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नये कानून से कितनी उम्मीद

६ जनवरी २०१४

भारत में 2014 से जमीन पर कब्जे का नया कानून लागू हो गया है. पूरी एक सदी और दो दशक लग गए देश के सबसे महत्त्वपूर्ण और जनाधिकार से जुड़े कानून को बदलने में. पर यह कितना कारगर होगा, सवाल यही है.

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तस्वीर: Tauseef Mustafa/AFP/Getty Images

आजाद भारत में 66 साल से अंग्रेजों का बनाया 1894 का भूमि अधिग्रहण कानून चला आ रहा था. नये कानून को उन तमाम नाइंसाफियों का जवाब बताया जा रहा है जो ब्रिटिश हुकूमत से अब तक तक चली आ रही थी. लेकिन क्या वाकई इस कानून में इंसाफ और अधिकार की गूंज उतनी ही ठोस और मौलिक है जैसा कि दावा किया जा रहा है या ये लोकप्रियतावाद के भेस में वही पुराना हथकंडा है, जिसके दम पर जमीनों के असली मालिकों को देखते ही देखते वंचित और विस्थापित बना दिया जाता रहा है. 12वीं पंचवर्षीय योजना के मुताबिक आजादी के बाद से देश के करीब छह करोड़ लोग विकास प्रोजेक्टों के नाम पर बेदखल किए गए हैं. इनमें से 40 फीसदी आदिवासी हैं.

भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और दोबारा स्थापन अधिनियम, 2013 का मूल स्वर टिका है मुआवजे के अधिकार और पारदर्शिता पर. इसी स्वर के आसपास भूमिधरी समुदाय के हक हकूक के मसलों को कानून में रेखांकित किया गया है. न्यायसंगत, दीर्घकालीन और मुकम्मल पुनर्वास इस कानून का मूल आधार है. बिना उसके कोई भी जमीन किसी भी किसान से देश के किसी भी हिस्से में किसी भी कीमत पर नहीं ली जा सकेगी. सरकारी और पब्लिक प्राइवेट भागीदारी के जिन भी उपक्रमों के लिए जमीन चाहिए होगी उसका अधिग्रहण वहां के 70 फीसदी लोगों की रजामंदी के बाद हो जाएगा और विशुद्ध निजी उपक्रमों के लिए जन सहमति का ये प्रतिशत 80 होगा.

कितना मजबूत कानून

आदिवासी और अनुसूचित इलाकों में जमीन अधिग्रहण अव्वल तो किया ही नहीं जा सकेगा और अगर होगा भी तो इसके लिए वहां जो भी स्थानीय जन प्रतिनिधित्व ढांचा सक्रिय होगा, मिसाल के लिए ग्राम सभा, तो उसके अनुमोदन के बाद ही जमीन ली जा सकेगी अन्यथा नहीं. ओडीशा नियमागिरी में वेदांता के खनन प्रोजेक्ट को वहां के आदिवासियों ने अपनी ग्राम सभाओं के जरिए ही पीछे धकेला था. लेकिन कानून में एक बड़ी खामी आदिवासियों के उचित चिह्नीकरण की है. पांचवें शेड्यूल से बाहर भी देश में आदिवासी समुदाय हैं, जिनकी संख्या जानकारों के मुताबिक कुल आदिवासी आबादी की कोई 50 फीसदी से ज्यादा बैठती है, उनकी जमीनों का क्या होगा.

Galerie Indigene Guardians of the Forest
तस्वीर: Survival International

हम जानते हैं कि देश का 90 फीसदी कोयला आदिवासी इलाकों में हैं. 50 प्रतिशत के करीब प्रमुख खनिजों के स्रोत वहीं हैं और ऊर्जा संभावनाएं भी वहीं बिखरी हुई हैं. तो निशाने पर सबसे ज्यादा यही समुदाय है जो पूरे देश में बिखरा हुआ है. तो क्या ये बिल आर्थिक उदारवाद के ताजा चरण की आंधी में इन इलाकों को बचाएगा या उन्हें खोदने के लिए इस कानून की ढाल लेकर जाएगा. बेशक इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि नया कानून हक के रास्ते पर एक बड़ी राहत की तरह आया है. इसमें जाहिर है विकास के उपनिवेशी मॉडल का मुखरता से विरोध करते आ रहे जनसंघर्षों और उनके पक्ष में खड़ी आवाजों का भी योगदान है. बिल में 26 सब्स्टैन्शल यानी पक्के संशोधन किए गए हैं. नये कानून के लागू होने के बाद लाजिमी हो गया है कि 13 और कानूनों में भी संशोधन किए जाएं जिनका संबंध किसी न किसी रूप में भूमि अधिग्रहण और विकास परियोजनाओं से है. इनमें सबसे प्रमुख तो कोयला क्षेत्र अधिग्रहण और विकास कानून 1957, भूमि अधिग्रहण (खदान) कानून 1885, और राष्ट्रीय राजमार्ग अधिनियम, 1956 हैं.

नए कानून में जमीन अधिग्रहण बेशक मनमर्जी का नहीं होगा लेकिन इसके दूसरे पहलू भी देखें. ऐसा तो है नहीं कि सरकार उदारवाद से पीछे हटी हो और मुक्त बाजार से उसका मोह टूटा हो. वो तो और मुक्तगामी हुई जा रही है. जो भी सरकार आएगी वो भला पीछे क्यों रहेगी. निर्माण परियोजनाएं लाना गलत नहीं. जरूर लाइए लेकिन ऐसा तो नहीं हो सकता कि लोगों को कह दो तुम जाओ, ये पहाड़ जल जंगल जमीन आज से हमारे. तो बिल इस खुराफात को रोकेगा. लेकिन कब तक रोकेगा. क्या उसमें किसी भी हद तक जाकर या ऐसा कड़ा से कड़ा प्रावधान है, जो राष्ट्रहित के नाम पर लोगों को बरगलाता जान पड़े तो फौरन कार्रवाई हो सके.

क्या है कमजोरी

कानून में प्रभावित लोगों को अच्छी खासी नकद राशि या बड़े मुआवजे या भविष्य की आकर्षक सहूलियतों का इंतजाम है. लेकिन क्या इनके झांसे में फंसाकर, लोगों को एक खुशनुमा भविष्य का सपना दिखाकर जमीनें ऐंठना कठिन होगा. क्या ग्राम सभाओं को “मैनेज” करने की कुटिलता नहीं होगी. नया कानून कॉरपोरेट, निगमों और कंपनियों की संभावित “अधमताओं” पर खामोश है और यही इसकी एक बुनियादी कमजोरी भी है.

एक और आशंका देखिए. रियल एस्टेट और जमीन के कारोबार से जुड़े बड़े बिल्डर और ठेकेदारों के लिए इस बिल में पौ बारह होने की सुनहरी नौबतें भी हैं. जमीनों के दाम बढ़ेंगे, अपार्टमेंट बनाने या दूसरे इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्टों की कीमतों में उछाल आएगा. निर्माण सेक्टर, ऊर्जा सेक्टर, खनन सेक्टर के कॉरपोरेट धुरंधर नए कानून पर जितना चाहें, भौहें चढ़ाएं लेकिन कुल मिलाकर निवेश और आर्थिक उदारवाद का चक्का भीषण तेजी से घूमेगा और जमीनों के वास्तविक मालिक और दूर नहीं फिंकवा दिए जाएंगे, कौन जानता है.

बेशक कानून में ये प्रावधान है कि पांच साल पुराने अधिग्रहण इसके दायरे में होंगे और मुआवजा भारी भरकम होगा और पुनर्वास के नियम नए सिरे से ही तय होंगे. लेकिन वे मामले जो और पहले के हैं. वे लोग जो अपनी अपनी जमीनों से विस्थापित होकर भूमंडलीय पूंजी के रचाए अन्य असहाय ठिकानों को कूच कर गए हैं. उनका क्या होगा. मिसाल के लिए टिहरी बांध या नर्मदा के बांधों के विस्थापितों को देखिए. जैतपुर और कुडनाकुलम तो हाल के ही अधिग्रहण हैं, और यूपी के एक्सप्रेस हाइवे और फॉर्मूला वन रेस सर्किट के विस्थापित- नए कानून की झिलमिल में क्या उनका संकट किसी को दिखेगा.

ब्लॉग: शिवप्रसाद जोशी

संपादन: अनवर जे अशरफ

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