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समाज

नहीं सुलझ पा रही किसानों की समस्याएं

अपूर्वा अग्रवाल
७ अक्टूबर २०१८

भारत के किसानों को अगर शहरों में अच्छी नौकरी मिले तो वो खेतीबाड़ी तुरंत छोड़ देंगे. सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के एक सर्वेक्षण मुताबिक देश के 61 फीसदी किसानों की यही सोच है.

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तस्वीर: Getty Images/AFP/P. Singh

तकरीन डेढ़ साल पहले तमिलनाडु के किसान दिल्ली के जंतर मंतर पर प्रदर्शन के लिए जुटे थे. इसके बाद मध्यप्रदेश के मंदसौर जिले में हुई पुलिस फायरिंग के दौरान पांच किसानों की मौत हो गई थी. मार्च 2018 में करीब सात राज्यों के 35 हजार किसान 180 किमी की लंबी पदयात्रा के बाद अपनी मांगों के साथ मुंबई पहुंचे थे. इसके बाद उत्तर प्रदेश के किसानों ने दिल्ली की ओर कूच किया, हर बार उम्मीद बस इतनी कि अब जमीन पर कुछ ठोस होगा. भारतीय किसान यूनियन से जुड़े धर्मेंद्र मलिक कहते हैं, "इन प्रदर्शनों का मकसद बस यही है कि सरकार हमारी समस्याओं को समझे, संज्ञान ले. फसलों का उचित मूल्य दिलाए. लेकिन ऐसा कुछ होता नहीं है. यह पूरी व्यवस्था ही खराब है, ऐसे में देश का किसान जब तक पूरी मजबूती के साथ खड़ा नहीं होगा, तब तक शायद ही कुछ बदलेगा."

सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) ने दिसंबर 2013 से जनवरी 2014 के बीच देश के 18 राज्यों में किसानों के बीच एक सर्वेक्षण कराया था. इस सर्वेक्षण में देश के 61 फीसदी किसानों ने माना कि अगर उन्हें शहरों में अच्छी नौकरी मिले तो वे खेतीबाड़ी छोड़ देंगे. सर्वेक्षण में शामिल एक तिहाई किसानों ने कहा कि अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए उन्हें खेती से इतर भी कमाई करनी पड़ती है. अब सवाल उठता है कि आखिर किसानों की ऐसी क्या समस्याएं हैं जिन्हें सरकार निपटाना तो दूर समझने में ही असफल साबित हो रही है.

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तस्वीर: AP

सबसे बड़ी समस्या

किसानों की एक बड़ी समस्या है जमीन. साल 2015 में आई विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत की तकरीबन 60.3 फीसदी भूमि कृषि योग्य है. भारत के वाणिज्य व उद्योग मंत्रालय द्वारा बनाए गए ट्रस्ट इंडिया ब्रांड इक्विटी फाउंडेशन की रिपोर्ट भी यही कहती है कि भारत के पास अमेरिका के बाद दुनिया की दूसरी सबसे अधिक कृषि योग्य भूमि है. हालांकि सच्चाई यह है कि जमीनी स्तर पर आज भी देश उत्पादन के मामले में पिछड़ा हुआ है. संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन ने साल 2013 में एक रिपोर्ट में कहा था कि भारत की 44 हेक्टेयर जमीन पर 10.619 करोड़ टन चावल की पैदावार की गई. मतलब प्रति हेक्टेयर 2.4 टन. जो उत्पादन श्रेणी में भारत को दुनिया के 47 देशों की सूची में 27वें स्थान पर रखता है.

ऐसे में सवाल है कि आखिर क्यों कृषि योग्य भूमि होते हुए भी देश का किसान ना तो उत्पादकता बढ़ा पा रहा है और ना ही मुनाफा कमा पा रहा है. पिछले कई दशकों से औसतन कृषि जोत का आकार लगातार घट रहा है. साल 2012-13 में आई भारतीय कृषि रिपोर्ट के मुताबिक, छोटे खेतों की संख्या कुल खेतों की संख्या का 85 फीसदी है, लेकिन उनका क्षेत्रफल कुल क्षेत्रफल का मात्र 44 फीसदी है. इसका मतलब है कि देश में कुछ अमीर किसान हैं तो कुछ भूमिहीन. इसके लिए कुछ जानकार देश के विरासत कानून को जिम्मेदार मानते हैं. इसके तहत पिता की जायदाद को बच्चों में बराबरी से बांट दिया जाता है, जिसके चलते जमीन के टुकड़े छोटे होते चले जाते हैं. छोटे टुकड़ें पर होने वाली ये खेती, कृषि के पिछड़ेपन और उत्पादकता में कमी लाती है.

बीज, खाद, उर्वरक

दूसरा स्थान आता है बीजों का. अच्छी उत्पादकता के लिए उच्च गुणवत्ता वाले बीजों की दरकार होती है. लेकिन अपनी कीमतों के चलते अच्छे बीज सीमांत और छोटे किसानों की पहुंच से बाहर हैं. इसी समस्या से निपटने के लिए कृषि मंत्रालय के अधीन साल 1963 में राष्ट्रीय बीज निगम का गठन किया गया. साथ ही 13 राज्यों में बीज निगम स्थापित किए गए ताकि किसानों की जरूरतों को पूरा किया जा सके. लेकिन अब तक किसानों को अच्छे बीजों के लिए दर-दर भटकना पड़ता है.

तीसरी समस्या है, खाद, उर्वरकों और कीटनाशकों की उपलब्धता. देश में कई दशकों से खेती की जा रही है. जिसके चलते अब एक बड़ा क्षेत्र अपनी उर्वरता खो रहा है. इस स्थिति में गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए खाद और उर्वरक का इस्तेमाल ही एकमात्र विकल्प बचता है. फसल को कीटों से बचाने के लिए कीटनाशकों का इस्तेमाल भी अब किसानों के लिए जरूरी हो गया है. इन बढ़ती जरूरतों ने किसान का मुनाफा घटाया है. कई बार उपजाऊ जमीन के बड़े इलाकों पर हवा और पानी के चलते मिट्टी का क्षरण होता है. इसके चलते मिट्टी अपनी मूल क्षमता खो देती है और इसका असर पैदावार पर पड़ता है.

न्यूनतम सर्मथन मूल्य

फसलों पर मिलने वाला न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) भी किसानों के लिए गले की हड्डी बन गया हैं. किसानों की शिकायत है कि उन्हें अपनी फसल का सही मूल्य नहीं मिलता. हाल में सरकार ने घोषणा की थी कि अधिसूचित फसलों के लिए सरकार किसानों को उनकी फसल की लागत का कम से कम डेढ़ गुना मूल्य देगी. लेकिन किसान इससे संतुष्ट नहीं है, वे मानते हैं कि ईंधन के बढ़ते दामों के बीच एमएसपी को बढ़ाए जाने से किसानों को कोई खास फायदा नहीं होगा. एमएसपी को लेकर अर्थशास्त्री यह भी तर्क यह भी देते हैं कि अगर एमएसपी को बढ़ाया जाएगा तो देश में मुद्रास्फीति बढ़ेगी.

इन समस्याओं के अलावा किसानों की बाजार तक सीमित पहुंच, बिचौलियों की भूमिका, अपर्याप्त भंडारण सुविधा और कृषि में पूंजी की कमी ने उनकी स्थिति को और भी खराब कर दिया है. आज बेशक किसानों को कर्ज देने के लिए कई सरकारी संस्थाएं सामने आ गईं हैं, लेकिन अब भी यह ऋण प्रक्रिया किसानों को आसान व सरल नहीं लगती. जिसके चलते किसान आज भी बैंकों से कर्ज लेने से कतराते हैं और निजी कर्ज को तरजीह देते हैं. जब तक सरकारें इन मुद्दों पर ठोस तरीके से नहीं सोचेंगी, किसानों की किस्मत नहीं बदलेगी.