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न खेती न मनरेगा, ग्रामीण भारत पर कसता शिकंजा

शिवप्रसाद जोशी
१६ जनवरी २०१९

भारतीय ग्रामीण आबादी के लिए ये शायद सबसे कठिन दौर है. किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए तरस रहे हैं तो मनरेगा के प्रति सरकारी उदासीनता से ग्रामीण बेरोजगार संकट में हैं.

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Indien Neu Delhi Proteste von Bauern
कृषि क्षेत्र में दुर्दशा के खिलाफ प्रदर्शन करने दिल्ली पहुंचे तमिलनाडू के कुछ किसानतस्वीर: DW/M. Krishnan

भारत के 90 सांसदों और 160 शिक्षाविदों, सिविल सोसायटी के सदस्यों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, किसान नेताओं और संस्कृतिकर्मियों के एक समूह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक चिट्ठी लिखी है. इस चिठ्ठी में ग्रामीण रोजगार की विराट परियोजना 'मनरेगा' को बंद न करने और उसकी फंडिग की किल्लत को दूर करने का आग्रह किया गया है.  साथ ही कहा गया है कि सरकार को मौजूदा ग्रामीण और कृषि संकट से निपटने के लिए किए जा रहे उपायों में मनरेगा को भी शामिल करना चाहिए.

बताया जाता है कि वित्तीय वर्ष के खत्म होने से तीन महीने पहले ही पहली जनवरी को मनरेगा का 99 फीसदी फंड खत्म हो चुका है. चिट्ठी में कहा गया है कि बजट आवंटन में रुकावटें, भुगतान में देरी और मानदेय में कटौती जैसे मुद्दे इस योजना को बर्बाद कर रहे हैं और लोग संकट में हैं.

खेती किसानी से होने वाली आय में गिरावट, बढ़ती हुई गैर बराबरी और बड़े पैमाने पर बेरोजगारी ने लोगों को भारी मुसीबतों में धकेल दिया है. मनरेगा पर सत्ता अभिजात के बढ़ते हमलों की निंदा करते हुए अपील की गई है कि इस समय मनरेगा को चौतरफा हमलों से बचाए जाने की जरूरत है न कि उसकी ओर से आंख मूंद लेने की.

आरबीआई के आंकड़ों में कहा गया है कि जीडीपी प्रतिशत मे मनरेगा को मिलने वाला बजट 2010-11 में 0.51 प्रतिशत से घटकर 2017-18 में 0.38 प्रतिशत रह गया है. राष्ट्रीय सैंपल सर्वे के मुताबिक रोजगार से जुड़े 40 फीसदी परिवार अनुसूचित जाति (एससी) या अनुसूचित जनजाति (एसटी) समुदायों से हैं.

ग्रामीण महिलाओं की बढ़ी हुई भागीदारी भी मनरेगा का एक उजला पक्ष है. इस योजना के अंतर्गत समान काम के लिए समान मानदेय की व्यवस्था है. मनरेगा से आर्थिकी को एक लाभ ये भी बताया जाता है कि सौ रुपये का खर्च 400 रुपये के लाभ में तब्दील हो सकता है. लेकिन पिछले तीन चार वर्षों से देश के विभिन्न हिस्सों से मनरेगा के भुगतान में देरी या कटौती की खबरें भी मिली हैं, कहीं भ्रष्टाचार और दलालों का बोलबाला है तो कहीं 'काम नहीं है' कि तख्तियां लग चुकी हैं.

मामले का दूसरा पहलू ये है कि मनरेगा के बहाने खेती की अवहेलना हो रही है और किसानों को अपने ही घर में मजदूर बना दिया गया है. बेशक कुछ समस्याएं और मुद्दे पेंचीदा जरूर हैं. खराबी क्रियान्वयन में हो सकती है लेकिन अपनी अवधारणा में मनरेगा एक कल्याणकारी और ग्रामीण इलाकों को आत्मनिर्भर बनाने वाली योजना है. मनरेगा की संकल्पना से जुड़े ज्यां द्रेज जैसे अर्थशास्त्री भी उसमें सुधार की बात कह चुके हैं. लेकिन उसे व्यर्थ बताने वाली कॉरपोरेट और सत्ता की लॉबियां इन वर्षों में लगातार सक्रिय रही हैं जो उसे देश की आर्थिकी पर बोझ बताने की हद तक जाती हैं.

मनरेगा की निराशा के बीच ग्रामीण इलाके खेती के लिहाज से भी बदहाल हैं. पैदावार के लागत मूल्य का एक सीधा सा सवाल आजाद भारत में आज तक टेढ़ा ही बना हुआ है - उत्पादन मूल्य से लेकर किसानों को दिए जाने वाले कर्ज तक एक से एक आर्थिक दुश्वारियां बताई जाने लगती हैं लेकिन न उन्हें उचित दाम मिलता है न उचित पर्यावरण. किसान को अर्थव्यवस्था में एक व्यर्थता बताने की कोशिश की जा रही है.

किसानों की कर्ज माफी के सवाल पर सरकारें और राजनीतिक दल वोट केंद्रित रणनीति बनाते बिगाड़ते हैं, बैंक कर्ज माफी पर हड़बड़ाने लगते हैं और अर्थव्यवस्था के ढह जाने का रुदन सुनाई देने लगता है. लेकिन यही कर्ज माफी जब बड़े उद्योगपतियों और कॉरपोरेट जगत के लिए होती है तो उस पर चुप्पी साध ली जाती है. एक आंकड़े के मुताबिक उद्योगपतियों का मई 2018 में खत्म होने वाली तिमाही तक करीब 10 करोड़ 17 लाख रुपये के कर्ज को एनपीए यानि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में फंसे कर्ज की श्रेणी में डाल दिया गया था. जबकि पूरे देश में विभिन्न राज्य सरकारों ने अब तक किसानों का करीब एक करोड़ 84 लाख रुपये का कर्ज ही माफ किया है.

इस बीच किसानों के हालात भी बदतर हुए हैं. वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय द्वारा जारी दिसंबर के होलसेल प्राइस इंडेक्स (डब्लूपीआई) के आंकड़ों के मुताबिक, प्राथमिक खाद्य पदार्थों का डब्लूपीआई जुलाई 2018 से लगातार नकारात्मक रहा है. यानी कीमतें लगातार गिरी हैं. हाल की किसान महारैली, जुलूस और आंदोलनों के पीछे यही आक्रोश था.

हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में बीजेपी सरकारों के पतन के पीछे भी इसी आक्रोश को एक बड़ी वजह माना गया. सरकार की प्रमुख खाद्यान्न व्यापार एजेंसी, नेफेड का कहना है कि 30 हजार करोड़ रुपये की दाल खरीदकर भी किसानों को उनकी लागत का मूल्य चुकाया नहीं जा सका है. कई दालों की कीमतें, न्यूनतम सर्मथन मूल्य से गिर गई हैं. नाफेड की मानें तो इसका कारण है बाजार में खरीद को लेकर उत्साह की कमी. बाजार नोटबंदी के बाद से कराह रहा है. किसानों पर दोतरफा मार पड़ी है. न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिल रहा है, अपना माल वो सस्ता बेचने, और अन्य चीजें महंगी खरीदने पर विवश हैं.

ऊंची और उससे भी ऊंची जीडीपी वृद्धि के लिए लालायित सरकारें, इस वास्तविकता की अनदेखी करती आई हैं कि खेती की उपज में एक फीसदी की बढ़ोत्तरी, औद्योगिक उत्पादन में 0.5 फीसदी की बढ़ोत्तरी करती है. ये निर्विवाद तथ्य है कि देश की औद्योगिक वृद्धि, ग्रामीण क्षेत्र की वृद्धि में निबद्ध है. एक बात ये भी है कि कृषि पर जो सार्वजनिक संसाधन झोंके गए हैं उनमें निवेश का हिस्सा बहुत कम है. इसलिए कृषि संकट तमाम कोशिशों और छिटपुट तात्कालिक उपायों के बावजूद बना हुआ है.

सीधे शब्दों में किसानों को मौजूदा आर्थिकी में टिके रहने की न सिर्फ जगह चाहिए बल्कि उसके लिए संसाधन और सुविधा भी चाहिए. ये उन पर दया नहीं बल्कि उनका अधिकार लौटाने की, देर आए दुरुस्त आए जैसी अक्लमंदी होगी.

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