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समाज

क्या गूगल आपको बेवकूफ बना रहा है?

४ सितम्बर २०१८

क्या आप हमेशा अटकलें लगाते रहते हैं या अक्सर सामान्य से सवाल का उत्तर खोजने में मुश्किलों का सामना करते रहते हैं? डॉयचे वेले ने न्यूरोसाइंटिस्ट डीन बर्नेट से पूछा कि क्या इसके लिए गूगल जिम्मेदार है.

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तस्वीर: Reuters/C. Platiau

गूगल पर मौजूद जानकारियों ने हमारी जिंदगियां आसान कर दी है. लेकिन हर सवाल के जवाब गूगल पर खोजना दिमाग पर कितना असर डालता है. बता रहे हैं न्यूरोसाइंटिस्ट और लेखक डीन बर्नेट.

क्या गूगल ने लोगों को बेवकूफ बना दिया है?

नहीं, मुझे नहीं लगता कि ऐसा हो रहा है. दरअसल इस तर्क के पीछे यह कारण हो सकता है कि लोग, पहले लंबे निबंध, कविताएं याद कर पाते थे. कुछ ऐसा ही स्कूलों में पढ़ाया जाता था, लेकिन मुझे नहीं लगता कि किसी पाठ को याद करके दिमाग में बिठा लेना बुद्धिमानी का प्रतीक है. साथ ही ऐसा न कर पाना आपको बेवकूफ साबित नहीं करता. बुद्धिमता के लिए कई सांस्कृतिक और आनुवांशिक कारक जिम्मेदार होते हैं. जरूरी तो ये है कि आप जानकारी का इस्तेमाल कैसे करते हैं, बजाय इसके कि आप कितनी बातें याद रख पाते हैं. गूगल हमें ज्यादा से ज्यादा जानकारियां दे पा रहा है, जिसे हमारा दिमाग निरंतर प्रोसेस करता है. इसलिए यह भी कहा जा सकता है कि गूगल हमें ज्यादा स्मार्ट बना रहा है. 

Dean Burnett - Neorowissenschaftler
तस्वीर: Privat

गूगल ने हमारे अटैंशन स्पैन को कैसे प्रभावित किया?

इस पर कुछ ठोस ढंग से तो नहीं कहा जा सकता, क्योंकि गूगल को हमारी जिंदगियों में आए हुए अभी काफी वक्त नहीं बीता है. इसलिए इस मामले में अब तक कोई न्यूरोलॉजिकल रिस्पांस विकसित नहीं हुआ है. न्यूरोफिजियोलॉजिकल स्तर पर अटैंशन स्पैन वैसा ही है जैसा हमेशा से रहा है. ऐसा भी नहीं लगता कि लोग अब किसी चीज पर वैसे ध्यान केंद्रित नहीं करते जैसे कि पहले करते थे. इंसान का मस्तिष्क उत्तेजना और सुखद गतिविधियों के मामले में नई चीजों और जानकारियों को हमेशा ही प्राथमिकता देता है. ऐसे में गूगल तो आपका परिचय असंख्य नई चीजों से कराता है, तो जाहिर है लोग सामने पड़ी चीज को देखने के बजाय उससे बेहतर चीज देखने की कोशिश करेंगे.

कैसे इंसानी मस्तिष्क गूगल पर उपलब्ध इतनी सारी जानकारियों से मुकाबला कर रहा है?

लोग अकसर इस बात को नहीं मानते कि इंसानी मस्तिष्क बेहतर ढंग से सूचनाओं की प्रोसेसिंग कर उन्हें फिल्टर करना जानता है. हमारा विवेक ही मस्तिष्क को बहुत जानकारियां दे देता है. मस्तिष्क ने ऐसी सूचनाओं को फिल्टर कर इन्हें महत्ता देने का तंत्र विकसित कर लिया है. गूगल भी कुछ ऐसा ही है लेकिन अंतर ये है कि यहां मिलने वाली जानकारी संक्षिप्त (एब्स्ट्रैक्ट) होती है. खैर, मस्तिष्क का सूचनाओं को प्रोसेस करने का तरीका हमेशा आदर्श नहीं माना जा सकता. मसलन, जिस प्रक्रिया से हम सूचनाओं की प्राथमिकता तय करते हैं वह भी मस्तिष्क में होती है. जो समझती है कि हम क्या सोचते हैं, किस पर विश्वास करते हैं, किसकी अनदेखी करते हैं आदि. यह प्रक्रिया व्यापक और निरंतर है, आज ऑनलाइन स्पेस में नजर आने वाला राजनीतिक ध्रुवीकरण इसी को बयां करता है.

क्या इंसान मस्तिष्क के बजाय गूगल पर अधिक भरोसा कर रहा है?

यह एक मुद्दा बन सकता है. आज लोग खुद काम करने की बजाय गूगल पर आसानी से पहुंच सकते हैं. लेकिन ये आदत सब में अलग-अलग होती है. वहीं सूचनाओं की प्रोसेसिंग करना मस्तिष्क के लिए एक छोटा सा काम है. ऐसे में अभी यह कहना मुश्किल लगता है कि कैसे गूगल मस्तिष्क को पीछे छोड़ देगा.

गूगल ने आपको कितना बदला?

गूगल ने कई तरह से मेरी जिंदगी में क्रांतिकारी बदलाव लाए हैं. मैं विज्ञान का लेखक हूं जिसमें तेजी से बदलाव हो रहे हैं. ऐसे में गूगल मुझे किसी स्टडी को जांच करने की क्षमता देता है. वह बता देता है कि कौन सी स्टडी क्या कह रही है और यह मेरे लिए कितनी अहम है. साथ ही मैं किसी स्टडी के विरोधाभासी तथ्य भी जान पाता हूं.

डीन बर्नेट एक न्यूरोसाइंटिस्ट, लेखक और कॉमेडियन हैं. "द इडियट ब्रेन" और "द हैप्पी ब्रेन" जैसी किताबें लिख चुके बर्नेट वर्तमान में ब्रिटेन की कार्डिफ यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर मेडिकल एजुकेशन में कार्यरत हैं.

इंटरव्यू: आशुतोष पांडे