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वोट देने से कतरा रहे हैं कश्मीरी

१ मई २०१९

लोकसभा चुनाव के चौथे चरण में कश्मीर में मतदान तो हुए लेकिन मतदाताओं की संख्या बेहद ही कम रही. विशेषज्ञ मान रहे हैं कि चुनावों को लेकर आम लोगों की उदासनीता राजनीति की तरफ उनकी हताशा को दर्शाती है.

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Electronic voting machines Indien
तस्वीर: picture alliance/Pacific Press/F. Khan

29 अप्रैल को कश्मीर के कई इलाकों में कड़े सुरक्षा इंतजामों के बीच मतदान हुआ लेकिन मतदान को लेकर स्थानीय लोगों में कोई उत्साह नहीं दिखा. कुलगाम-अनंतनाग निर्वाचन क्षेत्र में ना के बराबर वोट पड़े. कुछ इसी तरह का माहौल पिछले चरणों में हुए मतदान में भी दिखा. कश्मीर के अलगाववादी गुट इन आम चुनावों का बहिष्कार कर रहे हैं. अलगाववादी समूह कहते आए हैं कि केंद्र सरकार कश्मीरियों के खिलाफ सेना को खड़ा करती है.

बढ़ती उदासीनता

श्रीनगर में रहने वाली 26 साल की आसमां फिरदौस ने चुनावों का बहिष्कार किया और अपना वोट डालने नहीं गईं. डीडब्ल्यू से बातचीत में उन्होंने कहा, "हम खुद को भारतीय नहीं मानते और ना ही भारतीय हमें अपना समझते हैं. तो ऐसे में हम क्यों वोट दें?" कई राजनीतिक विश्लेषक यह भी मानते हैं कि 2014 में बीजेपी के केंद्र में आने के बाद बड़ी संख्या में कश्मीरी लोगों का राजनीति से मोहभंग हुआ है क्योंकि केंद्र सरकार बलपूर्वक कश्मीर में स्थिति नियंत्रित करना चाहती है.

Indien Wahlen in Kashmir
तस्वीर: Bijoyeta Das

लोगों को डर है कि मोदी सरकार धारा 370 और कश्मीरियों के प्रॉपर्टी से जुड़े अनुच्छेद 35(ए) को खत्म करना चाहती है. कई कश्मीरी तो यहां तक कहते हैं कि बीजेपी सरकार कश्मीर की मुस्लिम बहुल डेमोग्राफी में बदलाव कर इसे हिंदुओं के पक्ष में करना चाहती है. श्रीनगर में रहने वाले राजनीतिक विशेषज्ञ शेख शौकत हुसैन का मानना है कि कश्मीर में हो रहा कम मतदान केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री के लिए एक कड़ा संदेश है. डीडब्ल्यू से बातचीत में उन्होंने कहा, "वोटिंग ट्रेंड दिखाता है कि कश्मीर में अलगाववाद बढ़ रहा है और आम लोग चुनावी प्रक्रिया के प्रति उदासीन हो रहे हैं."

राजनीतिक अस्थिरता

2014 में केंद्र में आई बीजेपी सरकार ने उसी साल जम्मू कश्मीर में हुए विधानसभा चुनावों के बाद पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के साथ मिलकर राज्य में एक गठबंधन सरकार बनाई थी. राज्य में नई सरकार आने के फौरन बाद से ही सुरक्षा स्थिति बिगड़ने लगी. सेना ने चरमपंथियों के खिलाफ कार्रवाई की जिसके चलते कई स्थानीय कश्मीरियों की जानें चली गईं. 2016 में भारतीय सेना ने आतंकी संगठन हिज्बुल मुजाहिदीन के 22 साल के कमांडर बुरहान वानी को मार दिया था, जिसके बाद घाटी में तनाव चरम पर पहुंच गया था.

पिछले साल बीजेपी, जम्मू कश्मीर में चल रही गठबंधन सरकार से बाहर हो गई. नतीजतन घाटी में स्थिति और भी बिगड़ गई. बीजेपी ने दावा किया कि राज्य सरकार कश्मीर में चरमपंथ को काबू करने में असफल रही और आम नागिरकों के लिए काम करने में नाकाम साबित हुई. सरकार गिरी तो जम्मू कश्मीर का नियंत्रण दिल्ली ने अपने हाथ में ले लिया. राज्य के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती खुलकर प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी की आलोचना करने लगीं. उन्होंने नई दिल्ली पर कश्मीर के मामलों में दखल देने का आरोप लगाया. सरकार गिरने का असर पीडीपी पर भी पड़ा और यही कारण है कि पार्टी आम जनता को इन चुनावों में वोट देने के लिए मना नहीं सकी.

मुफ्ती ने स्वयं माना कि उनकी पार्टी की विश्वसनीयता को भारी नुकसान पहुंचा है. डीडब्ल्यू से बातचीत में उन्होंने कहा, "लोगों में काफी गुस्सा है और राजनीतिक हताशा भी. लोग सोचते हैं कि लोकतंत्र अब बस चुनावों तक सीमित है और चुनावों के बाद कोई लोकतंत्र काम नहीं करता." हालांकि मुफ्ती ने यह भी कहा कि वह लोगों के विश्वास को दोबारा बहाल करने के लिए काम करेंगी.

बढ़ता इस्लामीकरण

राजनीति के प्रति बढ़ता अविश्वास अब अधिक से अधिक युवाओं को चरमपंथ की ओर मोड़ रहा है. कश्मीरी युवाओं का एक बड़ा तबका अलगाववादी गतिविधियों में खुलकर सामने आने लगा है. जानकार कहते हैं कि चरमपंथ और उग्रवाद की ओर जा रहे कई टीनएजर्स 1989 के बाद पैदा हुए उग्रवाद और हिंसा के माहौल में जन्मे और आज वे दिल्ली से किसी भी तरह का जुड़ाव महसूस नहीं करते. आंकड़ों के मुताबिक 60 फीसदी कश्मीरी पुरुष 30 साल से कम उम्र के हैं, वहीं 70 फीसदी पुरुषों की उम्र 35 के भीतर है.

श्रीनगर में राजनीतिक विज्ञान के प्रोफेसर और जानकार आरके भट्ट कहते हैं, "राज्य में युवाओं के लिए पर्याप्त नौकरियां नहीं हैं. बेरोजगारी से निपटने के अलावा जरूरी है कि कश्मीर मुद्दे का कोई राजनीतिक हल भी निकाला जाए." विश्लेषक तो यह भी कहते हैं कि लोगों में बढ़ती राजनीतिक उदासीनता और हताशा को जिहादी समूह भुना रहे हैं. इतना ही नहीं लोगों में व्यापत भारत विरोधी भावनाएं, इस्लामीकरण को बढ़ावा दे रही हैं.

पोलैंड में रहने वाली कश्मीर मामलों की विशेषज्ञ आग्निएसका कुचेसका ने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा, "1980 के दशक में हुए अफगान युद्ध का सीधा असर कश्मीर मुद्दे पर पड़ा, जो इस्लामिक कट्टरपंथ के उदय में साफ दिखता है. भारत विरोधी अभियान 1990 के दशक में और अधिक इस्लामिक हो गया जब घाटी में पाकिस्तान से प्रशिक्षित उग्रवादियों का दखल बढ़ा." कुचेसका मानती हैं कि भारत सरकार को घाटी में हिंसा खत्म करने के लिए बड़े और प्रभावकारी कदम उठाने होंगे. वे चिंता जताते हुए कहती हैं, "धार्मिक भावनाओं से प्रेरित राष्ट्रवाद बेहद ही चिंताजनक है, खासकर कश्मीर जैसे इलाके में जहां धार्मिक और संस्कृतिक विविधताएं नजर आती हैं. यह एक बड़ा मुद्दा है जिस पर तुरंत विचार किया जाना चाहिए."

चुनावों के बाद कश्मीर की राजनीतिक स्थिति में कोई खास परिवर्तन आएगा, इस बात का भरोसा तो विश्लेषकों को भी नहीं है. लेकिन जानकार यह जरूर मानते हैं कि जम्मू कश्मीर में किसी भी पार्टी की सरकार रहना बेहतर है, बजाय इसके कि जम्मू कश्मीर का प्रशासन दिल्ली से चलाया जाए. विश्लेषकों के मुताबिक राजनीतिक प्रक्रिया जरूर चलती रहनी चाहिए.

सोनिया सरकार/एए

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