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पर्यावरण मसौदे के खिलाफ इकट्ठा हो रहा है पूर्वोत्तर

प्रभाकर मणि तिवारी
१९ अगस्त २०२०

भारत सरकार के पर्यावरण असर आकलन (ईआईए) के मसौदे के खिलाफ पूर्वोत्तर भारत में लगातार और सबसे ज्यादा विरोध हो रहा है. इस कानून का सबसे ज्यादा असर देश के इसी इलाके पर पड़ेगा.

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Indien Assam EIA Protest
तस्वीर: DW/Prabhakar

इलाके के तमाम संगठन इसके खिलाफ आंदोलन की राह पर हैं. कई नेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं और संगठनों ने इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री और केंद्र सरकार को पत्र भी भेजे हैं. इन लोगों की दलील है कि नए कानून का इलाके के पर्यावरण औऱ पारिस्थितिक तंत्र पर बेहद प्रतिकूल असर पड़ेगा. खासकर असम के तमाम संगठन तो बाघजान में तेल के कुएं में लगी आग और पाटकाई इलाके में कोयला खनन की नई परियोजना को मंजूरी दिए जाने के बाद दूध के जले के छाछ भी फूंक-फूंक पर पीने की तर्ज पर कोई खतरा नहीं मोल लेना चाहते.

विरोध क्यों

लेकिन पूर्वोत्तर के तमाम संगठन आखिर इस मसौदे का सबसे मुखर विरोध क्यों कर रहे हैं? इसकी वजह इलाके का संवेदनशील पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र है. इन संगठनों का कहना है कि इस मसौदे के कानून में बदलने के बाद किसी परियोजना को हरी झडी दिखाने से पहले उसमें आम लोगों की भागीदारी और उनकी राय की अहमियत बहुत कम हो जाएगी. दरअसल, पर्यावरण संबंधी परियोजनाओं को मंजूरी के पहले परियोजना से पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव की आकलन रिपोर्ट पेश करनी पड़ती है. लेकिन बीते वर्षों में तमाम ऐसे मामले सामने आए हैं जहां कंपनियों को न सिर्फ मंजूरी मिलती है बल्कि उनको जवाबदेहियों से भी मुक्त किया जाता रहा है.

केंद्र की ओर से पेश उक्त मसौदे में सार्वजनिक परामर्श के बिना ही अंतरराष्ट्रीय सीमा के सौ किमी के दायरे में उद्योगों की स्थापना का प्रस्ताव है. इसका असर इलाके के तमाम राज्यों पर पड़ना तय है. उद्योगों की स्थापना के लिए बड़े पैमाने पर जमीन की जरूरत होगी. नतीजतन विस्थापन तेज होगा. इससे पर्यावरण, पारिस्थितिक तंत्र और संस्कृति को जो नुकसान होगा उसकी भरपाई लगभग असंभव होगी.

Indien Brand in Ölquelle bedroht Ökologie in Assam
आग बुझाने की कोशिश में लगे कर्मीतस्वीर: picture-alliance/AP Photo/P.S. Das

दरअसल, केंद्र सरकारें ईज आफ डूइंग बिजनेस के नाम पर हर साल ईआईए अधिसूचना में संशोधन कर विभिन्न परियोजनाओं अथवा उद्योगों को इसके दायरे से बाहर करने के प्रयास करती रही है. ताजा मसौदे में ऑनशोर और ऑफशोर तेल व गैस ड्रिलिंग से जुड़ी तमाम गतिविधियों को बी-2 श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है. इस वर्ग में शामिल परियोजनाओं को किसी भी तरह की इनवायरनमेंट क्लीयरेंस रिपोर्ट की जरूरत नहीं होगी.

हाल की घटनाओं को ध्यान में रखते हुए असम में इस मसौदे का विरोध करने वालों की दलीलों में दम नजर आता है. केंद्रीय वन व पर्यावरण मंत्रालय के तहत आने वाले नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्डलाइफ ने इस साल 17 अप्रैल को दीहिंग पाटकाई वाइल्डलाइफ सैंक्चुरी में ओपन कास्ट कोल माइनिंग की अनुमति दे दी जबकि पहले से ही 57.20 हेक्टेयर जमीन पर खनन का काम हो रहा था. लगभग 575 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ दीहिंग पाटकई एक एलीफेंट रिजर्व और रिजर्व रेनफॉरेस्ट भी है.राज्य में इसका बड़े पैमाने पर विरोध हो रहा है. इसके बाद मई में ही मंत्रालय ने तिनसुकिया जिले के डिब्रू-साइखोवा नेशनल पार्क में आयल इंडिया को सात नई जगहों पर ड्रिलिंग की अनुमति दे दी.

राज्य में हाल में ऐसी कुछ घटनाएं हो चुकी हैं जिनका पर्यावरण पर बेहद प्रतिकूल असर पड़ा है. इनकी वजह से जान-माल का नुकसान तो हुआ ही है, विस्थापन भी तेज हुआ है. इस साल मई में असम के तिनसुकिया के बाघजान तेल कुएं में भयानक आग की घटना में दो लोगों की जान गई और सात हजार से ज्यादा लोगों को विस्थापित होना पड़ा और डिब्रू-साइखोवा नेशनल पार्क को भारी नुकसान पहुंचा. लगभग साढ़े छह सौ वर्ग किलोमीटर में फैले इस नेशनल पार्क और उससे सटे मागुरी मोटापुंग बील क्षेत्र की गिनती पर्यावरण के लिहाज से अति-संवेदनशील इलाकों में की जाती है. यह दुनिया के 35 सबसे संवेदशनशील बायोस्फेयर रिजर्व में शामिल है.

संगठनों की दलील

असम के पूर्व मुख्यमंत्री तरुण गोगोई से लेकर, विधानसभा में विपक्ष के नेता देबब्रत सैकिया और मौजूदा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रिपुन बोरा तक ने ईआईए मसौदे के खिलाफ केंद्र को पत्र भेज कर कड़ा विरोध जताया है. विधानसभा में विपक्ष के नेता देबब्रत सैकिया ने पर्यावरण मंत्रालय को अपनी चिट्ठी में लिखा है, "यह मसौदा पर्यावरण दोहन से आदिवासी समुदायों को होने वाले नुकसानों को दरकिनार करते हुए आदिवासी समुदायों को उनकी ही जमीन से उनके अधिकार को छीनता है. असम जैसे पर्यावरण के लिहाज से अति-संवेदनशील इलाके में पोस्ट-फैक्टो यानी काम शुरू होने के बाद मंजूरी देना एक बेमतलब और नुकसानदेह कदम है.” बोरा ने केंद्र से यह मसौदा वापस लेने का अनुरोध किया है. उनकी दलील है कि यह परियोजनाओं की एक लंबी सूची को सार्वजनिक परामर्श के दायरे से बाहर करता है. इसके कानून बन जाने पर सीमावर्ती इलाकों में सड़क और पाइपलाइन जैसी परियोजनाओं के लिए किसी भी सार्वजनिक सुनवाई की जरूरत नहीं होगी. इसका पूर्वोत्तर के ज्यादातर हिस्से पर प्रतिकूल असर होगा. यह देश के सबसे समृद्ध जैव विविधता वाले इलाकों में शामिल है.

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असम में तेल कुओं में आगतस्वीर: DW/P. Tewari

ऑल असम स्टूडेंट यूनियन के मुख्य सलाहकार समुज्जवल भट्टाचार्य ने मसौदे का विरोध करते हुए कहा है, "यह अन्यायपूर्ण होने के साथ ही लोकतंत्र-विरोधी, पर्यावरण और पूर्वोत्तर के खिलाफ है. यह आदिवासी समुदायों को उनके अधिकारों से वंचित करने वाला मसौदा है.” कृषक मुक्ति संग्राम समिति के नेता मानस कुंवर आरोप लगाते हैं, "केंद्र सरकार असम और पूर्वोत्तर राज्यों की जमीन और प्राकृतिक संसाधनों को लूटना चाहती है. यह मसौदा पूर्वोत्तर के हितों के खिलाफ है.” बाघजान के हादसे से प्रभावित लोगों ने भी उक्त मसौदे के खिलाफ कमर कस ली है. तेल के कुएं में लगी आग में अपना घर-बार गंवाने वाले हेमंत मोरान कहते हैं, "इस मसौदे को तत्काल रद्द कर दिया जाना चाहिए. अगर इसे इसके मौजूदा स्वरूप में कानूनी जामा पहना दिया गया तो भविष्य में बाघजान जैसी घटनाओं का सिलसिला तेज हो जाएगा.”

पड़ोसी अरुणाचल प्रदेश ने भी मसौदे का विरोध शुरू कर दिया है. अब तक केंद्र की तमाम सरकारें इस राज्य को पनबिजली का सबसे बड़ा स्त्रोत मानते हुए इसके दोहन में लगी रही हैं. नतीजतन पर्यावरण नियमों की अनदेखी कर दर्जनों बांधों और बिजली परियोजनाओं को हरी झंडी दिखाई जा चुकी है. उसका खामियाजा अब इलाके के लोगों को भुगतना पड़ रहा है.

पर्यावरणविदों का कहना है कि इस मसौदे के पारित होने के बाद किसी भी परियोजना को पर्यावरण के लिहाज से मंजूरी देने में आम लोगों और स्थानीय समुदायों की भागीदारी लगभग खत्म हो जाएगी.

दूसरी ओर, केंद्रीय वन व पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर इन तमाम आरोपों और दलीलों को निराधार करार देते हैं. वह कहते हैं, "फिलहाल यह एक मसौदा है. इस पर एक हजार से ज्यादा सुझाव मिले हैं. उसके बाद इसे अंतिम रूप दिया जाएगा. लेकिन विपक्ष इसे बेवजह मुद्दा बना रहा है.” उनकी दलील है कि इस मसौदे को तैयार करते समय अदालती आदेशों और पर्यावरण के नियमों का पूरा ध्यान रखा गया है. लेकिन जावड़ेकर की इन दलीलों का इलाके के लोगों पर कोई खास असर नहीं पड़ा है. नतीजतन मसौदे का विरोध लगातार तेज हो रहा है.

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पर्यावरण असर आकलन के खिलाफ प्रदर्शनतस्वीर: DW/Prabhakar