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कानून और न्याय

कब तक कानून की भाषा सिर्फ अंग्रेजी और हिंदी बनी रहेंगी?

महेश झा
१५ अगस्त २०२०

अगले साल 75वीं बार आजादी का जश्न मनाया जाएगा. भारत सरकार के पास एक साल का समय है कि वह सारे जरूरी कानूनों को सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद कर देश की जनता को असली आजादी का अहसास दे.

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Indien Oberster Gerichtshof in Neu Dehli
तस्वीर: picture-alliance/NurPhoto/N. Kachroo

इस हफ्ते सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने एक अहम बात कही है. वह बात भाषाओं के संबंध में है. मुख्य न्यायाधीश ने केंद्र सरकार को राजभाषा कानून में संशोधन पर विचार करने को कहा है. यह सुझाव इसलिए आया है कि भारत सरकार अभी भी कानूनों को सिर्फ अंग्रेजी और हिंदी में प्रकाशित करने की राय पर अड़ी है. आजादी के 73 साल बाद भी प्रांतों की भाषा को अभी भी उनका अधिकार नहीं मिला है. इन प्रांतों के बहुत से नागरिक हैं जो अब भी अंग्रेजी और हिंदी नहीं जानने के कारण कानूनों को समझने की स्थिति में नहीं हैं. लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हिस्सेदारी के लिए नियम कायदों को समझना और उन पर राय व्यक्त करना भी जरूरी है.

पिछले सात दशकों में दुनिया भर में बहुत परिवर्तन हुए हैं. राजनीतिक परिवर्तनों के अलावा राष्ट्रवाद और अस्मितावाद का उदय भी हुआ है. किसी भी देश की बहुलता को लोकतांत्रिक संरचना में समेटने के लिए उसकी खास बातों को समाहित करना जरूरी है. यूरोपीय संघ भारत के लिए एक उदाहरण हो सकता है, जहां सदस्य देशों की संप्रभुता को ध्यान में रखते हुए नियम कायदों को स्थानीय भाषाओं में भी प्रकाशित करने का चलन है. यूरोपीय संघ में 27 सदस्य देशों की भाषाओं के इस्तेमाल की संरचना का अध्ययन कर भारत खुद अपनी संरचना बना सकता है.

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सुप्रीम कोर्ट ने खुद अपने फैसलों को अंग्रेजी के अलावा दूसरी भारतीय भाषाओं में प्रकाशित करना शुरू किया है. यह एक स्वागतयोग्य कदम है. इससे न सिर्फ सुप्रीम कोर्ट के प्रति लोगों का सम्मान बढ़ेगा बल्कि अदालत के फैसले उनकी समझ में भी आएंगे. इसका एक फायदा स्वयं भाषाओं को भी होगा. एक ओर अनुवाद को प्रोत्साहन देने से भाषाओं का विकास होगा, जो आधुनिक तकनीकी दौर में अक्सर शब्दों के पीछे भागने को मजबूर हैं. दूसरी ओर यह जजों को भी ऐसी भाषा का इस्तेमाल करने को प्रेरित करेगा जो लोगों की समझ में आने लायक हो. इस समय अदालतों की भाषा समझने के लिए वकील होना बहुत जरूरी है.

लोकतांत्रिक प्रक्रिया में आम लोगों की भागीदारी के लिए भाषाओं की राष्ट्रीय मान्यता बहुत जरूरी है. संविधान के आठवें अनुच्छेद ने भाषाओं का चयन तो कर लिया है लेकिन उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता नहीं दी है. अगर भारत सरकार यह काम करती है तो औपनिवेशिक दिमागी ढांचे को तोड़ने में मदद मिलेगी. भाषा का विकास इलाकों के विकास में मदद करेगा. कानूनों का अनुवाद होने से रोजगार के नए अवसर खुलेंगे, राज्यों को एक दूसरों को समझने और उनसे सीखने का मौका मिलेगा. इसके लिए भविष्य में सिर्फ अंग्रेजी या हिंदी पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा.

जो काम कब का सरकारों को कर लेना चाहिए था, उसकी ओर सुप्रीम कोर्ट ने उसका ध्यान दिलाया है. इसमें अब देर नहीं की जानी चाहिए और अदालतों के फैसलों का भी इंतजार नहीं करना चाहिए. देश के नागरिकों की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए अपनी चुनी सरकार होती है. उसे इन आकांक्षाओं को पूरा करने का समयबद्ध कार्यक्रम बनाना चाहिए न कि हाथ पर हाथ धरे बैठकर इंतजार करना चाहिए. केंद्र सरकार के पास एक मौका है. आने वाली पीढ़ियां इस पर अमल के लिए उसकी आभारी रहेंगी.

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