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समाज

घटते रोजगार से चिंता में कामगार

प्रभाकर मणि तिवारी
३० मार्च २०१८

सबसे सस्ता महानगर कहे जाने वाले कोलकाता में अब रोजगार की हालत बहुत बिगड़ गई है. पूर्वोत्तर से बड़ी संख्या में कामगार यहां का रुख करते थे लेकिन अब लोग काम न मिलने से दुखी हैं.

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Indien mehr Arbeitslose in Kalkutta | Someshwar
तस्वीर: DW/P. M. Tiwari

"हम 16-17 साल से यहां दैनिक मजदूरी कर रहे हैं. पहले महीने में 25 से 28 दिनों तक काम मिल जाता था. लेकिन अब पंद्रह दिन भी काम नहीं मिलता. इस कमाई में खाएं क्या और घर क्या भेजें, समझ में नहीं आता," यह कहते बिहार के चंपारण जिले के लालमोहन विश्वकर्मा के चेहरे पर चिंता साफ झलक जाती है. पेशे से लकड़ी मिस्त्री का काम करने वाले रमेश का कहना है कि नवंबर, 2016 में हुई नोटबंदी के बाद काम घट गया है. उसके बाद सरकारी टैक्स (जीएसटी) के चलते भी हमारी रोजी-रोटी प्रभावित हुई है.

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पुरुलिया जिले से आकर यहां बसे सोमेश्वर मंडल के साथ काम करने वाले कई लोग तो बीते डेढ़ साल के दौरान बेहतर मौके की तलाश में पंजाब की ओर निकल गए हैं. वह भी ऐसा ही करने की सोच रहे हैं. सोमेश्वर कहते हैं, "अब एक तो काम कम हो गया है. दूसरे मजदूरी भी पहले से कम हो गई है. ठेकेदार इसके लिए नोटबंदी और जीएसटी को जिम्मेदार बताते हैं."

लालमोहन और सोमेश्वर के बयान देश के पूर्वी इलाके में रोजगार की तस्वीर बयान करने के लिए काफी हैं. केंद्र सरकार के तमाम दावों के बावजूद पश्चिम बंगाल समेत पूर्वोत्तर के तमाम राज्यों में लगातार घटता रोजगार कामकाजी तबके की चिंता बढ़ा रहा है. इस इलाके में रोजगार के मौके बढ़ने की बजाय लगातार घट रहे हैं. नतीजतन बेहतर मौके की तलाश में विस्थापन भी तेज हो रहा है. सिर्फ दैनिक मजदूरों ही नहीं बल्कि पढ़े-लिखे बेरोजगारों के मामले में भी हालात अलग नहीं हैं. मिसाल के तौर पर ममता बनर्जी की अगुवाई वाली तृणमूल कांग्रेस सरकार के तमाम दावों और सूचना तकनीक क्षेत्र को बढ़ावा देने के प्रयासों के बावजूद इंजीनियरिंग की डिग्री लेने वाले युवा लगातार दक्षिण भारतीय शहरों का रुख कर रहे हैं. ऐसे ही एक युवक सौम्य विश्वास कहते हैं, "कोलकाता में आगे बढ़ने के मौके नहीं के बराबर हैं. यहां नौकरी करने का मतलब अपने करियर पर पूर्ण विराम लगाना है."

Indien mehr Arbeitslose in Kalkutta
तस्वीर: DW/P. M. Tiwari

लेफ्टफ्रंट से जुड़ी एक मजदूर यूनियन के नेता प्रसेनजित बोस कहते हैं, "संगठित क्षेत्र में नौकरियों के मामले में वर्षों से बंगाल सबसे निचले स्थान पर है. ऐसे में असंगठित क्षेत्र की बात करना भी बेकार है.जब नए उद्योग नहीं लगेंगे तो रोजगार कहां से मिलेगा?"

बढ़ती बेरोजगारी

देश के दूसरे हिस्सों की तरह रोजगार के सृजन में पूर्वी भारत की हालत भी खस्ता है. मिसाल के तौर पर असम में यह दर 9.8 फीसदी है. इसी तरह बंगाल में इसकी दर 8.8 और मेघालय में आठ फीसदी है. त्रिपुरा में यह दर 30.3 फीसदी तक पहुंच गई है. विशेषज्ञों का कहना है कि निर्माण क्षेत्र ही सबसे ज्यादा नौकरियां पैदा करने में सक्षम है. लेकिन नोटबंदी और जीएसटी के बाद इस क्षेत्र की गतिविधियां धीमी हो गई हैं.

केंद्र सरकार के ताजा रोजगार सर्वेक्षण में कहा गया है कि वित्त वर्ष 2016-17 की आखिरी तिमाही के दौरान रोजाना औसतन 250 अस्थायी मजदूरों को अपने काम से हाथ धोना पड़ा. सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि निर्माण क्षेत्र में बीते साल अप्रैल से जून के बीच 87 हजार नौकरियां खत्म हुईं जबकि वर्ष 2016 में इसी अवधि के दौरान यह आंकड़ा 12 हजार था. निर्माण क्षेत्र में ठेके पर काम करने वाले 54 हजार मजदूरों को अपने काम से हाथ धोना पड़ा.

नकदी संकट की मार

जादवपुर विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर अजिताभ रायचौधुरी कहते हैं, "नोटबंदी के बाद उपजे नकदी संकट की सबसे ज्यादा मार दैनिक मजदूरों पर ही पड़ी है. 2016-17 के दौरान 2.6 लाख अस्थायी मजदूरों को रोजगार छिन गया." दूसरी ओर, गैर-सरकारी संगठन सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनामी (सीएमआईई) ने सरकार से कहा है कि सितंबर-दिसंबर 2016 और जनवरी-अप्रैल 2017 के बीच लगभग 15 लाख नौकरियां कम हुईं. इनमें से ज्यादातर अस्थायी मजदूर थे.

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मनरेगा जैसी केंद्रीय योजनाएं भी पूर्वोत्तर के एकाध राज्यों को छोड़ कर अब तक बेअसर ही साबित हुई हैं. असम, नगालैंड और मणिपुर में इस योजना के तहत औसतन क्रमशः 25, 35 और 37 दिनों तक ही रोजगार मुहैया कराया जा सका है, असम की राजधानी गुवाहाटी स्थित शोध संस्थान ओ.के.दास इंस्टीट्यूट के निदेशक भूपेन शर्मा कहते हैं, "गैर-कृषि क्षेत्रों में रोजगार के अवसरों में वृद्धि नहीं होना और दुर्गम पर्वतीय इलाका पूर्वोत्तर में रोजगार सृजन की राह में दो सबसे बड़ी बाधाएं हैं. इस पर्वतीय इलाके का 70 फीसदी जंगल से घिरा है."

विशेषज्ञों का कहना है कि नोटबंदी और जीएसटी की सबसे ज्यादा मार असंगठित क्षेत्र के कामगारों को ही झेलनी पड़ी हैं. रायचौधरी कहते हैं, "यह क्षेत्र मांग व आपूर्ति के फार्मूले पर चलता है. नोटबंदी व जीएसटी के बाद मांग अचानक गिर जाने की वजह से रोजगार के मौके भी तेजी से घट गए हैं. नतीजतन लाखों मजदूर अनिश्चित भविष्य की ओर ताक रहे हैं." वह कहते हैं कि मांग व सप्लाई के स्तर में तालमेल बिठाने के साथ ही निर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने की दिशा में ठोस पहल की जानी चाहिए. व्यापार संगठन सीआईआई के पूर्वी क्षेत्र के पूर्व अध्यक्ष आलोक मुखर्जी कहते हैं, "रोजगार मुहैया करने में निर्माण क्षेत्र की भूमिका बेहद अहम है. ऐसे में इसे बढ़ावा देने के लिए जमीनी स्तर पर प्रयास किए जाने चाहिए. ऐसा नहीं हुआ तो तस्वीर दिन-ब-दिन भयावह होती जाएगी."