोलन को उकसाने का आरोप लगा कर मामले को सियासी रंग दे दिया.

बैठक

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सोमवार हड़ताली डॉक्टरों के साथ बैठक में सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों की सुरक्षा के लिए एक दस-सूत्री सुरक्षा उपाय सुझाया ताकि मरीजों के परिजनों की ओर से होने वाले हमले की घटनाओं पर अंकुश लगाया जा सके. बैठक में ममता ने आंदोलनकारियों की तमाम समस्याओं और मांगों को ध्यान से सुना और कई मामलों में मौके पर ही संबंधित अधिकारियों को जरूरी निर्देश दिया. हड़ताली डॉक्टरों की मांग पर दो स्थानीय टीवी चैनलों को इस बैठक के लाइव प्रसारण की इजाजत दी गई थी. ममता ने डॉक्टरों की समस्याएं सुनने के बाद हर अस्पताल में डाक्टरों व मरीजों के परिजनों के बीच तालमेल के लिए एक जनसंपर्क अधिकारी नियुक्त करने और मरीजों के साथ आने वाले परिजनों की तादाद पर अंकुश लगाने का भी निर्देश दिया. उन्होंने कहा कि हर अस्पताल में सुरक्षा कर्मचारियों की तादाद बढ़ाई जाएगी और एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी मौके पर तैनात रहेगा. ममता ने हर अस्पताल में एक ग्रीवेंस सेल बनाने का निर्देश दिया ताकि मरीज और उसके परिजन कानून हाथ में लेने की बजाय वहां अपनी शिकायत दर्ज करा सकें. बैठक में अपनी तमाम मांगें पूरी होने के बाद जूनियर डॉक्टरों ने सोमवार रात को एक सप्ताह से जारी हड़ताल खत्म करने का एलान किया.

Indien Ärzte im NRS Krankenhaus in Kalkutta
हड़ताल खत्म करने के बाद संतोष जताते जूनियर डॉक्टर.तस्वीर: DW/P. Mani

हड़ताल का अधिकार

इस मामले के खत्म होने के बावजूद कई सवाल बाकी हैं. मसलन आगे फिर ऐसी मारपीट हुई तो क्या होगा. सबसे बड़ा सवाल डॉक्टरों के हड़ताल के अधिकार को लेकर उठ रहे हैं. वैसे, सुप्रीम कोर्ट इस मामले में पहले ही कई फैसले दे चुका है. शीर्ष अदालत एक मामले में कह चुका है कि चिकित्सा अधिकारी और सरकारी अस्पताल मानव जीवन को बचाने के कर्तव्य से बंधे हुए हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने छह मई, 1996 को पश्चिम बंगाल खेत मजदूर समिति बनाम पश्चिम बंगाल सरकार मामले में अपने फैसले में कहा था कि अगर किसी जरूरतमंद व्यक्ति को अगर सरकारी अस्पताल समय से इलाज मुहैया कराने में विफल रहता है तो यह संविधान के अनुच्छेद 21 का प्रत्येक व्यक्ति के जीवन के अधिकार की रक्षा की गारंटी का उल्लंघन है. ऐसे मामलों में तमाम अदालतें डॉक्टरों को उनके हिपोक्रेटिक शपथ की भी याद दिला चुकी हैं. बंगाल के मामले में भी एक जनहित याचिका के आधार पर कलकत्ता हाईकोर्ट ने डॉक्टरों को मरीजों की जान बचाने की उक्त शपथ की याद दिलाई थी. एडवोकेट सुनील सरकार कहते हैं, "कोई भी पीड़ित मरीज डॉक्टरों की हड़ताल की स्थिति में उनके खिलाफ मामला दायर करा सकता है.”

लेकिन चिकित्सा विशेषज्ञों की दलील है कि डॉक्टर भी आखिर हाड़-मांस के सामान्य इंसान ही हैं. उनको भी सुरक्षा की जरूरत है. एक वरिष्ठ डाक्टर सुकुमार सेन कहते हैं, "डॉक्टरों के कामकाज के लिए भयमुक्त माहौल बनाना जरूरी है ताकि वह लोग निडर होकर अपने पेशे पर ध्यान दे सकें.” वह कहते हैं कि कई बार आधारभूत सुविधाओं की कमी का खामियाजा भी खासकर जूनियर डॉक्टरों को ही भुगतना पड़ता है. ऐसे में अपनी सुरक्षा को लेकर उनकी चिंताएं जायज थीं.

बंगाल की सेहत कैसी

बंगाल में स्वास्थ्य क्षेत्र पहले से ही बदहाल है. हालांकि बैठक में ममता ने दावा किया कि वर्ष 2011 में इस क्षेत्र का बजट महज छह सौ करोड़ था जो अब बढ़ कर 9,600 करोड़ तक पहुंच गया है. उन्होंने माना कि सरकार के पास आधारभूत सुविधाओं की बेहतरी के लिए संसाधनों का अभाव है. ममता का कहना था कि सरकार को ग्रामीण इलाकों के अस्पतालों को लिए डॉक्टर व नर्स नहीं मिल रहे हैं. ऐसे में सरकारी अस्पतालों में काम करने वाले जूनियर डॉक्टरों पर भारी दबाव रहता है. रोजाना दूर-दराज से हजारों की तादाद में लोग बेहतर इलाज की आस में इन अस्पतालों में पहुंचते हैं.

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि दोनों पक्षों की बेवजह जिद के चलते ही यह हड़ताल लंबी खिंच गई. जो एक सप्ताह बाद हुआ वो पहले भी हो सकता था. इस वजह से हजारों मरीजों को भारी परेशानियों का सामना करना पड़ा और कई लोगों को असमय ही मौत के मुंह में समाना पड़ा. एक पर्यवेक्षक महेंद्र कुमार सिकदर कहते हैं, "अस्पतालों की बदहाली दूर करने के साथ ही मारपीट की घटनाओं पर अंकुश लगाना और इस बात का ध्यान रखना जरूरी है कि ऐसी घटनाओं के बाद हालात काबू से बाहर नहीं जा सकें.”

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