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समाज

खाना फेंकने से बर्बाद हो रही है धरती

२ मई २०१९

खाना फेंकना सिर्फ पैसे की बर्बादी नहीं है, बल्कि इससे पूरे पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा है. आज इतना खाना बर्बाद हो रहा है कि भविष्य में शायद इसे उगाना ही मुश्किल हो जाएगा.

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Symbolbild Mülltaucher holen ihr Essen aus Abfalltonnen
तस्वीर: picture-alliance/dpa/S. Stache

"एक बार मुझे 200 से 300 यूरो तक के मूल्य वाली सूशी मिली, एकदम ताजा पैकिंग में." लिया को खाने का यह महंगा पैकेट कूड़ेदान में मिला. वैसे लिया उनका असली नाम नहीं है. वह अपनी पहचान गुप्त रखना चाहती हैं क्योंकि वह जो करती हैं, उससे जर्मनी में उन्हें जेल भी हो सकती है.

लिया कॉलेज में पढ़ती हैं और रात में दोस्तों के साथ मिल कर "डम्प्स्टर डाइविंग" करने जाती हैं. डम्प्स्टर यानी कूड़ेदान और डाइविंग यानी उसमें कूदना. जी हां, आज कल बड़े बड़े कूड़ेदान में कूदने का ट्रेंड है. युवा ऐसा कूदफांद का शौक पूरा करने के लिए नहीं करते हैं, बल्कि वे यहां से खाने का सामान चुराते हैं. ऐसा सामान जो खाने लायक है लेकिन जिसे सुपरमार्केट वालों ने कूड़े में फेंक दिया क्योंकि वह वक्त रहते बिका नहीं.

लिया इसे चोरी नहीं मानतीं. वह कहती हैं, "बाजार के लिए बहुत खाना बनाया जाता है लेकिन वह कभी खाया नहीं जाता. मैं उसे लोगों में बांटना चाहती हूं." लिया यह तो चाहती ही हैं कि वे भूखों तक यह खाना पहुंचा सकें लेकिन इसके साथ उनका एक बड़ा मकसद भी है, पर्यावरण की रक्षा करना. खाना उगाने में पानी, खाद और कीटनाशकों का इस्तेमाल होता है.

विकसित देशों में खाने की भारी मात्रा में बर्बादी होती है. कई शोध दिखाते हैं कि खाने की बर्बादी जलवायु परिवर्तन का एक कारण है. इससे जैवविविधता पर असर पड़ता है और जमीन में माइक्रोप्लास्टिक की मात्रा भी बढ़ती है. संयुक्त राष्ट्र की संस्था फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन (एफएओ) के अनुसार दुनिया भर में पैदा होने वाले कुल खाने का एक तिहाई कभी खाया ही नहीं जाता.

Infografik Lebensmittelverschwendung durch Konsumenten EN

खेतों में, भंडारण और ट्रांसपोर्ट के दौरान जो खाना बर्बाद होता है उसे "फूड लॉस" कहा जाता है और सुपरमार्केट पहुंचने के बाद जो खाना बिकता नहीं है या फिर बिकने के बाद भी खाया नहीं जाता है, उसे "फूड वेस्ट" कहते हैं. खाने की इतनी बर्बादी क्यों होती है, एफएओ की रोजा रोल को बांग्लादेश के छोटे किसानों के साथ काम करने के दौरान यह बात समझ में आई. वह बताती हैं, "वो टमाटर की फसल काटते थे और 50-50 किलो के बोरों में उसे भर देते थे. जब तक बोरे बाजार पहुंचते आधे टमाटर खराब हो चुके होते थे. फिर जो थोड़ा बहुत बचता था, उसे वो जानवरों को खिला देते थे."

बांग्लादेशी किसानों और जर्मनी में डम्प्स्टर डाइविंग करने वाली लिया के लिए परिस्थितियां अलग हैं. बांग्लादेश में किसानों को नुकसान जरूर होता है लेकिन पर्यावरण पर इसका बहुत ज्यादा असर नहीं पड़ता. ऐसा इसलिए कि वहां ट्रांसपोर्ट और प्रोसेसिंग में ऊर्जा की बहुत ही कम खपत होती है. साथ ही बर्बाद खाना ही जानवरों का चारा बन जाता है. जबकि जर्मनी में ऐसा नहीं होता. जर्मनी में खेतों से ले कर बाजार तक का सफर तय करने में काफी ऊर्जा इस्तेमाल होती है. साथ ही पैकेजिंग पर भी संसाधन खर्च किए जाते हैं.

यह याद रखना भी जरूरी है कि जंगलों को काट कर उनकी जगह खेत बनाए जाते हैं. खाने की जरूरतों में केवल अनाज या फल सब्जी ही नहीं, मवेशी भी इस्तेमाल किए जाते हैं. इनके रहने और चारा खाने के लिए जगह भी जंगलों को काट कर ही बनाई जाती है. अगर ये सब नहीं होता तो खूब सारे पेड़ लहरा रहे होते और घने जंगलों में जंगली जानवर रह रहे होते. इस तरह से इंसान धीरे धीरे इकोसिस्टम को बदल रहा है. लेकिन यह दुखद है कि इन खेतों का कम से कम एक चौथाई अनाज बर्बाद जाता है. पानी की बात करें तो एफएओ के अनुसार बेकार जाने वाले खाने पर सालाना 250 अरब लीटर पानी की खपत होती है.

Infografik Lebensmittelabfälle EN

इसी तरह समुद्र से निकाली जाने वाली 35 प्रतिशत मछलियां भी बेकार चली जाती हैं. कई बार तो यह पैकेजिंग से बाहर भी नहीं आती. वैसे ही जैसे लिया को कूड़ेदान में सूशी का नया पैकेट मिल गया था. इस तरह से पैक किए हुए खाने को फेंकने का एक और नुकसान यह है कि जब कूड़े को ईंधन बनाने वाले प्लांट में ले जाया जाता है, तो उसे ठीक से अलग भी नहीं किया जा सकता. अगर प्लास्टिक और जैविक कूड़ा अलग अलग फेंका हो, तो उससे खाद या ईंधन बनाने में आसानी होती है.

एक रिसर्च दिखाती है कि जर्मनी में घरेलू कूड़े के हर टन में माइक्रोप्लास्टिक के 4.40 लाख टुकड़े मौजूद होते हैं. चिंताजनक बात यह है कि जर्मनी में खेती की जमीन में समुद्र के मुकाबले बीस गुना ज्यादा माइक्रोप्लास्टिक पाया गया. इसका सीधे तौर पर मतलब यह हुआ कि खाने के साथ माइक्रोप्लास्टिक हमारी खाद्य श्रृंखला में शामिल हो रहा है.

इस समस्या का कोई फौरी हल तो नहीं है लेकिन छोटे से छोटा कदम भी हमें समस्या से दूर ले जा सकता है. इसलिए लिया कहती हैं कि वे भविष्य में भी कूड़ेदान से खाना निकालना जारी रखेंगी.

रिपोर्ट: केर्स्टिन पाल्मे/ईशा भाटिया

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