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समाज

कैसे हो जाते हैं बैंकों में हजारों करोड़ के घपले

९ मार्च २०१८

जहां किसान दो-चार लाख का कर्ज न चुका पाने पर बैंकों की वसूली प्रक्रिया से डर कर मौत को गले लगा लेता है, वहीं हजारों करोड़ लूटकर चंपत हो जाने वाला विदेशों में बैठकर खुद को शान से दिवालिया घोषित कराने में जुट जाता है.

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Indien Punjab National bank
तस्वीर: Getty Images/AFP/I. Mukherjee

बैंक धोखाधड़ी के नित नए और हैरतअंगेज मामले सामने आने से अगर किसी का भरोसा टूट रहा है, तो उस आम भारतीय का जिसका भरोसा खुद से ज्यादा अपने बैंक पर रहा है. यह बात अलग है कि सरकार ने नीरव मोदी की धोखाधड़ी के सामने आते ही एक कानून का हथियार तैयार कर लिया है, लेकिन उससे भी बड़ा सवाल यह कि क्या भारत में घोटालेबाजों की संपत्तियों को जब्त करने के बाद डूबा पैसा लौट पाएगा?

नीरव मोदी के मामले ने बैंकिंग सिस्टम की चूलें हिला कर रख दी हैं. यकीनन यह सवाल भी उठेंगे कि क्या एक मामूली सा डिप्टी मैनेजर रैंक का अधिकारी इतना बड़ा धोखा कर सकता है? शायद सभी कहेंगे, नहीं क्योंकि तमाम बैंकिंग सिस्टम यहां तक कि बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के होने के बावजूद सबसे अहम उस रिजर्व बैंक की निगरानी है जो कि सरकार की तरफ से सभी बैंकों पर न केवल कड़ी निगरानी और नियंत्रण रखता है, बल्कि गलत गतिविधियों को जांचने, रोकने और पकड़ने के लिए भी जवाबदेह है. फिर भी यह सब हो जाए, यकीनन व्यवस्थाओं की बड़ी चूक है जिसने भारत के पूरे बैंकिंग सिस्टम की साख और तौर-तरीकों पर बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है.

सबको पता है कि वित्तीय लेन-देन की कार्यप्रणाली विश्वास और भरोसे की होती है. भरोसा न टूटने के लिए निचले पायदान से ही शुरुआत की जरूरत होती है. लेकिन बैंकिंग धोखाधड़ी के इस बड़े खेल में ऐसा नहीं हुआ. यही कारण है कि सालों साल तक मामला ऊपर तक नहीं पहुंचा या यूं कहें कि पहुंचने नहीं दिया गया क्योंकि ट्रांजेक्शन रिस्क पर एक से अधिक बैंक के लोगों ने इंटरनल कंट्रोल की विफलता का फायदा उठाया.

चौंकाने वाली सच्चाई यह भी है कि अगस्त 2016 के बाद तीन मौकों पर बैंकों को स्विफ्ट प्रणाली के दुरुपयोग के लिए सतर्क किया गया था लेकिन बावजूद इसके, विभिन्न बैंकों ने चेतावनियों को अपने 'हिसाब' से लिया. शायद इसी 'हिसाब' में जोखिम था जिसका नतीजा नीरव मोदी और कुछ अन्य ने कर दिखाया. यह बात अलग है कि अब रिजर्व बैंक अपनी सफाई में कुछ भी कहे या चेतावनियों का हवाला दे लेकिन सांप तो निकल गया लकीर पीटने से क्या फायदा! रिजर्व बैंक की विज्ञप्तियों को देखें तो यही लगता है.

16 फरवरी की विज्ञप्ति में आरबीआई कहता है, "पीएनबी में जो धोखाधड़ी का मामला सामने आया है वह आंतरिक नियंत्रण प्रणाली की असफलता और उसके एक अथवा अधिक कर्मचारियों के दोषपूर्ण व्यवहार की वजह से उपजे संचालन जोखिम का मामला है." वहीं 20 फरवरी की विज्ञप्ति में रिजर्व बैंक ने कहा कि उसने स्विफ्ट प्रणाली के संभावित दुरुपयोग को लेकर अगस्त 2016 के बाद बैंकों को तीन बार सतर्क किया था.

गौरतलब है कि बैंकों में होने वाला कोई भी सामान्य लेनदेन सीबीएस सॉफ्टवेयर के जरिए होता है लेकिन इसी बीच इलाहाबाद बैंक की मुख्य कार्यकारी अधिकारी ऊषा अनंत सुब्रह्मण्यम ने कहा, "उनके बैंक में स्विफ्ट और सीबीएस प्रणाली आपस में नहीं जुड़ी हैं, बैंक ने अपनी सभी शाखाओं को इस संबंध में सतर्कता बरतने का ज्ञापन भेजा है."

कहने की जरूरत नहीं है कि सिस्टम में कितनी बड़ी खामी थी जो सबको पता थी, ऐसे में इतना बड़ा धोखा असंभव कैसे था? बैंकों की शीर्ष संस्था भारतीय बैंक संघ (आईबीए) कहती है कि रिजर्व बैंक ने सभी बैंकों को 30 अप्रैल तक अपनी स्विफ्ट प्रणाली को बैंक के कोर बैंकिंग सल्यूशंस (सीबीएस) से जोड़ने को कहा है. सवाल यह भी है कि क्या यह काम पहले नहीं हो सकता था? जब सिस्टम में कमी सबको पता थी तो उसके लिए सतर्कता भी उतनी ही जरूरी थी. निश्चित रूप से सामूहिक उत्तरदायित्व का मामला है और सवाल यह उठता है कि इसे क्यों पूरा नहीं किया गया और इसका दोषी कौन होगा?

अपने बचाव में रिजर्व बैंक या प्रभावित दूसरे बैंक चाहे जो कहें लेकिन यह भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बड़ी विडंबना ही कही जाएगी क्योंकि जहां भारत को दुनिया में तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था बताने का दंभ भरा जाता है, वहीं अकेला व्यक्ति भारतीय बैंकों के हजारों करोड़ रुपये लूट लेता है.

निश्चित रूप से बात बड़ी हैरान करने वाली है क्योंकि जिस देश में एक अदना सा किसान दो-चार लाख रुपये का कर्ज न चुका पाने में विफल होकर बैंकों की वसूली प्रक्रिया से डर कर मौत को गले लगा लेता है, वहीं हजारों करोड़ लूटकर चंपत हो जाने वाला विदेशों में बैठकर खुद को शान से दिवालिया घोषित कराने में जुट जाता है. इससे भी आगे भारत आना तो दूर, उल्टा बदनाम करने की कोशिशों के नाम पर धंधे पर चोट बताकर खुलेआम विदेश में बैठ पैसा न लौटाने की धमकी तक देता है. निश्चित रूप से यह आमजनों के बीच बैंक की साख और उससे भी ज्यादा उभरती अर्थव्यवस्था पर करारा प्रहार है. भविष्य में यह न हो, इसके लिए बेहद कड़े और उससे भी ज्यादा प्रभावी प्रबंधन की फौरन जरूरत है.

ऋतुपर्ण दवे (आईएएनएस)