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चीन और यूरोप की नेविगेशन लड़ाई

१५ फ़रवरी २०१०

आम जीवन का हिस्सा बनते जा रहे नेविगेशन सिस्टम के मुद्दे पर चीन और यूरोप में ठन गई है. चीन अपने सिस्टम के लिए उन्हीं फ़्रीक्वेंसियों को इस्तेमाल करना चाहता है जो यूरोप के लिए सुरक्षित कराई गईं थीं.

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तस्वीर: picture alliance / dpa

किसी अनजान शहर में, किसी अनजान जगह पर निश्चिंत हो कर कार चलना जितना आसान आजकल हो गया है, उतना पहले कभी नहीं था. नक्शा नहीं, तो कोई बात नहीं. अब तो मोबाइल फ़ोन जैसा एक छोटा-सा नेविगेशन सिस्टम काफ़ी है, जो पग-पग पर रास्ता बताता है.

नेविगेटर में देशों और शहरों का इलेक्ट्रानिक नक्शा छिपा होता है. अंतरिक्ष में घूम रहे किसी नेविगेशन उपग्रह के संपर्क में रह कर वह हर क्षण हिसाब लगाता रहता है कि आप कहां हैं? किस सड़क पर हैं? अगला चौराहा या मोड़ कितनी दूर है? जहां जाना है, वहां पहुंचने का सबसे विवेकम्मत रास्ता क्या है? डिस्प्ले वाले अपने पर्दे पर सड़क की बनावट का नक्शा दिखा कर और बोल कर वह बताता रहता है, कि आप को कब, क्या करना है.

ये मार्गदर्शी नेविगेशन सिस्टम फ़िलहाल अमेरिका के जीपीएस उपग्रहों की सहायता से मालूम करते हैं कि वे ज़मीन पर कहां हैं. इस निर्भरता से छुटकारा पाने के लिए यूरोपीय देश और रूस ही नहीं, चीन भी अब अपने उपग्रहों का एक अलग जाल अंतरिक्ष में बिछाने लगा है. नाम है बाइदू यानी मार्गदर्शी या कुतुबनुमा.

चीन ने अपनी इस प्रणाली के तकनीकी पक्ष को आजमाने के लिए 2000 से 2003 के बीच तीन उपग्रह पृथ्वी की कक्षा में भेजे. उसी वर्ष उसने यूरोपीय देशों की गालिलेओ नेविगेशन प्रणाली में साझेदार बनने और क़रीब 30करोड़ डॉलर का निवेश करने की घोषणा की. लेकिन कुछ ही समय बाद चीन ने गालिलेओ परियोजना से भी अपना हाथ खींच लिया और अपनी एक अलग प्रणाली बनाने का निश्चय किया.

इस अलग प्रणाली के लिए चीन अब तक चार नये उपग्रह अंतरिक्ष में भेज चुका है. योजना है 2012 तक उसे एशिया-प्रशांत क्षेत्र के लिए और 2020 तक पूरे विश्व के लिए चालू कर देना. मज़े की बात यह है कि चीन अपनी इस नेविगेशन प्रणाली से यूरोप की भावी गालिलेओ प्रणाली को न केवल पीछे छोड़ देना चाहता है, डेटा प्रेषण के लिए वही रेडियो फ्रीक्वेंसियां भी इस्तेमाल करना चाहता है, जिन्हें गालिलेओ के लिए रिज़र्व कराया गया था. यूरोप और चीन के बीच अंतरिक्ष में होने जा रही इस लड़ाई पर नज़र रख रहे पत्रकार अनातोल योहांज़न बताते हैं, "चीनी अगले दो वर्षों में दस और उपग्रह भेजने वाले हैं. 2015 तक या 2020 तक वे कुल मिलाकर 35 उपग्रहों वाली इस प्रणाली को पूरा कर लेना चाहते हैं. चीनी अभी से उन फ्रीक्वेंसियों को इस्तेमाल कर रहे हैं, जिन्हें यूरोप वालों ने अपनी गालिलेओ नेविगेशन प्रणाली के लिए तय किया था. होता तो यह है कि इंटरनैशनल टेलीकम्यूनिकेशन यूनियन--आईटीयू से-- जो फ्रीक्वेंसियों के आवंटन के लिए ज़िम्मेदार है, पूछा जाता है कि हमें फलां फ्रीक्वेंसी चाहिये. वह अब तक आवंटित अन्य फ्रीक्वेंसियों को ध्यान में रखते हुए अनुमति देती है या नहीं देती. लेकिन, चीनियों ने उससे पूछे बिना गालिलेओ की फ्रीक्वेंसियों पर एक तरह से कब्ज़ा जमा लिया."

रेडियो श्रोता भलीभांति जानते हैं कि जब दो रेडियो स्टेशन एक ही फ्रीक्वेंसी पर, या बहुत नज़दीकी फ्रीक्वेंसियों पर प्रसारण करने लगते हैं, तब क्या होता है. चीनी दूसरे रेडियो स्टेशनों की फ्रीक्वेंसियों को दबाने के पहले भी उस्ताद रहे हैं, अब वे यही ज़बरदस्ती अंतरिक्ष में भी करने लगे हैं. अनातोल योहांज़न कहते हैं, "चीनी बड़े अड़ियल हैं. वार्ताओं के अब तक तीन दौर हो चुके हैं. वे कहते हैं, हम पहले पहुंचे हैं, इसलिए हमारा अधिकार पहले बनता हैं. बाक़ी बातों से हमें कोई मतलब नहीं."

ऐसे में यूरोप वालों के पास बहुत अधिक विकल्प भी नहीं हैं. "वे कह सकते हैं कि ठीक है, तो हम अपने सिग्नलों की शक्ति बढ़ा देते हैं. उदाहरण के लिए, 50 वाट के बदले 500 वाट या पांच हज़ार वाट कर देते हैं. तब दूसरे पक्ष के सिग्नल एक दम दब जायेंगे. लेकिन, यह तो अंतरिक्ष में युद्ध की घोषणा हो जायेगी, जिसे हम टालना चाहते हैं," अनातोल योहांज़न बताते हैं.

इस समय नेविगेशन उपग्रहों के लिए 1.1 से 1.6 गीगाहेर्त्स वाले बैंड पर ही फ्रीक्वेंसियां उपलब्ध हैं. अमेरिकी जीपीएस सिस्टम के 30 उपग्रह पहले से ही इस बैंड पर हैं. इस बीच रूसी भी अपनी ग्लोनास प्रणाली के 30 उपग्रहों के साथ इसी बैंड का उपयोग कर रहे हैं. अब चीनी आ रहे हैं 35 उपग्रहों के साथ. यूरोपीय प्रणाली गालिलेओ के आने पर उपग्रहों की कुल संख्या क़रीब 120 हो जायेगी. विशेषज्ञों को डर है कि नेविगेशन उपग्रहों की यह भीड़ इस संकरे से फ्रीक्वेंसी बैंड में समा नहीं पायेगी और एक-दूसरे के काम में कोलाहल भरी बाधा डालेगी.

रिपोर्ट: राम यादव

संपादन: महेश झा