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गलतफहमियां दूर हों तो कुष्ठमुक्त होगा भारत

प्रभाकर मणि तिवारी
२८ जनवरी २०१९

डब्ल्यूएचओ की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि पूरी दुनिया में कुष्ठ के मामले घटने के बावजूद बीते साल ऐसे दो लाख नए मामले सामने आए हैं. इनमें से लगभग आधे मामले भारत में ही हैं.

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Lepra in Indien
तस्वीर: AFP/Getty Images

आज से कुछ 13-14 साल पहले ही भारत के कुष्ठमुक्त होने का एलान कर दिया गया था. लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूयूएचओ) के ताजा आंकड़े बताते हैं कि कुष्ठ रोग एक बार फिर भारत के लिए परेशानी का सबब बन रहा है. रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में बीते साल कुष्ठ रोग के जो लगभग दो लाख मामले सामने आए थे उनमें से आधे भारत में ही हैं.

भारत में ऐसे मरीजों के साथ होने वाला सामाजिक भेदभाव, उनको कलंक मानने और उनके खिलाफ पूर्वाग्रह ही इस बीमारी को खत्म करने की राह में सबसे बड़ी बाधाएं हैं. देश में अब भी इन मरीजों की हालत बदतर है और उनको हेय दृष्टि से देखा जाता है. इस रोग के इलाजयोग्य होने के विशेषज्ञों के दावों के बावजूद 21वीं सदी में भी समाज की मानसिकता में कोई खास बदलाव नहीं आया है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के मुताबिक किसी देश को कुष्ठमुक्त उसी समय घोषित किया जाता है जब प्रति दस हजार की आबादी में कुष्ठ के एक से भी कम मामले सामने आएं. लेकिन भारत के कई राज्यों में यह औसत ज्यादा है. मिसाल के तौर पर बिहार में यह 1.18 प्रतिशत है, तो ओडीशा व छत्तीसगढ़ में क्रमश: 1.38 और 2.25 प्रतिशत.

सरकारी दावों की पोल खुली

डब्ल्यूएचओ की दक्षिण एशिया की क्षेत्रीय निदेशक पूनम खेत्रपाल सिंह कहती हैं, "भारत में कुष्ठ के मरीजों की तादाद काफी बढ़ रही है. बीते साल ही यहां एक लाख से ज्यादा ऐसे मामले सामने आए थे. अभी कई ऐसे मामले सामने नहीं आ सके हैं. ऐसे में यह तादाद और ज्यादा हो सकती है." वह बताती हैं कि इस बीमारी से जुड़े मिथकों और भेदभाव की वजह से कई लोग शुरुआती दौर में इसका खुलासा नहीं करते. इसका पता लगने तक बीमारी एडवांस स्टेज में पहुंच जाती है. विशेषज्ञों का कहना है कि शुरुआती दौर में पता लगने पर इस बीमारी का पूरी तरह इलाज संभव है. लेकिन इसके साथ जुड़े पूर्वाग्रहों की वजह से लोग सामने नहीं आते.

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के तहत काम करने वाले सेंट्रल लेप्रोसी डिवीजन ने बताया कि वर्ष 2017 में देश में 1.35 लाख नए मामले सामने आए थे. केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने एक फरवरी 2017 को संसद में अपने बजट भाषण में कहा था कि वर्ष 2018 में देश से कुष्ठ रोग का खात्मा हो जाएगा. लेकिन सामाजिक कार्यकर्ताओं ने उसी समय उनके इस दावे पर सवाल उठाए थे. अब डब्ल्यूएचओ की ताजा रिपार्ट ने इस बात की पुष्टि कर दी है कि सरकार के तमाम दावों के बावजूद देश में कुष्ठ के मरीज बढ़ते ही जा रहे हैं.

बीमारों के अंग काट देते हैं लोग 


हालात जस के तस

भारत ने इस बीमारी से जुड़े दो अहम कानूनों को रद्द कर दिया है. केंद्र ने वर्ष 2016 में ब्रिटिशकाल में बने लेप्रसीअधिनियम को रद्द कर दिया था. उसके तहत कुष्ठ के मरीजों के साथ भेदभाव होता था. अभी हाल में सरकार ने उस कानून को भी खत्म कर दिया है जिसमें कुष्ठ को तलाक की ठोस वजह माना जाता था.

डब्ल्यूएचओ और तमाम मानवाधिकार संगठनों ने सरकार के इन फैसलों को सराहनीय कदम बताया है. लेकिन बावजूद इसके लोगों की मानसिकता में कोई बदलाव नहीं आया है. मुंगेर की रहने वाली रचना देवी समाज की मानसिकता की एक बड़ी मिसाल हैं. उनकी शादी 18 की उम्र में हुई थी और 21 साल की उम्र तक उनके दो बच्चे भी हो गए. लेकिन उसके कुछ ही दिनों बाद उनको कुष्ठ रोग होने का पता चलते ही घर-परिवार की निगाहें बदल गईं. परिवार ने उन्हें घर से निकाल दिया.

एक अस्पताल में इलाज के बाद रचना ने अपना जीवन ऐसे मरीजों की सेवा के प्रति समर्पित कर दिया है. रचना कहती हैं, "मेरा सपना है कि पूरी दुनिया कुष्ठ से मुक्त हो जाए. मैं मरीजों से कहती हूं कि उनको अपनी बीमारी पर लज्जित होने की जरूरत नहीं है. सब लोग मिल कर काम करें तो इस बीमारी को जड़ से खत्म किया जा सकता है."

क्या है कोई उपाय?
एक अनुमान के मुताबिक भारत में इस बीमारी की वजह से अपने अंग खोने या विकृत होने वाले लोगों की तादाद लगभगा तीस लाख है. यह लोग अब भी समाज की मुख्यधारा से कटे हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि कुष्ठ की बीमारी से जुड़ी भ्रांतियां, सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यताएं और जागरूकता का अभाव ही इस बीमारी को जड़ से खत्म करने की राह में सबसे बड़ी बाधाएं हैं.

बिहार के सिवान जिले के मैरवा स्थित एक कुष्ठाश्रम में लंबे समय तक काम करने वाले डॉक्टर रामनरेश पाठक कहते हैं, "कुष्ठ के मरीजों के प्रति लोगों की मानसिकता अब तक नहीं बदली है. इस बीमारी की चपेट में आने पर लोग अपने सबसे प्रिय व्यक्ति को भी घर से दूर आश्रम में भेज देते हैं. इस मानसिकता में बदलाव जरूरी है."

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