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किताब ने छेड़ी जैविक खेती पर बहस

२० सितम्बर २०११

क्या जैविक खेती से इतनी खाद्य सामग्री पैदा हो सकती है जिससे दुनिया भर का पेट भरा जा सके? जर्मनी के एक कृषि विशेषज्ञ की नई किताब में इस सवाल का जवाब हां है. लेकिन जर्मनी के विकास मंत्री इससे असहमत हैं.

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जैविक खेती ही भविष्य ?तस्वीर: AP

क्या जैविक खेती की मदद से दुनिया भर की भूख मिटाई जा सकती है. यह सवाल गरम बहस का एक विषय है. इसी मुद्दे पर जर्मनी में एक नई किताब आई है. किताब का नाम "फूड क्रैश- हम जैविक जीवनयापन कर पाएंगे या फिर बिल्कुल नहीं". किताब के लेखक फेलिक्स प्रिंस सू लौएवेनश्टाइन जर्मन जैविक खाद्य संघ के प्रमुख हैं.

Felix Prinz zu Löwenstein
किताब के लेखक सू लौएवेनश्टाइनतस्वीर: picture-alliance/ZB

जैसा कि किताब का शीर्षक संकेत देती है, यह किताब जैविक खेती का समर्थन करती है, जो कीटनाशक और रसायनिक खादों से मुक्त हो, और अनुवांशिक तरीके से तैयार बीजों के बिना की जाए. लंबी अवधि तक इस तरीके से दुनिया का पेट भरा जा सकता है. यह किताब उन दावों को खारिज करती है जो आधुनिक कृषि का समर्थन करते हैं और कहते हैं कि जैविक खेती के जरिए इतना खाद्य नहीं पैदा किया जा सकता जिससे बड़ी आबादी का पेट भरा जा सके.

जैविक खेती बनाम परंपरागत खेती

बर्लिन में अपनी किताब पेश करते हुए सू लौएवेनश्टाइन ने कहा, "तथ्य यह है कि पश्चिम के उच्च तीव्रता वाले खेत खासकर मध्य यूरोप में पारंपरिक खेती की तुलना में जैविक खेती में काफी कम पैदावार होती है." प्रशिक्षित कृषि वैज्ञानिक सू लौएवेनश्टाइन कहते हैं, “कम विकसित देशों में जहां सूखा और अकाल का नियमित प्रकोप होता है और जहां पारंपरिक कृषि प्रणाली उतना गहन नहीं होता है, जैविक खेती अक्सर बहुत अधिक उपजाऊ होती हैं.”

Mülltaucher holen ihr Essen aus Abfalltonnen
यूरोप में खाद्य सामाग्री की बर्बादीतस्वीर: picture alliance

अपनी बहस को मजबूती से रखने के लिए इस किताब में संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य एवं कृषि संगठन द्वारा किए गए एक अध्ययन का हवाला दिया गया है. इथियोपिया में विकास परियोजना के दौरान इस संगठन ने पाया कि जिन खेतों में प्राकृतिक खाद का इस्तेमाल हुआ है वहां पैदावर रासायनिक खाद के इस्तेमाल करने वाले खेतों से 40 फीसदी ज्यादा है.

किताब में सू लौएवेनश्टाइन लिखते हैं कि परियोजना की सफलता का कारण स्थानीय जानकारी के अलावा आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान भी है. फेलिक्स प्रिंस सू लौएवेनश्टाइन तीन साल हेती में विकास कार्यकर्ता के तौर पर बिता चुके हैं. वह यह भी कहते हैं कि गरीब देशों में पारंपरिक खेती करने वाले किसानों को मजबूरन महंगे खाद और कीटनाशक खरीदने पड़ते हैं.

बहस का मुद्दा जैविक खेती

Buchvorstellung des Buches Food Crash
जर्मनी के विकास मंत्री भी किताब लांच पर पहुंचेतस्वीर: DW

उनके मुताबिक सफलता की कुंजी एक उन्नत कृषि प्रणाली में है जिसमें बाहरी संसाधनों का कम इस्तेमाल हो और जो भारी मात्रा में धन के इस्तेमाल को रोकती हो.  वह कहते हैं कि इन सबके बदले किसानों को प्राकृतिक मिट्टी और पोषक तत्वों के बारे में जानकारी दी जानी चाहिए. उनके मुताबिक इस तरह से किसान वैश्विक बाजार में चढ़ते गिरते दामों पर कम निर्भर होंगे और अपनी फसल को अपने पास रख सकेंगे.

इस बहस का पर्यावरण से जुड़े लोग भी समर्थन करते हैं. जर्मन खाद्य निगरानी के टोबियास राइषर्ट डॉयचे वेले को बताते हैं, "जैविक खेती के बारे में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ये पारिस्थितिकी और आर्थिक लाभ का मेल है. यह मिट्टी की गुणवत्ता को बेहतर करती है. जैव-विविधता में मदद करती है और कार्बन डाइऑक्साइड जमा करती है जिससे कृषि का पर्यावरण पर भी कम प्रभाव पड़ता है.

किताब में लेखक लौएवेनश्टाइन दलील देते हैं कि दुनिया भर में भूख की वजह अनाज का कम उत्पादन नहीं है. लौएवेनश्टाइन कहते हैं, "यह खाद्य की मात्रा का मसला नहीं है. जब हम देखते हैं कि जिस चीज को हम पैदा करते हैं उसके साथ क्या कर रहे हैं. हमें पता चलता है कि हम जरूरत से ज्यादा पैदावार करते हैं. हम सिर्फ उन चीजों को बर्बाद कर रहे हैं." उनका इशारा पश्चिमी देशों की तरफ हैं जहां हर रोज खाद्य सामग्री को कचरे के डब्बे में फेंका जा रहा है.

लेकिन जर्मनी के विकास मंत्री डिर्क नीबल समेत अनेक आलोचक इस बात से सहमत नहीं है. विकास मंत्री डिर्क नीबल उदारवादी फ्री डेमोक्रैटिक पार्टी के नेता हैं. किताब के विमोचन पर उन्हें भी बुलाया गया था. इस मौके पर नीबल ने कहा, ”अकेले जैविक खेती से दुनिया में भूख की समस्या हल नहीं होगी. फिलहाल जैविक खेती बहुत महंगी और आंशिक रूप से अक्षम है.”

रिपोर्ट: सोनिया फालनीकर, अलेक्जांड्रा शेर्ले/आमिर अंसारी

संपादन: महेश झा

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