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दबाव में है भारत का हेल्थकेयर सिस्टम

शिवप्रसाद जोशी
१६ अगस्त २०१७

गोरखपुर के सरकारी अस्पताल में दर्जनों बच्चों की मौत ने भारत में स्वास्थ्य सेवाओं के संकट को सामने ला दिया है. गोरखपुर स्वास्थ्य सेवाओं की अनदेखी और प्रशासनिक लापरवाही का आपराधिक उदाहरण बन गया है.

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Situation in Krankenhäusern Kalkutta Indien
तस्वीर: DW/P. Samanta

आजादी की 70वीं सालगिरह के बीच 70 से ज्यादा बच्चों की मौत ने कई सवाल खड़े किए हैं. गोरखपुर के सरकारी अस्पताल की इस घटना ने जुलाई 2004 में तमिलनाडु के एक प्राइमरी स्कूल में हुए भीषण अग्निकांड की याद भी दिला दी जिसमें 90 से ज्यादा बच्चे जल मरे थे. लेकिन देश के किसी सरकारी अस्पताल में इतने बड़े पैमाने पर मौतों का ये पहला मामला है. ऐसा नहीं है कि इन्सेफेलाइटिस नाम की ये बीमारी लाइलाज है लेकिन घटना के तमाम नैतिक और राजनैतिक पहलुओं के बीच इस बात पर भी सोचें कि 70 साल बाद भी ऐसी मौतें उस देश में संभव हैं जो रोज नई ऊंचाइयों को छूने को तत्पर, लालायित और दावेदार बना हुआ है. इस घटना ने देश के स्वास्थ्य मिशन की पोल भी खोल दी है और उस बड़े खतरे की ओर भी संकेत किया है जो सरकारी सेवाओं के धीरे धीरे निजी हाथों में विलीन होते जाने के रूप में देखा जा रहा है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के स्वास्थ्य सूचकांक में, भारत का नंबर 195 देशों की सूची में 154वां है. भारत सरकार ने इसी साल मार्च में, 2002 की नीति को हटाकर नई राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 को मंजूरी दी है. कुल मिलाकर अच्छे स्वास्थ्य के यथासंभव उपाय का बीड़ा इस नीति ने उठाया है जिसमें मरीजों पर वित्तीय बोझ नहीं पड़ेगा. सबको सस्ता, सुलभ और सुरक्षित इलाज मिलेगा. लेकिन इस सपने को पूरा करने के लिए जिस चीज की जरूरत है उसका इस देश में 70 साल से अभाव बना हुआ है और वो है इच्छाशक्ति.

2017-18 के केंद्रीय बजट में स्वास्थ्य सेवाओं के लिए करीब 488 अरब रुपये का प्रावधान है. ये 23 फीसदी की बढोतरी है. इसी के तहत राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन का बजट भी 226 अरब से बढ़ाकर 271 अरब रुपये कर दिया गया. बजट बढ़ा दिया गया है, एम्स जैसे संस्थान खुलेंगे, भर्तियां खुलेंगी, दवाएं और उपकरण सस्ते होंगे. लेकिन केंद्रीय बजट की उछालें, राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति की उछालों से कोई रिश्ता ही नहीं बना पा रही है. बजट, इस नीति को लेकर खामोश है. दोनों एक चीज में समान है और वो है निजी सेक्टर की अधिकतम भागीदारी. आज हालत ये है कि भारत में सभी तरह के स्वास्थ्य खर्चों में से 60 फीसदी खर्च, लोग अपनी जेब से करते हैं, जिसे स्वास्थ्य आर्थिकी में आउट ऑफ पॉकेट एक्सपेंडीचर भी कहा जाता है. वित्तीय सुरक्षा के अभाव मे बीमारियों के इलाज में हर साल करीब छह करोड़ तीस लाख लोग अपना सर्वस्व गंवाकर गरीब हो जाते हैं. देश के कुल प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में 22 फीसदी और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में 32 फीसदी की कमी बनी हुई है. 50 फीसदी लोग किसी तरह का उपचार हासिल करने के लिए सौ किलोमीटर से ज्यादा का सफर करते हैं. और भारत में स्वास्थ्य सेवाओं का 70 प्रतिशत बुनियादी ढांचा देश के टॉप 20 शहरों में लगा है. सरकारी सुविधाओं की बदहाली के बीच निजी अस्पताल, क्लिनिक आदि का बोलबाला है. पिछले 20 साल में ग्रामीण और शहरी इलाकों में, निजी अस्पतालों में इलाज कराने की दर में बढोतरी हुई है. 2014 को ही देखें तो ग्रामीण इलाकों में 42 फीसदी लोग सरकारी अस्पतालों में गए और 58 फीसदी लोग निजी में, शहरी इलाकों में 32 फीसदी सरकारी तो 68 फीसदी निजी अस्पतालों में गए.

दूसरी सच्चाई ये भी है कि देश में स्वास्थ्य सेक्टर में विदेशी पूंजी निवेश धाराप्रवाह आ रहा है, बल्कि इसकी खेप बढ़ती ही जा रही है. वित्तीय वर्ष 2016 में ये निवेश करीब 65 करोड़ डॉलर का था. इस सच्चाई का दूसरा सिरा हेल्थ टूरिज्म से जुड़ता है जिसमें भारत विदेशियों को लुभा रहा है. रहना खाना, दवादारू, आना जाना सस्ता है. भारत का मौजूदा कॉरपोरेट हेल्थ केयर बाजार सौ अरब डॉलर का माना जाता है. 2020 तक इसके 280 अरब डॉलर हो जाने का अनुमान है यानी कि करीब तीन गुना उछाल. 2017-18 में इसका राजस्व, 15 फीसदी की दर से बढ़ने का अनुमान है. मेडिकल टूरिज्म में 22-25 फीसदी की वृद्धि हो रही है. मेडिकल इंडस्ट्री इस समय तीन अरब डॉलर की है, अगले साल दोगुना हो जाने का अनुमान है. 2015 में सवा लाख मेडिकल टूरिस्ट भारत आए थे. 2016 में ये संख्या दो लाख हो गई.

हेल्थकेयर और मेडिकल का ये चमकदार टूरिज्म, भारत के जमीनी यथार्थ से मेल नहीं खाता. अट्टालिकावादी चिकित्सा और सरकार की अनिच्छा के बीच चरमराई व्यवस्था और असहाय पीड़ित नागरिक हैं. एक अलग ही तरह का विरोधाभास पनप गया है. डॉक्टर, नर्स, अन्य स्टाफ नहीं हैं या महंगे हैं. अस्पताल नहीं हैं या महंगे हैं. उपकरण नहीं हैं या महंगे हैं, दवाएं नहीं हैं या महंगी हैं. ये सब चीजें एक सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा की बेहतरी के आड़े आ रही हैं. पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के बाद तो आम जन दोराहे पर है या गोरखपुर जैसे हादसों की गिरफ्त में है. आखिर वह कहां जाए.