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क्या कांग्रेस की बनाई राह पर चल रहे हैं मोदी?

महेश झा
४ अप्रैल २०१९

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पॉपुलिस्ट नेता कहा जाता है. लेकिन भारत की सियासत में पॉपुलिज्म इससे पहले भी कई मिसालें रही हैं. के कामराज और इंदिरा गांधी से लेकर ममता बनर्जी तक सबने इस गंगा में डुबकी लगाई है.

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Indien Test Abwehrsystem | Abschuss eines Satelliten | Narendra Modi, Premierminister
तस्वीर: AFP/P. Singh

जर्मन डिक्शनरी के अनुसार पॉपुलिज्म की परिभाषा मौकापरस्ती से प्रभावित बड़बोली राजनीति है जिसका लक्ष्य राजनीतिक स्थिति को नाटकीय बनाकर लोगों का समर्थन जीतना है. राजनीतिक दल इस शब्द का इस्तेमाल विरोधी दलों को बदनाम करने के लिए करते हैं तो समाजशास्त्र में इसका इस्तेमाल ऐसी नीतियों की व्याख्या के लिए होता है जिसका मकसद लोगों का फौरी समर्थन जीतना है. हॉलैंड के राजनीतिशास्त्री कास मड पॉपुलिज्म को ऐसी विचारधारा मानते हैं जो समाज को दो गुटों में बांट देती है, एक सच्चे लोग तो दूसरे उनको नुकसान पहुंचाने वाले लोग. तानाशाहों के विपरीत पॉपुलिस्ट नेता चुनाव जीतकर सत्ता में आते हैं और खुद को जनता का सच्चा प्रतिनिधि बताते हैं.

भारत में पॉपुलिज्म

पॉपुलिस्ट राजनेताओं ने भारतीय राजनीति में हमेशा ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. अपने लोकलुभावन नारों से उन्होंने समुदायों को इकट्ठा किया है, उन्हें राजनीतिक प्रक्रिया से जोड़ा है और एक तरह से लोकतंत्र को मजबूत भी किया है. लेकिन पॉपुलिज्म देश को बांट भी रहा है.

भारत में पाकिस्तान का मुद्दा वोट बटोरने वाला है. पिछले दिनों भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कश्मीर विवाद पर पाकिस्तान के खिलाफ सैनिक कार्रवाई कर भारत की विदेश नीति में नया इतिहास रचा है.

बहुत से लोग पाकिस्तान पर सरकार की कार्रवाई को संसदीय चुनावों से जोड़ कर देख रहे हैं तो ऐसे लोग भी हैं जो मानते हैं कि पुलवामा में आतंकी हमले में 40 से ज्यादा सुरक्षाकर्मियों की मौत के बाद भारत सरकार पर कुछ करने का दबाव था. लेकिन जिस तरह से सत्तारूढ़ बीजेपी के नेता लोगों की पाकिस्तान विरोधी भावना को भुनाने की कोशिश कर रहे हैं इसे पॉपुलिज्म का उदाहरण ही समझा जाएगा. वैसे चुनाव जीतने के लिए पॉपुलिज्म का इस्तेमाल भारत में नया नहीं है. दूसरी पार्टियां भी चुनाव जीतने के लिए पॉपुलिज्म का सहारा लेती रही हैं.

Indien Premierminister Narendra Modi
बीजेपी का प्रचारतस्वीर: Ians

हर दशक में लोकलुभावन नारा

1960 के दशक में किसानों का पॉपुलिज्म था, जब जमींदारियां खत्म की जा रही थी, बैंकों का राष्ट्रीयकरण हो रहा था, देहात और शहर की खाई पाटने का नारा बुलंद किया जा रहा था. सत्ता में आने के बाद कांग्रेस को तोड़ने वाली इंदिरा गांधी इस राह पर चल रही थीं. 1970 का दशक 'इंदिरा इंडिया' है और इमरजेंसी के बाद लोकतंत्र बचाने के नारों का था. जनता पार्टी के विभाजन के बाद बीजेपी बनी और 1980 का दशक हिंदू बहुमत को इकट्ठा करने के साल थे जिसकी पराकाष्ठा 1992 में बाबरी मस्जिद के टूटने और 1996 में बीजेपी की पहली सरकार बनने के साथ हुई. हिंदू राष्ट्रवाद के नाम पर लोगों को एकजुट करने का अभियान अभी भी जारी है.

लेकिन भारत में राष्ट्रीय स्तर पर दिखने वाले इन रुझानों के साथ साथ राज्यों में स्थानीय पहचान के आंदोलन भी चल रहे थे. समय के साथ अलग अलग प्रांतों में ऐसे नेता उभरे जिन्होंने जाति और धर्म के नाम पर लोगों को इकट्ठा किया और इस तरह अपनी सत्ता को मजबूत बनाया. लोकलुभावन नारों और कदमों का इस्तेमाल राष्ट्रीय धारा के विपरीत लोगों को जमा करने के लिए और इस तरह वैकल्पिक सत्ता केंद्र बनाने का था. यह तथ्य इस बात में भी दिखता है कि स्थानीय नेता इस बीच कथित तौर पर अरबों की संपत्ति के मालिक हैं जो उन्होंने सत्ता में होने की वजह से कमाई है.

पॉपुलिज्म और दक्षिणपंथ

पांच साल पहले बीजेपी नेता नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद के समय को भारत में पॉपुलिज्म का काल बताया जाता है. यह समय अमेरिका सहित दुनिया के कई दूसरे देशों में भी पॉपुलिस्ट नेताओं के उदय का काल है जो राष्ट्रवाद और देशभक्ति का नारा देकर सत्ता में आए और लोगों को अपने साथ रखा. लेकिन पॉपुलिज्म हमेशा दक्षिणपंथ के साथ जुड़ा नहीं रहा है. इंदिरा गांधी इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं.

Indien Indira Gandhi
इंदिरा गांधीतस्वीर: picture-alliance/AP Photo

इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ के नारे के साथ देश के संसाधनों पर कब्जा जमाए कुलीन वर्ग पर हमला बोला और एक तरह से समाजवाद को पॉपुलिज्म के साथ जोड़ा. लोगों ने उनके नारों पर भरोसा किया और उनका समर्थन किया. लेकिन न गरीबी खत्म हुई, न गरीब खत्म हुए और न ही संसाधनों पर कुलीनों का वर्चस्व खत्म हुआ.

पॉपुलिज्म और लोकतंत्र

अक्सर कहा जाता है कि पॉपुलिज्म से उदारवादी लोकतंत्र को खतरा है. ऐसे इसलिए कि यह व्यवस्था बहुतमत की इच्छा के आदर और व्यक्तिगत अधिकारों के सम्मान पर निर्भर है. जर्मन राजनीतिशास्त्री टिम स्पीयर का मानना है कि राजनीति में पॉपुलिज्म के चार तत्व होते हैं, लोग, अस्मिता, करिश्माई नेता और संगठन. आम तौर पर इनमें से एकाध तत्व हर पार्टी में पाया जाता है लेकिन टिम स्पीयर के अनुसार यदि चारों तत्व एक साथ हों तो पॉपुलिज्म का इस्तेमाल किया जा सकता है.

पॉपुलिज्म के उदाहरण दुनिया के दूसरे देशों में भी देखे जा सकते हैं. 19वीं सदी में अमेरिका का पॉपुलिस्ट मूवमेंट हो या रूस का नारोद्निकी या फिर 1950 के दशक में मैककार्थी आंदोलन, इन सब में एकमात्र समानता ये थी कि इनके केंद्र में आम लोग थे. मौजूदा पॉपुलिज्म भी उसी ढर्रे पर चल रहा है.

Lalu Prasad Yadav
लालू यादवतस्वीर: AP

सफलता की कुंजी

लोकलुभावन नारों की लोकप्रियता और सफलता की एकमात्र वजह ये हैं कि उसका सहारा लेने वाले करिश्माई नेता मुश्किल सवालों का आसान हल पेश करते हैं, भले ही उन्हें लागू किया जा सके या नहीं. इस बात पर अभी भी विवाद है कि क्या ये लोकतांत्रिक संरचना को नुकसान पहुंचाते हैं. भारत में पॉपुलिस्ट कदमों की शुरुआत तमिलनाडु से हुई जहां सस्ते चावल, मुफ्त कलर टीवी या किसानों के कर्जमाफी से लोगों को लुभाया जाता रहा है. 1967 में डीएमके नेता अन्नादुराई ने सस्ते चावलों का वादा किया था. चुनाव जीतकर मुख्यमंत्री बनने के बाद इसे कुछ इलाकों में लागू भी किया लेकिन वित्तीय मजबूरियों के कारण बाद में रोक दिया.

इसके बाद 1990 के दशक में बिहार में लालू प्रसाद ने मुख्यमंत्री के रूप में पिछड़े लोगों को लुभाने के लिए कई कदम उठाए. उनके बाद नीतीश कुमार के शराबबंदी जैसे कदमों को भी पॉपुलिज्म से जोड़ा जा सकता है. वहीं पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने 'मां माटी मानुष' जैसे नारों के सहारे सत्ता की सीढ़ियां चढ़ीं.

लेकिन तब से अलग अलग पार्टियां अलग अलग प्रांतों में इस तरह के लोकप्रिय वादे करती रही हैं. किसानों की कर्ज माफी के कांग्रेस प्रमुख राहुल गांधी के वादे को पिछले दिनों हुए प्रांतीय चुनावों में कांग्रेस की जीत का कारण माना जाता है. अब संसदीय चुनावों में नरेंद्र मोदी को चुनौती दे रहे राहुल गांधी ने अत्यंत गरीब 20 प्रतिशत परिवारों को 6,000 रुपये प्रति महीने की आय, 22 लाख खाली नौकरियों की भर्ती और किसानों को कर्जमाफी का वादा किया है. बीजेपी के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कांग्रेस घोषणापत्र के कुछ विचारों को खतरनाक बताया है. आर्थिक वादों को पूरा करने में विफल नरेंद्र मोदी की सरकार अपना पूरा जोर राष्ट्रवादी एजेंडे पर लगा रही है.