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निरंकुशवादियों के हित में रहा ट्रंप का भाषण

२६ सितम्बर २०१८

संयुक्त राष्ट्र महासभा में अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय को आड़े हाथों लिया. उनके भाषण में एक निरंकुशवादी लहजा साफ नजर आया, जो अमेरिका के अलग-थलग रुख को दिखाता है.

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US-Präsident Trump spricht vor der Generalversammlung der Vereinten Nationen in New York
तस्वीर: Reuters/C.Allegri

संयुक्त राष्ट्र महासभा में पिछले साल अपने भाषण में अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देश उत्तर कोरिया को खत्म करने की धमकी दी थी. महासभा में दिए अपने दूसरे भाषण में ट्रंप ने किसी भी सदस्य राष्ट्र को कोई धमकी नहीं दी, बल्कि इस बार उन्होंने पूरे अंतराराष्ट्रीय समुदाय को आड़े हाथों लिया और अंतराराष्ट्रीय बहुपक्षीय सहयोग के सिंद्धातों की आलोचना की.

जैसा कि राष्ट्रपति बनने के बाद अपने पहले भाषण में उन्होंने किया था, इस बार भी ट्रंप ने दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका को ऐसे प्रस्तुत किया जैसे वह दुष्ट ताकतों से शोषित एक पीड़ित है और वे उसके रक्षक हैं. ट्रंप के मुताबिक अमेरिका के हितों और संप्रभुता को जिन कारणों से आज खतरा है उनमें से एक है "ग्लोबल गवर्नेंस"

राष्ट्रवाद को तवज्जो

ट्रंप का दावा है कि संयुक्त राष्ट्र जैसे संगठन अमेरिका पर हावी हो रहे हैं. बहुपक्षवाद और संप्रभुता जैसे मुद्दों पर उनके पास एक सरल और घिसा पिटा जवाब है: राष्ट्रवाद. वही राष्ट्रवाद जो चुनाव के दौरान उनके "मेक अमेरिका ग्रेट अमेरिका" और "अमेरिका फर्स्ट" जैसे नारों में झलकता था. इसने उन्हें चुनाव जिताया और ट्रंप के अनुसार यही बुरी अंतरराष्ट्रीय ताकतों को अमेरिका से दूर भी करेगा. ट्रंप के शब्दों में, "अमेरिका को अमेरिकी ही चलाएंगे, हम वैश्विकता की विचारधारा का बहिष्कार करते हैं." इस तरह की विचारधारा से उन्हें चुनावी रैलियों में तो फायदा मिल सकता है लेकिन संयुक्त राष्ट्र के हेडक्वॉर्टर में जमा हुए दुनिया भर के नेताओं के सामने यह हरगिज काम नहीं आएगी.

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उनके झूठे दावों पर भी यही लागू होता है. ट्रंप ने अपने भाषण की शुरुआत में ही कहा कि अमेरिका के इतिहास में कभी कोई और सरकार इतनी सफल नहीं रही, जितनी उनकी. संयुक्त राष्ट्र महासभा में उनकी इस टिप्पणी पर लोगों ने संदेह जताया और खिल्ली भी उड़ाई. कुछ ऐसी ही प्रतिक्रिया जर्मन प्रतिनिधिमंडल ने भी दी, जब ट्रंप ने आलोचना करते हुए कहा कि अगर जर्मनी ने विवादित गैस पाइपलाइन पर लिए गए अपने निर्णय को नहीं बदला तो ऊर्जा के लिए वह पूरी तरह से रूस पर निर्भर हो जाएगा.

रूस से नहीं ली टक्कर

यह पहला ऐसा मौका रहा जब ट्रंप ने रूस की आलोचना की लेकिन यहां भी रूस की सीरिया में कार्रवाई, अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में उसका दखल, ब्रिटेन में रूसी जासूस को जहर देना, पत्रकारों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर रूस के हमलों जैसी किसी भी बात का ट्रंप के भाषण में उल्लेख नहीं था. अपने भाषण में वे न सिर्फ समूचे अंतरराष्ट्रीय समुदाय को, बल्कि अमेरिका के परंपरागत कारोबारी साझेदार और ओपेक समूह में शामिल देशों को भी आड़े हाथों ले रहे थे. ट्रंप ने इस मौके पर चीन और ईरान की भी कड़ी आलोचना की लेकिन रूस इससे बचा रहा. कुल मिलाकर ट्रंप के भाषण के बाद रूस को जाहिर तौर पर विजेता माना जा सकता है

संयुक्त राष्ट्र में अपने भाषण से दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश के राष्ट्रपति निरंकुशवादी नेताओं को हरी झंडी दिखा दी है कि वे संयुक्त राष्ट्र और उस जैसी अन्य वैश्विक एजेंसियों की फिक्र किए बिना राष्ट्र हित में जो जरूरी समझें, वो करें.

बीते एक साल में अमेरिका ईरान न्यूक्लियर डील और पेरिस जलवायु समझौते से बाहर आ चुका है. साथ ही वह संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद और यूनेस्को को भी छोड़ चुका है. अपने भाषण में संप्रभुता को वापस पाने के लिए कुछ भी कहने और करने को जायज ठहराते हुए ट्रंप ने स्वंय को अन्य नेताओं के लिए एक रोलमॉडल की तरह पेश किया है.

शिष्टता त्याग दी

ट्रंप के भाषण ने इस बात साफ कर दिया है कि उनकी सरकार अब एक बहुपक्षीय सदस्य की अपनी भूमिका से पीछे हटने और राष्ट्रवाद की भावनाओं से प्रभावित होकर आगे बढ़ने को लेकर गंभीर है. ट्रंप का यह कहना कि भविष्य में अमेरिका उन्हीं देशों को सहायता राशि देगा जिनसे उसकी मित्रता है, यह वही छोटी सोच है जो उनके भाषणों और फैसलों में झलकती है. ये न सिर्फ अमेरिका की राजनीतिक साख को कमतर करने वाला एक अदूरदर्शी फैसला है, बल्कि यह मानवीय शिष्टता का त्याग भी है.

ट्रंप के भाषण से कुछ भी सकारात्मक तो नहीं निकलता लेकिन अंतरराष्ट्रीय समुदाय को यह सीख जरूर मिलती है जब तक यह अमेरिकी राष्ट्रपति व्हाइट हाउस में है तब तक अमेरिका वैश्विक मामलों से पीछे हटता रहेगा. इससे जो खालीपन पैदा होगा, उसे भरने की तैयारी अभी से शुरू करनी होगी.

ये एक बड़ी चुनौती है, लेकिन यह संभव है क्योंकि ट्रंप ने अंतरराष्ट्रीय मंच पर अमेरिका को अलग-थलग कर दिया है. ट्रंप और उनकी नीतियां दुनिया के बड़े हिस्से में अलोकप्रिय हैं. महासभा में दिए गए भाषण के दौरान वहां मौजूद दर्शकों की प्रतिक्रिया भी यही साबित करती है. लेकिन ट्रंप को नापसंद करना ही काफी नहीं है. अगर अंतरराष्ट्रीय बिरादरी एक ऐसी वैश्विक व्यवस्था को टालना चाहती है जहां केवल सबसे शक्तिशाली देश ही सारे फैसले लें, तो उसे संयुक्त राष्ट्र जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठनों को बचाने की दिशा में काम करना होगा.

मिषाएल क्निगे

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