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समाज

कश्मीर की हिजाब वाली फुटबॉल टीम

अपूर्वा अग्रवाल
१२ सितम्बर २०१८

ग्रेजुएशन कर रही शाइस्ता नहीं चाहती कि लोग उनके फुटबॉल खेलने पर सवाल उठाएं. इसलिए वह सिर पर हिजाब और पैरों में फुल स्लैक्स के साथ मैदान में उतरती हैं. कश्मीर में लड़कियां हिजाब पहनकर फुटबॉल खेल रही हैं.

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Kaschmir Fußballakademie - Frauen mit Kopfbedeckung
तस्वीर: DW/A. Agrawal

कश्मीर की खूबसूरती जहां हर साल लाखों सैलानियों को बुलाती है तो वहीं आतंकवाद, घुसपैठ जैसी समस्याएं भी इससे जुड़ी रहती हैं. मुस्लिम बहुल आबादी वाले कश्मीर की छाप एक रुढ़िवादी समाज के रूप में भी दुनिया के सामने है. लेकिन अब यहां की लड़कियां तमाम मुश्किलों और बंदिशों के बावजूद अपने अरमानों को पंख देने की कोशिशों में जुटी हैं. वो खेल की दुनिया में अपना नाम कमाना चाहती हैं.

लड़कियों के इसी जुझारूपन को बयान करता है उनका हिजाब, स्कार्फ के साथ सहज भाव से खेलना. ये युवा प्रतिभाएं कहती हैं कि कोई रोक-टोक न करे इसलिए वे हिजाब पहन कर खेलना ज्यादा पसंद करती हैं. हालांकि कुछ साल पहले तक इन लड़कियों के लिए फुटबॉल के मैदान पर आना आसान नहीं था.

जम्मू कश्मीर से निकली महिला फुटबॉल खिलाड़ी अफशां आशिक ने जैसे इन लड़कियों के लिए बाहर निकलने के रास्ते खोल दिए. अफशां जम्मू कश्मीर टीम की कप्तान और गोलकीपर रही हैं. इसके साथ ही अफशां ने कई मौकों पर इंडियन वूमन लीग के लिए भी खेला है. अफशां का नाम पत्थरबाजी में भी सामने आया था, लेकिन लड़कियों के लिए अफशां किसी प्रेरणा से कम नहीं हैं.

राज्य फुटबॉल एसोसिएशन (एसएफए) की टीम में खेलने वाली शाइस्ता कॉलेज में पढ़ती हैं और फुटबॉल में करियर बनाना चाहती हैं. उन्होंने बताया कि उनकी एसोसिएशन घाटी में स्पोर्ट्स को प्रोत्साहित करने के लिए अब बहुत कुछ कर रही है. शाइस्ता कहती हैं, "पहले मां-बाप को परेशानी होती थी, खेलने के लिए मना भी करते थे लेकिन जब से अफशां दीदी निकली तो घरवालों को लगा कि हम भी आगे जा सकते हैं.” हिजाब पहन कर खेलने पर ये लड़कियां मानती हैं कि अगर उन्हें अपना पूरा ध्यान खेल पर ही लगाना है तो उनके लिए हिजाब और स्लैक्स पहनकर खेलना अच्छा है. अगर वे ऐसा नहीं करेंगी तो लोग तमाम किस्म की बातें करेंगे.

इनकी कोच नादिया निख्त बताती हैं कि एसएफए ने लड़कियों के लिए फुटबॉल प्रोग्राम कुछ महीने पहले ही लॉन्च किया था. नादिया कहती है, "लड़कियों के साथ कई तरह की दिक्कतें महसूस होती हैं इसलिए, हमने नियम बनाया है कि लड़कियां यहां कवर के साथ खेलने आएं. हम नहीं चाहते कि लड़कियों के खेलने की वजह से यहां के लोगों को कुछ बुरा लगे, लोग यह न कहें कि यहां से कुछ गलत हो रहा है. इसलिए हमने लड़कियों को कहा है कि वह स्लैक्स और स्कार्फ या हिजाब में प्रैटिक्स करेंगी.” एकेडमी में करीब 40 लड़कियां आती हैं.

लड़कियों की फिटनेस और ट्रेनिंग दोनों ही ट्रेनर्स के लिए एक चुनौती है. नादिया कहती हैं, "पहले मां-बाप को मनाना पड़ता है. उन्हें सुरक्षा की चिंता सताती रहती है. उसके बाद सवाल उठता है इन्हें सिखाने का. लड़कियों को ज्यादा सिखाना पड़ता है क्योंकि उनके लिए यह पूरा माहौल ही नया होता है. लड़कियों की फिटनेस पर भी लड़कों के मुकाबले ज्यादा काम करना पड़ता है.”

नादिया ने बताया कि तनाव या कर्फ्यू वाले दिनों में ट्रेनिंग बंद हो जाती है, ऐसे में जब लड़कियां दोबारा प्रैटिक्स के लिए आती हैं तो सब कुछ शुरुआत से करना होता है. लद्दाख से आई एक ट्रेनर अपने अनुभव याद करते हुए कहती हैं कि कश्मीर में फुटबॉल आसान नहीं है. पहले जब वह खुद पैंट्स पहन कर ट्रैक पर जाती थीं लोग घूरते थे, "उन नजरों से शर्म महसूस होती थी, ये परेशानियां खिलाड़ियों के आत्मविश्वास पर हमला करती है."

अमूमन हर खिलाड़ी का कहना है कि उसे अन्य राज्यों के खिलाड़ियों के मुकाबले कम सुविधाएं मिलती हैं. लेकिन तमाम मुश्किलों और परेशानियों के बीच खिलाड़ियों और इनके परिवारों का उत्साह देखकर महसूस होता है कि बस कश्मीर अब एक और महिला फुटबॉलर का इंतजार कर रहा है.  

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